Bhagwan Vishnu Katha: पूर्वकाल में जब ब्रह्माजी सृष्टि का विस्तार करना चाहते थे, उस समय उनके हृदय से महर्षि अत्रि का जन्म हुआ। ब्रह्माजी की आज्ञा से महर्षि अत्रि कठोर तपस्या करने वन में चले गए। वहां उन्होंने तीन हजार दिव्य वर्षों तक अनुत्तर नामक घोर तपस्या की। तपस्या के प्रभाव के कारण उनका तेज उनके नेत्रों से जल-रूप में गिरा और सभी दिशाओं को प्रकाशित करने लगा। उनका यह तेज सोम (चन्द्रमा) कहलाया। समस्त लोकों के कल्याण के लिए ब्रह्माजी ने सोमदेव को अपने रथ पर स्थापित कर लिया। ब्रह्माजी के रथ में सोमदेव को देखकर देवगण तथा ऋषि-मुनियों ने उनका स्तवन किया। इससे सोमदेव तेजोमय हो गए। उस रथ पर सुशोभित होकर सोमदेव ने इक्कीस बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा के समय उनका तेज पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरा, वहां-वहां समस्त प्रकार के अन्न आदि एवं औषधियां उत्पन्न हुई।
तत्पश्चात् सोमदेव ने दस हजार वर्षों तक कठोर तप कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें बीज, औषधि, जल तथा ब्राह्मणों का अधिापति देव बना दिया।
फिर ब्रह्माजी की आज्ञा से सोमदेव ने एक विशाल राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। इस शुभावसर पर देवताओं सहित समस्त ऋषि और महर्षियों को आमंत्रित किया गया। यज्ञ-समाप्ति पर उपस्थित सभाजन ने सोमदेव की विधिावत् पूजा-अर्चना की। दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस कन्याओं – अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, हस्त, आर्द्रा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उवारा फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, स्वाति, विशाखा, मूल, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, उवाराषाढ़ा, श्रवण, शतभिषा, धनिष्ठा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद तथा रेवती का विवाह सोमदेव के साथ कर दिया। इतना मान-सम्मान, ऐश्वर्य और वैभव पाकर सोमदेव के हृदय में अहंकार उत्पन्न हो गया। इसी अहंकारवश उन्होंने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझकर अन्य देवताओं का तिरस्कार करना आरम्भ कर दिया।
एक दिन सोमदेव की कुदृष्टि देवगुरू बृहस्पति की पत्नी तारा पर पड़ी। वह अनन्य सुंदरी थी। सोमदेव ऐश्वर्य-मद् में चूर थे, अतः उन्होंने बलपूर्वक तारा का हरण कर लिया। ऐसा अनीतिपूर्ण कार्य देख समस्त लोकों में उनकी निन्दा होने लगी। देवगण और देवर्षियों ने सोमदेव को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किंतु वे तारा को लौटाने के लिए सहमत न हुए। तब उनकी धृष्टता से क्रुद्ध होकर देवराज इन्द्र ने अन्य देवताओं के साथ उन पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों में घोर युद्ध हुआ, किंतु अंत में देवगण को पराजय का मुख देखना पड़ा।
देवताओं के पराजित होने पर देवराज इन्द्र ने भगवान् शिव से सहायता माँगी। उनकी प्रार्थना सुनकर महादेव नन्दी पर सवार होकर सोमदेव को दण्डित करने चल पड़े। इधर, जब सोमदेव को यह समाचार मिला तो वे भी युद्ध-भूमि में आ डटे।
जब ब्रह्माजी ने सोमदेव की यह धृष्टता देखी तो वे उसे समझाते हुए बोले – “वत्स ! यह तुम कसा अनर्थ करने जा रहे हो- भगवान् महादेव आदिपुरूष हैं। उन परब्रह्म को कदापि पराजित नहीं किया जा सकता। तुम्हारा यह दु:साहस तुम्हें काल का ग्रास बना देगा। इसलिए तुम शांतिपूर्वक तारा को लौटा कर उनसे क्षमा माँग लो। भगवान् शिव बड़े दयालु हैं। वे तुम्हें अवश्य क्षमा कर देंगे।”
उनके समझाने पर सोमदेव ने भगवान् शिव से क्षमा-याचना कर तारा को लौटा दिया। सोमदेव ने गुरू-पत्नी के साथ समागम करने का पाप किया था, इसलिए इस पाप कर्म के परिणामस्वरूप वे क्षय रोग से पीड़ित होकर कांतिहीन हो गए। इससे समस्त लोकों में हाहाकार मच गया। सृष्टि-चक्र में बाधा उत्पन्न हो गई। ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व, नाग – सभी भयभीत होकर त्राहि-त्राहि करने लगे।
इधर, क्षय रोग से पीड़ित सोम ने ब्रह्माजी का आह्वान किया और उनसे कष्ट से मुक्ति पाने का उपाय पूछा। सोमदेव की दुर्दशा देख ब्रह्माजी बोले – “वत्स ! यह तुम्हारे दुष्कर्मों का ही फल है। तुमने परस्त्री से दुष्कर्म का जो पाप किया है, उसी के कारण तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। अब तुम्हें केवल भगवान् शिव ही इस पाप से मुक्त कर सकते हैं। इसलिए तुम प्रभास नामक क्षेत्र में महामृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए भगवान् भोलेनाथ की पूजा-आराधना करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हारे सभी कष्टों का अंत हो जाएगा और तुम पुन: श्रीयुक्त हो जाओगे।”
ब्रह्माजी से पाप-मुक्ति का उपाय जानकर सोमदेव प्रभास क्षेत्र में पहुंचे। वहां उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की और उसकी विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करने के बाद भगवान् शिव के महामृत्युंजय मंत्र का जप आरम्भ कर दिया। यह जप छः मास तक चला। इन छः महीनों में सोमदेव ने महामृत्युंजय मंत्र का दस करोड़ बार जप किया।
अंत में सोमदेव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव वहां प्रकट हुए और बोले – “हे सोम ! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुआ। माँगो, तुम्हें क्या वर चाहिए- मैं तुम्हें मनोवांछित वर प्रदान करने का वचन देता हूँ।”
भगवान् महादेव को साक्षात् देखकर सोमदेव अपनी सारी पीड़ा भूल गए और बेल-पत्रों एवं गंगाजल से उनकी स्तुति करते हुए महामृत्युंजय मंत्र का उच्चारण करने लगे। तत्पश्चात् बोले – “दयानिधान ! मैंने देवगुरू बृहस्पति की पत्नी तारा के साथ जो पापकर्म किया है, उसी के दण्डस्वरुप मैं कांतिहीन होकर यह भयंकर कष्ट भोग रहा हूँ। आप मुझे इस कष्ट से मुक्त करने की कृपा करें।”
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शिव बोले -“हे सोमदेव ! प्राणी को अपने प्रत्येक कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए तुम्हें भी अपने पाप का फल भोगना होगा। किंतु तुमने कठोर तपस्या की है, अतः मैं तुम्हें यह वरदान देता हूं कि तुम्हारी कांति एक पक्ष में क्षीण होकर दूसरे पक्ष में पुन: बढ़ने लगेगी।”
इस प्रकार भगवान् शिव के वर से सोमदेव पुन: श्रीयुक्त होकर कांतिवान हो गए। सोम का यश बढ़ाने के लिए भगवान् शिव उन्हीं के नाम पर सोमेश्वर कहलाए तथा वह स्थान सोमेश्वर (सोमनाथ) तीर्थ के नाम से समस्त लोकों में प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है कि सोमेश्वर तीर्थ में भगवान् शिव की पूजा-अर्चना करने से क्षय, कोढ़ आदि भयंकर रोगों का नाश होता है।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
