duniya ka sabse anmol ratan
duniya ka sabse anmol ratan

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

दिलफिगार एक पुरखार दरख्त (कँटीले पेड़) के नीचे दामन चाक बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह हुस्न की देवी यानी मलका दिलफरेब का सच्चा और जाँबाज आशिक था। उन इशाक (आशिकों) में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और लिबासे-फाखिरा (शानदार कपड़ों) में सजकर आशिक के भेष में माशूकियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फिदाइयों (आत्म-घातियों) में, जो कोह (पहाड़) और बियाबाँ (जंगल) से सिर टकराते हैं और नाला-ओ-फरियाद (आर्त प्रार्थना) मचाते फिरते हैं।

दिलफिगार एक पुरखार दरख्त (कँटीले पेड़) के नीचे दामन चाक बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह हुस्न की देवी यानी मलका दिलफरेब का सच्चा और जाँबाज आशिक था। उन इशाक (आशिकों) में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और लिबासे-फाखिरा (शानदार कपड़ों) में सजकर आशिक के भेष में माशूकियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फिदाइयों (आत्म-घातियों) में, जो कोह (पहाड़) और बियाबाँ (जंगल) से सिर टकराते हैं और नाला-ओ-फरियाद (आर्त प्रार्थना) मचाते फिरते हैं।

दिलफरेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा आशिक है, तो जा और दुनिया की सबसे बेशबहा शय (कीमती चीज) लेकर मेरे दरबार में आ, तब मैं तुझे अपनी गुलामी में कबूल करूँगी। अगर तुझे वह चीज न मिले तो खबरदार इधर रुख न करना, वरना दार (सूली) पर खिंचवा दूंगी। दिलफिगार को अपनी जज्बे के इजहार का, शिकवे-शिकायत का और जमाले-यारे-दीदार (प्रेमिका के सौन्दर्य-दर्शन) का मुतलक (तनिक) मौका न दिया गया। दिलफरेब ने ज्यों ही यह फैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने गरीब दिलफिगार को धक्के देकर बाहर निकाल दिया।

और आज तीन दिन से यह सितम रसीदा शख्स (आफत का मारा आदमी) उसी पुरखार दरख्त के नीचे उसी वहशतनाक (भयानक) मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ। दुनिया की सबसे बेशबहा शय! नामुमकिन! और वह है क्या? कारूँ का खजाना? आबे हयात? ताजे खुसरो? जामे-जम? तख्ते ताऊस? जरे-परवेज (परवेज की दौलत)? नहीं, यह चीजें हरगिज नहीं। दुनिया में जरूर इनसे भी गिराँतर (महँगी), इनसे भी बेशबहा चीजें मौजूद हैं मगर वह क्या हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या खुदा, मेरी मुश्किल क्यों कर आसान होगी?

दिलफिगार इन्हीं ख्यालात में चक्कर खा रहा था और अक्ल कुछ काम न करती थी। मुनीर शामी को हातिम-सा मददगार मिल गया। ऐ, काश! कोई मेरा भी मददगार हो जाता, ऐ काश! मुझे भी उस चीज का, जो दुनिया की सबसे बेशबहा चीज है, नाम बतला दिया जाता! बला से वह चीज दस्तयाब न होती (हाथ न आती) मगर मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह किस किस्म की चीज है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। मैं समंदर का नगमा, पत्थर का दिल, कजा (मौत) की आवाज और इनसे भी ज्यादा बे-निशान चीजों की तलाश में कमर कस सकता हूँ। मगर दुनिया की सबसे बेशबहा शय…! यह मेरे पर परवाज (कल्पना की उड़ान) से बालातर (बहुत ऊपर) है।

आसमान पर तारे निकल आये थे। दिलफिगार यकायक खुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ को चल खड़ा हुआ। भूखा-प्यासा, बिरहना तन (नंगे बदन), खस्ता व जार (थकन से चूर), वह बरसों वीरानों और आबादियों की खाक छानता फिरा, तलवे काँटों से छलनी हो गए, जिस्म में तारे मिस्तर* की तरह हड्डियाँ ही हड्डियाँ नजर आने लगीं। मगर वह चीज, जो दुनिया की सबसे बेशबहा शय थी, न मिली और न उसका कुछ निशान मिला।

एक रोज वह भूलता-भटकता एक मैदान में जा निकला, जहाँ हजारों आदमी हलका (गोल) बाँधे खड़े थे। बीच में कई अमामे और इबाद (पगड़ी और चोगे) वाले रीशाईल (दढ़ियल) काजी शाने तहकुम (अफसरी शान) से बैठे हुए बाहम (परस्पर) कुछ गुर्फिश (सलाह-मशविरा) कर रहे थे और इस जमात से जरा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिलफिगार कुछ तो नातवानी (कमजोरी) के गलबे से (हावी होने से), कुछ यहाँ की कैफियत देखने के इरादे से ठिठक गया। क्या देखता है, कि कई बर्कन्दार (नंगी तलवारें लिये), एक दस्तो-पा बजंजीर (हाथ-पैर में जंजीरें) कैदी को लिए चले आ रहे हैं। सूली के करीब पहुँचकर सब सिपाही रुक गए और कैदी की हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ सब उतार ली गयीं। इस अभागे आदमी का दामन सदहा (सैकड़ों) बेगुनाहों के खून के छींटों से रंगीन हो रहा था, और उसका दिल नेकी के ख्याल और रहम की आवाज से जरा भी मुतलक मानूस (परिचित) न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहियों ने उसे सूली के तख्ते पर खड़ा कर दिया, मौत की फाँसी उसकी गरदन में डाल दी और जल्लादों ने तख्ता खींचने का इरादा किया कि वह बदकिस्मत मुजरिम चीखकर बोला“लिल्लाह (खुदा के वास्ते) मुझे एक दम (साँस) के लिए फाँसी से उतार दो ताकि अपने दिल की आखिरी आरजू निकाल लूँ।” यह सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लोग हैरत में आकर ताकने लगे। काजियों ने एक मरने वाले शख्स की आखिरी इस्तेदा (अंतिम याचना) को रद्द करना उचित न समझा और बदनसीब सियाकार (पापी) काला चोर जरा देर के लिए फाँसी से उतार लिया गया।

इसी मजमे में एक खूबसूरत भोला-भोला लड़का एक छड़ी पर सवार होकर अपने पैरों पर उछल-उछलकर फर्जी घोडा दौडा रहा था और अपने घोड़ा दौड़ा रहा था और अपने आलमे सादगी (सादगी की दुनिया) में ऐसा मगन था कि गोया (मानो) वह इस वक्त सचमुच किसी अरबी घोड़े का शहसवार है। उसका चेहरा उस सच्ची मसर्रत (खुशी) से कँवल की तरह खिला हुआ था जो चंद दिनों के लिए बचपन ही में हासिल होती है और जिसकी याद हमको मरते दम तक नहीं भूलती। उसका दिल अभी तक मासियत (पाप) के गर्दो गुबार से बेलौस (अछूता) था और मासूमियत उसे अपनी गोद में खिला रही थी।

बदकिस्मत काला चोर फाँसी से उतरा। हजारों आँखें उस पर गड़ी हुई थीं। वह उस लड़के के पास आया और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगा। उसे इस वक्त वह जमाना याद आया जब वह खुद ऐसा ही भोला-भाला, ऐसा ही खुश-व-खुर्रम और आलाइशाते दुनियवी (दुनिया की गंदगियों) से ऐसा ही पाको-साफ था। माँ गोदियों में खिलाती थीं, बाप बलाएँ लेता था और सारा कुनबा जानें वारा करता था। आह! काले चोर के दिल पर इस वक्त अय्यामे गुजिश्ता (बीते हुए दिनों) की याद का इतना असर हुआ कि उसकी आँखों से, जिन्होंने नीम बिस्मिल (दम तोड़ती हुई) लाशों को तड़पते देखा और न झपकी थीं, आँसू का एक कतरा टपक पड़ा। दिलफिगार ने लपककर उस दुरे यकता (अनमोल कतरा) को हाथ में ले लिया और उसके दिल ने कहा- “बेशक यह शय दुनिया की सबसे अनमोल चीज है, जिस पर तख्ते ताऊस और जामे-जम और आबे हयात और जरे-परवेज सब तसद्दुक (न्योछावर) हैं।”

इसी ख्याल से खुश होता कामयाबी की उम्मीद में सरमस्त, दिलफिगार अपनी माशूका दिलफरेब के शहर मीनोसवाद को चला। मगर ज्यों-ज्यों मंजिलें तय होती जाती थीं उसका दिल बैठा जाता था कि कहीं उस चीज की, जिसे मैं दुनिया की सबसे बेशबहा चीज समझता हूँ, दिलफरेब की आँखों में कद्र न हुई तो मैं दार (सूली) पर चढ़ा दिया जाऊँगा और इस दुनिया से नामुराद जाऊँगा। पर हरचे-बाद-अबाद (कुछ ही क्यों न हो), अब तो किस्मत-आजमाई है।

आखिरकार पहाड़ और दरिया तय करते शहर मीनोसवाद में आ पहँचा और दिलफरेब के दरे दौलत (ड्योढ़ी) पर जाकर इलतेमास (विनती) की कि खस्ता-ओ-जार (थकान से टूटा हुआ) दिलफिगार खुदा तामीले इरशाद (हुक्म की तामील) करके आया है, और शरफे कदमबोसी (आपके कदम चूमना) चाहता है। दिलफरेब ने फिलफौर (फौरन) हुजूर में (अपने सामने) बुला भेजा और एक जरनिगार (सुनहरे) परदे की ओट से फरमाइश की कि वह हदिया बेशबहा (कीमती उपहार) पेश करो। दिलफिगार ने उम्मीदो-बीम के आलम में (आशा और भय की मनःस्थिति में) वह कतरा पेश किया और उसकी सारी कैफियत बहुत मोअस्सिर (असरदार) लफ्जों में बयान की। दिलफरेब ने कुल रूदाद (पूरी कहानी) ब-गौर सुनी और तोहफा हाथ में लेकर जरा देर तक गौर करके बोली- “दिलफिगार, बेशक तूने दुनिया की एक बेशकीमत चीज ढूँढ निकाली, तेरी हिम्मत को आफरीं (प्रशंसा) और तेरी फिरसत को मरहबा (सूझबूझ को दाद)! मगर यह दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज नहीं, इसलिए तू यहाँ से जा और फिर कोशिश कर, शायद अब की तेरे हाथ दुरे मुकद्दर (किस्मत का मोती) लगे और तेरी किस्मत में मेरी गुलामी लिखी हो। अपने अहद (निश्चय) के मुताबिक मैं तुझे दार पर खिंचवा सकती हूँ मगर मैं तेरी जाँ-बख्शी करती हूँ, इसलिए कि तुझमें वह औसाफ (गुण) मौजूद हैं, जो मैं अपने आशिक में देखना चाहती हूँ और मुझे यकीन है कि तू जरूर कभी सुर्खरू (कामयाब) होगा।”

नाकाम और नामुराद दिलफिगार इस इनायते माशूकाना (प्रेमिका की कृपा) से जरा दिलेर होकर बोला- “ऐ महबूब दिलनशीन (दिल की रानी), मुद्दतहाए दराज (बड़ी मुद्दत के बाद) तेरे आस्ताने की रसाई (पहुँच) नसीब होती है। फिर खदा जाने ऐसे दिन कब आएँगे. क्या त अपने जान देने वाले आशिके-जाँबाज के हाले-जार (बुरे हाल) पर तरस न खाएगी और अपने जमाले-जहाँआरा का जलवा (अपने रूप की एक झलक) दिखाकर इस सोख्ता तन (जलते हुए) दिलफिगार को आने वाली सख्तियों के झेलने के लिए मुस्तइद (उत्साही) न बनाएगी? तेरी एक निगाहे-मस्त के नशे से बेखुद होकर मैं वह कर सकता हूँ जो आज तक किसी से न हुआ हो।”

दिलफरेब आशिक के यह इश्तियाक आमेज कलमात (लालसापूर्ण बातें) को सुनकर बर अफरोख्ता हो गई (भड़क गई) और हुक्म दिया कि इस दीवाने को खड़े-खड़े दरबार से निकाल दो। चोबदार ने फौरन गरीब दिलफिगार को धक्के देकर कूचए-यार से बाहर निकाल दिया।

कुछ देर तक तो दिलफिगार माशूकाना सितम केश (प्रेमिका के निष्ठुर स्वभाव) की तुंद खूनी (कठोरता) पर आँसू बहाता रहा। बाद अजाँ (तत्पश्चात) सोचने लगा कि अब कहाँ जाऊँ। मुद्दतों रहनवर्दी (आवारगी) बादिया पैमाई (जंगलों में भटकने) के बाद यह कतरए-अश्क मिला था। अब ऐसी कौन-सी चीज है जिसकी कीमत इस दुरे आबदार (मोती) से ज्यादा हो।

“हजरते खिज्र! तुमने सिकंदर को चाहे-जुल्मात (आबेहयात के कुएँ) का रास्ता दिखाया था, क्या मेरी दस्तगीरी न करोगे (बाँह न पकड़ोगे)? सिकंदर शाहे-हफ्ते-किश्वर (सातों द्वीपो का मालिक) था। मैं तो एक खानमाने बर्बाद (बेघरबार) मुसाफिर हूँ। तुमने कितनी ही डूबती किश्तियाँ किनारे लगायी हैं, मुझ गरीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ, जिबराईल आलीमुकाम! कुछ तुम्हीं इस आशिके-नीमजान व असीरे-रंजो-मेहन (मरणासन्न आशिक और दुख और श्रम का कैदी) पर तरस खाओ। तुम मुकर्रबाने बारगाह (खुदा के नजदीकी दरबारी) से हो, क्या मेरी मुश्किल आसान न करोगे?”

अलगर्ज (गरज यह कि) दिलफिगार ने बहुत फरियाद मचाई। मगर कोई उसकी दस्तगीरी के लिए नमूदार न हुआ (सामने न आया)। आखिर मायूस होकर वह मजनू सिफत (मजनू की तरह) दोबारा एक तरफ को चल खड़ा हुआ।

दिलफिगार ने पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही दयारों (इलाकों) की खाक छानी, कभी बर्फिशानी चोटियों पर सोया, कभी हौलनाक वादियों (डरावनी घाटियों) में भटकता फिरा मगर जिस चीज की धन थी वह न मिली. यहाँ तक कि उसका शरीर तंदे-उस्तख्खाँ (हड़ियों का ढाँचा) हो गया।

एक रोज वह शाम के वक्त किसी दरिया के किनारे खस्ताहाल पड़ा हुआ था। नश-बेखुदी से चौंका तो क्या देखता है कि संदल (चंदन) की एक चिता बनी हुई है और उस पर एक नाजनीन (सुंदर युवती) शाहाने (राजसी) जोड़े पहने, सोलहों सिंगार किए बैठी हुई है। उसकी जानू (जाँघ) पर उसके प्यारे शौहर की लाश है। हजारों आदमी हलका बाँधे खड़े हैं और फूलों की बरखा कर रहे हैं। यकायक चिता में से खुद-ब-खुद एक शोला उठा। सती का चेहरा उस वक्त एक पाक जज्बे से मुनव्वर (पवित्र भाव से आलोकित) हो रहा था। मुबारक शोले उसके गले लिपट गए और दम-जदन (क्षण भर में) वह फूल-सा जिस्म तूदा-ए-खाकस्तर (राख का ढेर) हो गया। माशूक ने अपने तई आशिक पर निसार कर दिया और दो फिदाइयों (प्रेमियों) की सच्ची. लाफानी (अनश्वर) और पाक मोहब्बत का आखिरी जलवा निगाहे-जाहिर से पिन्हा (ओझल) हो गया। जब सब लोग अपने घरों को लौटे तो दिलफिगार चुपके से उठा और अपने गिरेबान चाक-दामन में यह तूद-ए-खाक (राख का ढेर) समेट लिया और इस मुश्ते-खाक (मुट्ठी भर राख) को दुनिया की सबसे गिराँबहा (बेशकीमती) चीज समझता हुआ, कामरानी के नशे में मखमूर (सफलता के नशे में चूर), कूचए-यार की तरफ चला। अबकी ज्यों-ज्यों वह अपनी मंजिले मकसूद के करीब आता था, उसकी हिम्मतें बढ़ती जाती थीं। कोई उसके दिल में बैठा हुआ कह रहा था-‘अबकी तेरी फतह है’ और इस ख्याल ने उसके दिल को जो-जो ख्वाब दिखाए उसका जिक्र फुजूल है। आखिरकार वह शहर मीनोसवाद में दाखिल हुआ और दिलफरेब के आस्ताने रिफअत (ऊँची ड्योढ़ी) पर जाकर खबर दी कि दिलफिगार सुर्खरू और बावकार (गरिमामय) होकर लौटा है और हुजूरी में बारयाब (आज्ञा) हुआ चाहता है। दिलफरेब ने आशिके जाँबाज को फौरन दरबार में बुलाया और उस चीज के लिए, जो दुनिया की सबसे बेशबहा जिन्स (कीमती वस्तु) थी, हाथ फैला दिया। दिलफिगार ने जुर्भात (हिम्मत) करके उसकी सादे सीमी (चाँदी जैसी शुभ कलाई) का बोसा लिया और मुश्ते-खाक को उसमें रखकर सारी कैफियत निहायत दिलसोज (दिल पिघला देने वाले) अंदाज में कह सुनायी और माशूका दिलपजीर (लुभावनी प्रेमिका) के नाजुक लबों से अपनी किस्मत का मुबारक और जाँफजा फैसला सुनने के लिए मुंतजिर (प्रतीक्षारत) हो उठा। दिलफरेब ने उस मुश्ते-खाक को आँखों से लगा लिया और कुछ देर तक दरियाए तफक्कुर (विचारों के सागर) में गर्क (डबे) रहने के बाद बोली- “ऐ आशिके जाँनिसार दिलफिगार! बेशक यह खाक कीमियाए-सिफत (लोहे को सोना कर देनेवाली) है, जो तू लाया है, दुनिया की बहुत बेशकीमत चीज है और मैं सिद्दक दिल (सच्चे दिल) से तेरी ममनून (एहसानमन्द) हूँ कि तूने ऐसा बेशबहा तोहफा मुझे पेश किया। मगर दुनिया में इससे भी ज्यादा गिराँ कद्र कोई चीज है, जा उसे तलाश कर और तब मेरे पास आ। मैं तहेदिल से दुआ करती हूँ कि खुदा तुझे कामयाब करे।” यह कहकर वह पर्दा-ए-जरनिगार (सुनहरे परदे) से बाहर आई और माशूकाना अदा से अपने जमाले जाँ सोज का जलवा (दिल लुभानेवाला रूप का जलवा) दिखाकर फिर नजरों से ओझल हो गई। एक बर्क (बिजली) थी कि कौंधी और फिर पर्दाए-अब्र (बादलों के परदे) में छिप गई। अभी दिलफिगार के हवास बजा (होश-हवास ठिकाने पर) न होने पाये थे कि चोबदार ने मुलायमियत से उसका हाथ पकड़कर कूचा-ए यार से उसको निकाल दिया और फिर तीसरी बार वह बंदा-ए-मुहब्बत जाविया-ए-नशीने कुंजे नाकामी (असफलता के साए में एकाकी बैठने वाला प्रेमी) यास (निराशा) के अथाह समंदर में गोता खाने लगा।

दिलफिगार का हियाव छूट गया। उसे यकीन हो गया कि मैं दुनिया में इसी तरह नाशाद-ओ-नामुराद मर जाने के लिए पैदा किया गया था और अब ब-जुज (इसके सिवा) और कोई चारा नहीं कि किसी पहाड़ पर चढ़कर अपने तई गिरा दूं, ताकि माशूक की जफाकारियों (जुल्मों की) फरियाद करने के लिए एक रेजा अस्तख्वाँ (हड्डी का जर्रा) भी बाकी न रहे। वह दीवानावार उठा और अफ्ताँ-व-खेजाँ (गिरता-पड़ता) एक सरे-फलक कोह (गगनचुंबी पहाड़) की चोटी पर जा पहुँचा। किसी और वक्त वह ऐसे ऊँचे पहाड़ पर चढ़ने की जुर्भत न कर सकता था, मगर इस वक्त जान देने के जोश में उसे वह पहाड़ एक मामूली टेकरी से ज्यादा ऊँचा न नजर आया। करीब था कि वह नीचे कूद पड़े कि एक सब्जपोश (हरे कपड़े पहने) पीरो-मर्द हरा अमामा बाँधे एक बुजुर्ग एक हाथ में तसबीह और दूसरे हाथ में असा (लाठी) लिये बरामद हुए और हिम्मत अफ्जा (बढ़ानेवाले) लहजे में बोले- “दिलफिगार, नादान दिलफिगार, यह क्या बुजदिलाना हरकत है! इस्तिक्लाल (मजबूत इरादा) राहे इश्क की पहली मंजिल है। मर्द बन और यों हिम्मत न हार। मशरिक (पूरब) की तरफ एक मुल्क है जिसका नाम हिंदोस्तान है, वहाँ जा और तेरी आरज परी होगी।”

यह कहकर हजरते खिज्र गायब हो गए। दिलफिगार ने शुक्रिया की नमाज अदा की और ताजा हौसले, ताजा जोश और गैबी इमदाद (अलौकिक सहायता) का सहारा पाकर खुश-खुश पहाड़ से उतरा और जानिबे हिन्दोस्तान मुराजअत की (प्रस्थान किया)।

मुद्दतों तक पुरखार (काँटों से भरे) जंगलों, शररबार (आग बरसाने वाले रेगिस्तानों), दुश्वार गुजार घाटियों और नाकाबिले अबूर (अलंघ्य) पहाड़ों को तय करने के बाद दिलफिगार हिंद की पाक सरजमीन में दाखिल हआ और खुशगवार चश्मे (ठण्डे पानी के सोते) में सफर की तकलीफें धोकर गलबा-ए-माँदगी (थकान के कारण) लबे जू-ए-बार (नदी के तट पर) लेट गया। शाम होते-होते वह एक कफे दस्त (चटियल) मैदान में पहुँचा जहाँ बेशुमार नीम कुश्ता (अधमरी) और बेजान लाशें बे-गोरो कफन (बिना कफन-दफन) पड़ी हुई थीं। जाग-ओ-जगन (कौए-चील) और वहशी दरिंदों की गरम बाजारी थी और सारा मैदान खून से शंगर्फ (ईंगुर जैसा लाल) हो रहा था। यह हैबतनाक (डरावना) नजारा देखते ही दिलफिगार का जी दहल गया। खुदाया, किस अजाब में जान फँसी, मरनेवालों का कराहना, सिसकना और एड़ियाँ रगडकर जान देना, दरिंदों का हड्डियों को नोचना और गोश्त के लोथड़ों को लेकर भागना, ऐसा हौलनाक सीन दिलफिगार ने कभी न देखा था। यकायक उसे ख्याल आया, मैदाने कारजार (जंग का मैदान) है और यह लाशें सूरमा सिपाहियों की हैं। इतने में करीब से कराहने की आवाज आई। दिलफिगार उस तरफ फिरा तो देखा कि एक कवी हैकल (लम्बा-तडंगा) शख्स, जिसका मर्दाना चेहरा सिफाते जानकंदनी (जान निकलने की कमजोरी) से जर्द हो गया है, जमीन पर सिर निगूं (सिर झुकाए) पड़ा हुआ है। सीने से खून का फौव्वारा जारी है, मगर शमशीरे-आबदार (चमकती तलवार) का कब्जा पंजे से अलग नहीं हुआ। दिलफिगार ने एक चीथड़ा लेकर दहाने-जख्म (घाव के मुँह) पर रख दिया ताकि खून रुक जाए और बोला- “ऐ जवाँमर्द, तू कौन है?”

जवाँमर्द ने यह सुनकर आँखें खोली और दिलेराना लहजे में बोला- “क्या तू नहीं जानता मैं कौन हूँ? क्या तूने आज इस तलवार की काट नहीं देखी? मैं अपनी माँ का बेटा और भारत का लखते-जिगर हूँ।” यह कहते-कहते उसकी तेवरों पर बल पड़ गए। जर्द चेहरा खशमगीं (कुपित) हो गया और शमशीरे आबदार फिर अपना जौहर दिखाने के लिए चमक उठी। दिलफिगार समझ गया कि यह इस वक्त मुझे दुश्मन ख्याल कर रहा है, मुलायमियत से बोला- “ऐ जवाँमर्द, मैं तेरा दुश्मन नहीं हूँ। आवारा-वतन गुरबतजदा (गरीब) मुसाफिर हूँ। इधर भूलता-भटकता आ निकला। बराहे करम मुझसे यहाँ की मुफस्सिल (विस्तार से) कैफियत बयान कर।”

यह सुनते ही घायल सिपाही निहायत शीरी लहजे में बोला- “अगर तू मुसाफिर है तो आ और मेरे खून से तर पहलू में बैठ जा क्योंकि यही दो अंगुल जमीन है जो मेरे पास बाकी रह गई है और जो सिवाय मौत के कोई नहीं छीन सकता। अफसोस है कि तू यहाँ ऐसे वक्त में आया जब हम तेरी मेहमान नवाजी करने के काबिल नहीं। हमारे बाप-दादा का देस आज हमारे हाथ से निकल गया और इस वक्त हम बेवतन हैं। मगर (पहलू बदलकर) हमने हमलावर गनीम (दुश्मन) को बता दिया कि राजपूत अपने देस के लिए कैसी बे-जिगरी (बहादुरी) से जान देता है। यह आस-पास जो लाशें तू देख रहा है, यह उन लोगों की है, जो इस तलवार के घाट उतरे हैं। (मुस्कराकर) और गोकि (यद्यपि) मैं बेवतन हूँ, मगर गनीमत है कि हरीफ के हलके (दुश्मन की जमीन) पर मर रहा हूँ। (सीने के जख्म से चीथड़ा निकालकर) क्या तूने यह मरहम रख दिया? खून निकलने दे, इसे रोकने से क्या फायदा? क्या मैं अपने ही देश में गुलामी करने के लिए जिंदा हूँ? नहीं, ऐसी जिंदगी से मरना अच्छा। इससे बेहतरीन मौत मुमकिन नहीं।”

जवाँ मर्द की आवाज मद्धिम हो गई, आजा (अंग) ढीले हो गए, खून इस कसरत से बहा कि खुद-ब-खुद बंद हो गया। रह-रहकर एकाध कतरा टपक पड़ता था। आखिरकार सारा जिस्म बेदम हो गया, कल्ब (दिल) की हरकत बंद हो गई और आँखें बंद हो गईं। दिलफिगार ने समझा अब काम तमाम हो गया कि मरने वाले ने आहिस्ता से कहा- “भारतमाता की जय!” और उसके सीने से आखिरी कतरा खून निकल पड़ा। सच्चे मुहिब्बे-वतन (देश-प्रेमी) और देसभगत ने हुब्बुल वतनी (देशभक्ति) का हक अदा कर दिया। दिलफिगार इस नजारे से बेहद मुतास्सिर हुआ और उसके दिल ने कहा, बेशक दुनिया में इस कतर-ए-खून से ज्यादा बेशकीमत शय कोई नहीं हो सकती। उसने फौरन उस रश्के लाल रुम्मानी (अनार के दानों की तरह लाल रत्न को लज्जित करने वाला) को हाथ में ले लिया और इस दिलेर राजपूत की असालत (बहादुरी) पर अश-अश (हैरत) करता हुआ आजमे वतन की तरफ रवाना हुआ और वही सख्तियाँ झेलता बिलआखिर मुद्दते-दराज (बहुत दिनों) में मलका अकलीम खूबी (गुणों की खान) और दुरे-सदफ महबूबी (सीप के मोती के गुणों वाली प्रेमिका) दिलफरेब के दरे दौलत पर जा पहुँचा और पैगाम दिया कि दिलफिगार सुर्खरू व कामगार लौटा है और दरबारे गुहरबार (वैभवपूर्ण दरबार) में हाजिर होना चाहता है। दिलफरेब ने उसे फौरन हाजिर होने का हुक्म दिया। खुद हस्बे मामूल (सदा की भाँति) परद-ए-जरनिगार की पशे-पुश्त (सटकर) बैठी और बोली“दिलफिगार, अबकी तू बहुत दिनों के बाद वापस आया है। ला, दुनिया की सबसे बेशकीमत चीज कहाँ है?”

दिलफिगार ने पंज-हिनाई (मेंहदी-रची हथेलियों) का बोसा लेकर वह कतरा-ए-खून उस पर रख दिया और इस मुशर्रह (विस्तृत) कैफियत पुरजोश लहजे में कह सुनायी। वह खामोश भी न होने पाया था कि यकायक वह परद-ए-जरनिगार हट गया और दिलफिगार के रूबरू एक दरबारे हुस्न आरास्ता नजर आया जिसकी एक-एक नाजनीन रश्के जुलेखा थी। दिलफरेब बसद शाने रानाई (अत्यंत वैभव के साथ) के साथ मसनद जरींकार (सुनहरी) पर जलवा अफरोज (सुशोभित) थी। दिलफिगार यह तिलिस्मे हुस्न देखकर मुतहय्यर (अचंभित) हो गया और नक्शे-दीवार (चित्रलिखित-सा) की तरह सकते में आ गया कि दिलफरेब मसनद से उठी और कई कदम आगे बढ़कर उससे हम-आगोश (लिपट) हो गई। रक्कासने दिलनवाज (गाने-नाचनेवालियों) ने शादियाने (खुशी के गाने) शुरू किए, हाशिया नशीनाने दरबार (किनारे खड़े दरबारियों ने) दिलफिगार को नजरें गुजारी (भेंट दी) और माहो-खुर्शीद (चाँद-सूरज) को ब-इज्जत तमाम मसनद पर बिठा दिया। जब नगमए-दिलपसंद (लुभावना गीत) बंद हुआ तो दिलफरेब खड़ी हो गई और दस्त बस्ता (हाथ जोडकर) दिलफिगार से बोली- “ऐ आशिके जाँनिसार दिलफिगार! मेरी दुआएँ तीर बहदफ (निशाने पर) हो गईं और खुदा ने मेरी सुन ली और तुझे कामयाब व सुर्खरू किया। आज से तू मेरा आका है और मैं तेरी कनीज नाचीज (तुच्छ दासी)!”

यह कहकर उसने एक मुरस्सा (रत्नजटित) संदूकची मँगाया और उसमें से एक लौह (तख्ती) निकाला जिस पर आबे-जर (सुनहरे अक्षरों) से लिखा हुआ था-

‘वह आखिरी कतर-ए-खून जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया की सबसे बेशकीमत शय है।’

*प्राचीन काल में सादे कागज पर सीधी पंक्तियों में लिखने के लिए एक विशेष प्रकार की दफ्ती या मोटे कागज का इस्तेमाल किया जाता था, जिस पर पंक्तिबद्ध मोटी डोरियाँ लगा दी जाती थीं। जब सादे कागज को उस पर रखकर दबाया जाता था तो कागज पर डोरियों का उभार आ जाता था, जिससे सीधी पंक्ति में लिखने में मदद मिलती थी। प्रेमचंद यहाँ उन मोटी डोरियों की तुलना दिल फिगार की उभर आई हड्डियों से कर रहे हैं।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’