मैंने फटाफट ब्रेड पर देसी घी लगाया और झटपट घी लगी ब्रेड बड़े चटखारे ले-लेकर खाती रही। थोड़ी देर बाद मेरे गले में खुजली होने लगी और धीरे-धीरे खुजली इस कदर बढ़ने लगी कि मुझे लगा जैसे कोई मेरी गर्दन काट रहा है। मुझे इतना असहनीय दर्द होने लगा कि सोचा ऐसा भी क्या खा लिया मैंने, अभी तक तो ठीक थी, यही सब सोचते हुए मैंने ब्रेड का पैकेट उठाया और उसमें से दूसरी ब्रेड निकालकर उसे ध्यान से देखा तो मैं एकदम हैरान रह गई। सारी ब्रेड में चीटियां लगी हुई थीं, छोटी-छोटी, लाल-लाल चीटियां।

इन्हीं छोटी-छोटी, लाल-लाल चीटियों को मैं दो ब्रेड पर घी लगाकर चटखारे लेते हुए खा चुकी थी।

गले का दर्द और अधिक भयावहता से बढ़ने लगा और उल्टियों के साथ-साथ मैं रोने लगी, चीखने-चिल्लाने लगी। उस समय घर पर कोई भी नहीं था। तभी पड़ोस की एक आंटी ने मेरा रोना-चिल्लाना सुनकर दरवाजा खटखटाया। उन्होंने, हल्का गुनगुना हल्दी वाला पानी और न जाने उसमें क्या-क्या डालकर मुझे पिलाया कि मुझे धीरे-धीरे कुछ समय बाद आराम होने लगा। उस घटना के बाद से मैंने कान पकड़ लिए कि कितनी भी तेज भूख लगी हो लेकिन बिना देखे जल्दबाजी में कभी कुछ नहीं खाना है।

– डॉ. संगीता शर्मा ‘अधिकारी’

 

कूड़े की जगह कोने में ही होती है

बात उन दिनों की है, जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था। हम 6-7 दोस्तों की आदत थी कक्षा में हमेशा पीछे बैठने की, वो भी कोने में ताकि टीचर की नजर से और पढ़ाई से बच सकें। एक दिन संस्कृत का क्लास चल रहा था और हमारी टीचर छवि मैडम सबसे सवाल पूछ रही थीं। आदतन हम बात करने में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं चला कि मैम हमसे ही सवाल पूछ रही थीं। क्लास में ध्यान तो था नहीं और संस्कृत तो वैसे ही नहीं समझ आती थी तो जवाब देते कहां से!

हमारी मैम ने हमपर जोरदार ताना मारते हुए कहा, ‘तुम लोग बिल्कुल सही जगह बैठते हो क्योंकि कूड़े की जगह कोने में ही होती है, ये सुनकर पूरी कक्षा हमपर हंसने लगी और हमें कूड़े से अपनी तुलना सुनकर इतनी शर्मींदगी हुई कि बस दूसरे दिन से हमलोगों ने पीछे बैठने की और कोना पकड़ने की आदत से तौबा कर ली।

– शशि, (गाजियाबाद)

 

मेरी दादी हर महीने डॉक्टर को आंखें दिखाने जाती है

मैं चौथी कक्षा में पढ़ती थी। मेरी हिंदी की परीक्षा थी। मेरे परीक्षा पत्र में- ‘आंखें दिखाना’, मुहावरे पर वाक्य बनाने के लिये आया तो मैंने वाक्य बना दिया कि मेरी दादी हर महीने डॉक्टर को आंखें दिखाने जाती हैं। टीचर जी ने आन्सरशीट घर पर माता पिताजी के हस्ताक्षर करने के लिए मुझे दी और मेरे पिताजी ने हस्ताक्षर करने के लिए आन्सर शीट ली और देखा कि मैंने क्या सही किया है क्या $गलत। 

जब उनकी नज़र मेरे ‘आंखें दिखाने’ वाले वाक्य पर पड़ी तो उन्होंने मम्मी और दादीजी को भी दिखाया और हंसने लगे और मुझे मेरी गलती बताई।

दरअसल उन दिनों मेरी दादी जी अपनी आंखों का इलाज करवा रही थीं और इसलिए डॉक्टर साहब के पास आंखें दिखाने जाती रहती थीं। आज भी जब आंखों के डॉक्टर के पास जाती हूं तो बरबस ही बचपन की वो नादानी को सोच कर मैं मुस्करा उठती हूं।

– पूज़ा अशोक, (नई दिल्ली)

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हमारा बचपन नादानियों, शरारतों और शैतानियों  से भरा होता है ये पल हमें भी हसातें हैं आप भी अपने बचपन के मजेदार किस्से लिखकर हमें इस पते पर भेज सकते हैंगृहलक्ष्मी मैगज़ींस, X-30, ओखला फेज-2 , नई दिल्ली-20