गृहलक्ष्मी की कहानियां

जमींदार के नायब गिरीश बसु के अंतःपुर में प्यारी नाम की एक दासी काम में लगी। उसकी उम्र भले ही कम थी पर स्वभाव अच्छा था। दूर पराये गांव से आकर कुछ दिन काम करने के बाद ही, एक दिन वह वृद्ध नायब की प्रेम-दृष्टि से आत्मरक्षा के लिए मालकिन के पास रोती हुई हाजिर हुई। मालकिन बोली, “बेटी, तू दूसरी जगह चली जा, तू तो अच्छे घर की लड़की है, यहां रहने पर तुझे परेशानी होगी।” यह कहकर चुपचाप कुछ पैसे देकर उसे विदा कर दिया।

पर भागना इतना आसान नहीं था। हाथ में राह खर्च भी थोड़ा था, इसलिए प्यारी ने गाँव में हरिहर भट्टाचार्य महाशय के घर पर आश्रय लिया। उनके समझदार बेटों ने कहा, “बाबूजी, क्यों नाहक विपत्ति मोल ले रहे हैं।” हरिहर ने उत्तर दिया, “विपत्ति स्वयं आकर आश्रय मांगे तो उसे लौटाया नहीं जा सकता बेटे।”

गिरीश बसु ने साष्टांग दंडवत करते हुए कहा, “भट्टाचार्य महाशय, आपने मेरी नौकरानी क्यों फुसला ली? घर में काम की बड़ी असुविधा हो रही है।” उत्तर में हरिहर ने दो-चार खरी बातें कड़े स्वर में कहीं। वे सम्मानित व्यक्ति थे, किसी की खातिर कोई बात घुमा-फिराकर कहना नहीं जानते थे। नायब मन-ही-मन ‘पर निकली चींटी’ के साथ उनकी तुलना करता चला गया। जाते वक्त बड़े आडंबर के साथ उनकी चरण धूलि ली।

दो-चार दिनों बाद ही भट्टाचार्य के घर पर पुलिस आ धमकी। गृहस्वामिनी के तकिये के नीचे से नायब की पत्नी के कानों का एक जोड़ा झुमका मिला। दासी बेचारी चोर प्रमाणित होकर जेल चली गई। भट्टाचार्य महाशय को अपने देश-प्रसिद्ध दबदबे के जोर पर चोरी के माल के संरक्षण के अभियोग से मुक्ति मिली। नायब ने फिर ब्राह्मण की चरण धूलि ली। ब्राह्मण ने जाना, उनके उस अभागिन को आश्रय देने के कारण ही प्यारी पर यह घोर संकट आया। उनके मन में कांटा चुभा रहा। उनके बेटों ने कहा, “जमीन-जायदाद बेचकर कलकत्ता चलें, यहां बड़ी मुश्किल नजर आ रही है।” हरिहर ने उत्तर दिया, “पैतृक घर मेरे से छोड़ा नही जाएगा। भाग्य में बदी होने पर विपत्ति कहां नहीं आती?”

इसी बीच गांव में नायब द्वारा अत्यधिक करवृद्धि की कोशिश में रैयत विद्रोही हो उठी। हरिहर की सारी जमीन माफी की थी, जमींदार से उसका कोई सरोकार नहीं था। नायब ने अपने मालिक को जतलाया कि हरिहर ने ही रैयतों को प्रश्रय देकर विद्रोही बना दिया है।

जमीदार ने कहा, “जैसे भी हो भट्टाचार्य को ठीक करो।” नायब भट्टाचार्य की चरण धूलि लेकर बोला, “सामने वाली वह जमीन परगना की सीमा के अंतर्भुक्त है, उसे तो छोड़ना होगा।”

हरिहर ने कहा, “यह क्या कह रहे हो? वह तो मेरी बहुत दिनों की दान की जमीन है।” हरिहर के आंगन से लगी पैतृक जमीन को जमींदार के परगने के अंतर्भुक्त बताकर नालिश दायर कर दी गई।

हरिहर बोले, “तब तो इस ज़मीन को छोड़ना पड़ेगा। मैं तो बुढ़ापे में अदालत में गवाही देने नहीं जा सकूंगा।”

उनके बेटों ने कहा, “घर से लगी पैतृक जमीन ही यदि छोड़नी पड़े तो फिर घर में कैसे टिका जाएगा?”

वृद्ध पैतृक धार के प्राणाधिक मोह में कांपते डग से अदालत के साक्ष्य-मंच पर जाकर खड़े हुए। मुंसिफ नवगोपाल बाबू ने उनकी गवाही को ही साक्षी मान मुकदमा खारिज कर दिया। गांव में भट्टाचार्य के खास रैयतों ने इसे लेकर बड़े धूमधाम से उत्सव समारोह शुरू कर दिया। हरिहर ने जल्दी से उन्हें रोका। नायब ने आकर विशेष आडंबर के साथ भट्टाचार्य की चरण धूलि ली और सारी देह और सिर-माथे लगाई और फिर अपील दायर कर दी। वकील लोग हरिहर से पैसा नहीं लेते थे। वे ब्राह्मण को बार-बार आश्वासन देते कि इस मुकदमे में हारने की कोई संभावना नहीं है। दिन भी क्या कभी रात हो सकता है? यह सुनकर हरिहर निश्चिन्त होकर बैठे रहे।

एक दिन जमींदार की कचहरी में ढाक-ढोल बज उठे। पाठे की बलि के साथ नायब के मकान में काली मैया की पूजा होगी। भला बात क्या है? भट्टाचार्य को खबर मिली कि अपील में उनकी हार हुई है।

भट्टाचार्य ने सिर पीटते हुए वकील से कहा, “बसंत बाबू, यह आपने क्या किया? मेरी क्या दशा होगी?”

दिन कैसे रात हुई, बसंत बाबू ने इसका गूढ़ वृत्तांत इस तरह बतलाया, “हाल ही में जो नए एडिशनल जज होकर आए हैं, वे जब मुंसिफ थे तब मुंसिफ नवगोपाल बाबू के साथ उनकी बड़ी खटपट थी। उस समय वे कुछ कर नहीं पाए। आज जज की कुर्सी पर बैठकर नवगोपाल बाबू की दी हुई राय को देखते ही उसे उन्होंने पलट दिया। इसलिए आप हार गए।”

आकुल हरिहर ने पूछा, “हाईकोर्ट में क्या इसकी कोई अपील नहीं?” बसंत बाबू ने उत्तर दिया, “जज बाबू ने अपील से फल पाने की संभावना तक नहीं छोड़ी है। उन्होंने आपके गवाह पर संदेह प्रकट किया और विरोधी पक्ष के गवाह का विश्वास किया, हाईकोर्ट में तो गवाह पर विचार नहीं होगा।”

वृद्ध ने आंखों में आंसू भरकर पूछा, “फिर मेरे लिए कोई उपाय?”

वकील बोले, “उपाय तो एक भी नजर नहीं आता।”

दूसरे दिन गिरीश बसु ने लोगों के साथ आकर समारोह के साथ ब्राह्मण की चरण धूलि ली और जाते हुए गहरी सांस के साथ कहा, “प्रभु, जैसी तुम्हारी इच्छा!”

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