गृहलक्ष्मी की कहानियां : आज खुशी की सगाई थी, कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा, सभी शामिल हुए थे। ससुराल वाले आवभगत से बहुत प्रसन्न थे, शाम हो चली थी सभी मेहमान विदा हुए तो खुशी भी घर की दूसरी मंजिल में बने अपने कक्ष में चली आई।
दक्षिण की तरफ वाली खिड़की कुछ खड़-खड़ कर रही थी, खुशी ने आगे बढ़कर, सिटकनी हिला दी, सर्र करके दोनों पल्ले खुल गये, खुशी को हवा का झौंका बड़ा प्यारा लगा वो कुछ पल वही खड़ी रही। उसे याद आया, कुछ आया आया, आहा! वो रहा खिड़की से तो उनका घर बिल्कुल साफ-साफ दिख रहा है, वो रहा। खुशी की आंखों ने घर पर नजर टिका दी, वो घर, वहां उसका आना-जाना जब वो बमुश्किल आठ बरस की रही होगी, वो घर उसकी सांस, धड़कन प्रवाह, गति लय सब कुछ था, खुशी की आंखों में दो मोटे-मोटे आंसू ढुलक आये।
शिखा दीदी का घर उसे बहुत अच्छा लगता। गेट खोलकर धनिये, मूली, मेथी की क्यारियां। फांदती डहेलिया के फूलों को नन्हीं हथेलियों से सहलाती खुशी भागती-दौड़ती-फड़फड़ाती हुई दाखिल होती पर उसको प्रिय था सिर्फ शिखा दीदी का अध्ययन कक्ष। कितना बड़ा और कितना साफ-सुथरा।
इतने सारे पेन स्टैण्ड रखे होते, जिनमें रंग-बिरंगे कई पेन, पैंसिलें, मार्कर करीने से लगे होते, खुशी कुछ भी छेड़े-छाड़े शिखा दीदी कुछ नहीं कहती थीं। उनके बुक-शेल्फ पर कितनी मोटी-मोटी किताबें लगी थी। खुशी को कितनी स्पेलिंग्स बोलनी नहीं आती थी, शिखा दीदी उसे बतातीं, ये हयूमैनिटीज़ है ये साइकोलॉजी।
खुशी जरा सी कोशिश करती, उसके बाद मगजमारी नहीं करती थी। दीदी बहुत पढ़ती थी। उससे कहती कि मैं एम.बी.ए. कर रही हूं, तब खुशी को लगता कि वो शायद गलत कह रही हैं ए.बी.एम. होना चाहिए। उसकी बात पर शिखा दीदी मुस्करा देतीं।
खुशी कई बार उनकी टेबल पर रखे सादे कागज़ पर चित्र बना देती। एक बार उसके हाथों से एक बड़ी-मोटी किताब गिर कर बिखर गयी। दीदी ने बगैर कुछ कहे एक-एक कागज वापस जमाया। खुशी से कुछ नहीं कहा।
एक दिन खुशी ने सुना शिखा दीदी की शादी हो रही है। न जाने यह सुनकर खुशी को ऐसा क्या हुआ कि बुखार सा हो गया। दीदी की विदाई पर तो उसे ज्यादा रोना नहीं आया मगर उसके बाद हफ्तों तक वो उदास रही। यहां तक कि उसका पसंदीदा कार्टूंन भी उसका मन नहीं बहला सका।
हौले-हौले समय खिसकता गया। खुशी के बहुत से नये मित्र बने गये थे। उसका शिखा दीदी से मिलना बरसों-बरसों में होता मगर उसके मन के एक कोने में वो स्मृतियां बिल्कुल सुरक्षित थीं और आज तो जाने क्या हुआ कि उसका मन खिड़की से हटने का हो ही नहीं रहा था। उसकी साड़ी का पल्लू अचानक लहरा उठा। उसे संभालते हुए खुशी को याद आया कैसे वो शिखा दीदी की नई-नई चुन्नियां ओढ़कर घूमती रहती थी। और एक बार पता नहीं क्या हुआ कि उसने कैंची से दीदी की गुलाबी चुन्नी की कटिंग कर दी, ओह! कैसी असभ्य हरकत थी, पर दीदी ने मुस्करा कर वो चुन्नी उसे यह कहते हुए दे दी कि ‘‘ले ले, गुड़िया को पहना देना।” कैसे लपक कर ले ली थी उसने वो गुलाबी चुन्नी। खुशी की आंखों से दो और मोटे आंसू ढुलक गये।
तभी किसी ने पीछे से स्पर्श किया। दीदी थी, खुशी सकपका गयी। ‘‘चल-चल नाटक मत कर, पता है मन ही मन में कितनी खुश हो रही है।” कहकर दीदी ने उसके हाथ में फोन थमा दिया। विवान का फोन था, खुशी ने सहज होकर कहा हैलो, विवान की आवाज आई ‘‘खुशी तुम्हारी पहनाई अंगूठी अंगुली में फंस गयी है। उह, उसकी उह सुनकर खुशी किलक उठी। विवान की आवाज फिर आयी ‘‘खुशी, रूको तुमसे कोई बात करना चाहता है।”
खुशी को लगा विवान की मित्र-मण्डली में से होगा कोई न कोई, उसने अपने आपको झटपट दिमागी तौर पर तैयार किया, ताकि कोई भी शरारत भरा व्यंग्य हो तो तुरंत ईंट का जवाब पत्थर से दे सके। वो जानती थी विवान के महाशरारती दोस्तों को।
‘‘हैलो” उधर से किसी महिला का स्वर उभरा।
‘‘हैलो” इधर से खुशी ने जवाब दिया। ‘‘हां भई मैं हूं विवान की दूर के रिश्ते की भाभी लाडो।”
ओह लाडो तो उसे बस शिखा दीदी ही कहा करती थी। खुशी ने आवाज पहचानने की कोशिश की। पल भर में आवाज फिर आयी ‘‘पहचाना” हां, हां खुशी की आंखें डबडब हो गयी। ‘‘प्रणाम” बस इतना ही कह पायी वो। तब तक फोन विवान ने ले लिया था। ‘‘भई शिखा भाभी से नन्हीं खुशी के किस्से सुनकर मजा आ गया। क्या मेरी शर्ट भी फाड़ दोगी, अपनी किसी गुड़िया के लिए” विवान की आवाज में खनक थी। मगर खुशी की आंखें वही घर पर टिकी थीं, कैसे तार जुड़ गये। शिखा दीदी के साथ। आज सचमुच खुशी की ‘सच्ची सगाई’ हुई थी।