Hindi Immortal Story: धारा नगरी के राजा भोज अपने न्याय और बुद्धिमता के लिए प्रसिद्ध थे। पूजा उन्हें चाहती ही थी। राजा भोज की बेटी राजमती भी उन्हीं की तरह योग्य और गुणवान थी। वह अपूर्व सुंदरी थी। उसकी विद्वता से बड़े-बड़े विद्धानों के सिर झुक जाते थे। काव्य और शास्त्रों के जानने के अलावा राज-काज की भी उसे जानकारी थी। प्रजा भी लाड़ली राजकुमारी राजमती से बेहद स्नेह करती थी। सब सुख पास होने पर भी कुछ समय से राजा भोज एक चिंता में डूबे रहते थे। वह राजमती के लिए उपयुक्त वर की तलाश में थे। यों अनेक राजाओं ने विवाह के प्रस्ताव भेजे थे, पर भोज को उनमें से कोई पसंद नहीं था। वह राजमती के लिए ऐसा वर चाहते थे, जो राजमती की ही तरह योग्य, गुणवान और विलक्षण प्रतिभा वाला हो।
एक बार राजमती सखियों के साथ नदी स्नान कर लौट रही थी। नदी किनारे तीर्थ यात्रियों का एक दल दिखाई दिया। वे मधुर स्वर में कोई गीत गा रहे थे। राजमती सखियों के साथ एक ओर खड़ी गीत सुनने लगी। उन गीतों में अवंतीपुर के राजा बीसलदेव की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। कहा गया था, “हाथों में तलवार लिए बीसलदेव को युद्ध के मैदान में देख, शत्रु सेनाएँ पीपल के पत्ते की तरह काँप उठती हैं। वह राजा अपनी प्रजा को प्राणों से भी ज्यादा चाहता है।”
राजमती ने उसी क्षण मन ही मन निश्चय कर लिया, वह बीसलदेव से ही विवाह करेगी। लौटकर उसने पिता को अपना निश्चय बताया। सुनकर राजा भोज को प्रसन्नता हुई। उन्होंने अवंतीपुर के राजा बीसलदेव के पास संदेश भिजवा दिया।
बीसलदेव ने भी राजमती को बुद्धिमता की प्रशंसा सुन रखी थी। खुशी-खुशी यह प्रस्ताव मान लिया। लौटते समय राजा भोज के दूत के साथ अपने कुछ सैनिकों को भेजा। एक ब्राह्मण चांदी की थालों में पान, सुपारी, नारियल लेकर आया। साथ में भांति-भांति के उपहार भी।
राजा भोज ने बीसलदेव के सैनिकों और ब्राह्मण का भरपूर सम्मान किया। विवाह की तिथि निश्चित हो गई। कुछ समय बाद बीसलदेव बरात लेकर आया, तो धारा नगरी में आनंद उमड़ पड़ा। बीसलदेव और राजमती विवाह-बंधन में बँध गए।विवाह के बाद राजमती और बीसलदेव के दिन सुख से बीतने लगे। दोनों ही सर्वगुण संपन्न थे।
लेकिन राजमती केा एक बात अखरती थी। बीसलदेव के मन में युद्ध का नशा छाया हुआ था। वह आस-पड़ोस के राजाओं से छोटी-छोटी बातों पर युद्ध छेड़ देता था। उसके दरबार में बहुत से चारण-भाट थे। वे राजा की वीरता का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करते थे। बीसलदेव को अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता था। इसलिए चारण-भाटों में उसकी प्रशंसा करने की होड़ लगी रहती थी। कोई कहता, “बीसलदेव क्षत्रियों में सिरमौर हैं!” तो कोई कहता, “बीसलदेव से अधिक समृद्धिशाली राजा पृथ्वी पर कोई और नहीं है।”
रोज-रोज यही सब सुनते-सुनते बीसलदेव के मन में भी घमंड हो गया। सोचने लगा, “सचमुच मुझसे वीर और कोई राजा नहीं है।”
राजमती को यह बुरा लगता। एक दिन शाम के समय बीसलदेव और राजमती राज उद्यान में बैठे थे। तभी राजमती ने कहा, “चाँदनी कितनी सुखद लग रही है।” “जैसे पृथ्वी के ओर-छोर तक मेरा यश बिखरा हुआ है।” बीसलदेव ने बात काटते हुए कहा, “अब तो पृथ्वी पर मुझसे अधिक वीर राजा कोई और नहीं है।” सुनकर राजमती चुप हो गई। उसकी समझ में नहीं आया, वह क्या कहे। राजमती को चुप देख, बीसलदेव ने पूछा, “क्या तुम्हें मेरी बात का यकीन नहीं है?”
राजमती फिर भी चुप रही। इस बार बीसलदेव को बुरा लगा। उसने कहा, “यानी तुम्हारा खयाल है, मुझसे बड़ा राजा भी है।”
अब राजमती के लिए चुप रहना कठिन हो गया। उसने कहा, “आप बुरा न मानें। पृथ्वी वीरों से खाली नहीं है। आप वीर हैं, प्रतापी हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पृथ्वी पर और कोई वीर और प्रतापी नहीं है। आपसे बढ़कर वीर राजा भी जरूर होंगे।”
बीसलदेव ने अपने क्रोध पर काबू पाते हुए कहा, “तुम्हारे विचार से सबसे अधिक वीर और प्रतापी राजा कौन सा है?”
राजमती ने कहा, “पिता जी, अकसर दक्षिण में मल्लिपुर के राजा मुकंदपाल की वीरता की प्रशंसा करते है। उसके पास हीरे की खान है। हीरों और रंग-बिरंगे मोतियों से जड़ा महल है। उसके मुकुट और पोशाक में भी जवाहरात जड़े हैं। जिस तलवार से वह युद्ध लड़ता है, उसे दस लोग मिलकर भी नहीं उठा सकते। उसके हाथी, घोड़ों की विशाल सेना देखकर लगता है, जैसे कोई चलता-फिरता पहाड़ हो। मेरे विचार से, वहीं है पृथ्वी पर सबसे अधिक वीर और समृद्धिशाली राजा।” यह सुनकर बीसलदेव का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। भौंहें तन गईं। उसने तुरंत अपनी सेना को एकत्र होने का आदेश दिया। घोषणा की कि “कल तड़के ही दक्षिण दिशा में युद्ध के लिए कूच करना है। पूरी तैयारी कर ली जाए। पता नहीं, कब लौटना हो।”
जिसने सुना, वहीं हक्का-बक्कारहा गया, बीसलदेव को यह अचानक क्या सूझा? राजमती ने रोकने की बहुत कोशिश की, पर बीसलदेव टस से मस नहीं हुआ।
अगले दिन अपनी सेना ले, बीसलदेव युद्ध के लिए चल पड़ा। रास्ते में छोटे-मोटे जो भी राजा थे, बीसलदेव उन्हें पराजित करके आगे बढ़ता गया। बहुत से राजाओं ने तो बिना लड़े ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। उनकी सेनाएँ भी बीसलदेव की सेना में शामिल होती गईं।
कई दिनों के बाद बीसलदेव की सेना मल्लिपुर पहुँची। राज्य को चारों ओर से घेर लिया। लेकिन मल्लिपुर के राजा मुकुंदपाल के गुप्तचरों ने उसे पहले ही सूचना दे दी थी। सेना सतर्क थी। भीषण युद्ध हुआ। बीसलदेव की सेना एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी।
कई दिन बीत गए। महीना होने को आया। बीसलदेव के सैनिकों में निराशा फैल गई। कब तक वे इस अनजाने देश में तकलीफें झेलते रहें? उधर मुकुंदपाल की सेना बिल्कुल चट्टान की तरह खड़ी थी।
बीसलदेव के मन में तो घमंड की आग जल रही थी। उसने युद्ध जारी रखने का निर्णय किया। ललकारकर कहा, “युद्ध लड़ना कायरों के बस की बात नहीं। जो डर गए हों, लौट जाएँ। केवल बहादुर सैनिक मेरे साथ रहें।”
सुनकर सैनिकों में नया जोश भर गया। फिर घमासान युद्ध छिड़ गया। मगर कोई भी हार मानने को तैयार न था। एक सप्ताह के बाद बीसलदेव के सामने एक नई मुसीबत आ खड़ी हुई। उनकी सेना की रसद धीर-धीरे खत्म होने लगी थी। सैनिक आधा पेट खाकर लड़ते, पर अब उनमें पहले वाली बात नहीं रह गई थी। धीरे-धीरे उनका उत्साह मंद पड़ने लगा।
सैनिकों ने कुछ कहा नहीं। पर उनकी हालत देखकर बीसलदेव सब समझा गया। उसके मन में भी ग्लानि भर गई। मन ही मन वह सोचने लगा, “मुझे क्या हक है कि मैं अहंकार की खातिर इतने लोगों की जान ले लूँ?”
एक दिन शाम को युद्ध के बाद बीसलदेव इसी चिंता में बैठा था। तभी गुप्तचर ने आकर सूचना दी, “मल्लिपुर के राजा का विशेष दूत आपसे मिलना चाहता है।” “मल्लिपुर के राजा का दूत। किसलिए?” बीसलदेव चौका। फिर दूत को अंदर भेजने के लिए कहा।
दूत ने आकर कहा, “महाराज, हमारे राजा मुकुंदपाल आपसे एकांत में कुछ बात करना चाहते हैं। वे अपने साथ कोई हथियार नहीं लाएँगे, न कोई सैनिक। आप भी अपने हथियार दूर रख दें। अगर आपको यह मंजूर है, तो वह अभी आ जाएँगे।”
बीसलदेव सुनकर सोच-विचार में डूब गया, “कहीं यह शत्रु का कोई षड्यंत्र तो नहीं?” पर कुछ सोचकर उसने स्वीकृति दे दी।
निश्चित समय मुकुंदपाल आया। आते ही बीसलदेव से कहा, “मैं चाहता हूँ, कुछ समय के लिए युद्ध बंद कर दिया जाए।”
“क्यों?” बीसलदेव ने हैरानी से कहा।
“इसलिए कि हम युद्ध के नियमों से बँधे हैं। कमजोर, बीमार, भूखे और लाचार लोगों पर हम हथियार नहीं चलाते। मुझे पता है, आपके पास रसद खत्म हो चुकी है। भूखे रहकर आपके सैनिक कैसे लड़ेंगे? खाने-पीने के सामान, फल और सब्जियों से भरी कुछ गाड़ियाँ हम आपके लिए भिजवा रहे हैं। मेरी विनती है, आप उन्हें स्वीकार करें।”
बीसलदेव ने कुछ कहा नहीं। चुपचाप मुकुंदपाल के चेहरे की ओर देखता रहा। बीसलदेव को असमंजस में देख, मुकुंदपाल ने आगे कहा, “इसके बाद भी अगर आप चाहेंगे कि युद्ध जारी रहे, तो वह जारी रहेगा। वैसे युद्ध हमने शुरू नहीं किया, पर युद्ध में पीछे हटना भी हमने नहीं सीखा।”
सुनकर बीसलदेव की आँखें आँसुओं से भीग गईं। आज उसने जाना, सच्ची वीरता क्या होती है? उसका युद्ध मुकुंदपाल को उदारता के आगे झुक गया। घमंड चूर-चूर हो गया। तुरंत युद्ध बंद कर दिया गया। बीसलदेव और उसके सैनिकों को मल्लिपुर में विशेष आदर के साथ ठहराया गया। लौटते समय मुकुंदपाल ने बीसलदेव को अपनी मित्रता को निशानी के रूप में सोने के कबूतरों का एक जोड़ा भेंट किया।
बीसलदेव ने राजधानी में लौटकर सोने के कबूतरों का वह जोड़ा राजमती को भेंट किया। उनकी आँखों में खुशी की निर्मल चमक थी।
जब तक बीमलदेव जीवित रहे, कबूतरों का जोड़ा उनके शयनकक्ष में पलंग के सामने वाली खिड़की पर रखा रहा। कहते है कि बीमलदेव की मृत्यु होते ही वे कबूतर पंख फड़फड़ाते हुए, आसमान में उड़ गए।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
