आखिर बुधना निम्मा परी को अपने साथ घर ले आया। बोला, “अम्माँ, आज रात ये यहीं रुकेंगी। कहती हैं कि तुम्हारी अम्माँ के हाथ की मोटी-मोटी रोटियाँ खाकर देखूँगी, कैसी लगती हैं?”
सुनते ही बुढ़िया की पोपली हँसी दूर तक बिखर गई। बोली, “मैं ऐसी रोटियाँ थोड़े ही खिलाऊँगी इसे, जैसी हम खाते हैं। ऐसी मोटी-मोटी रोटियाँ इसके गले से थोड़े ही उतरेंगी। मैं जमींदार बाबू के घर से थोड़ा घी-बूरा और कुछ सामान ले आती हूँ। इसे अच्छा सा घी में तर चूरमा बना दूँगी। वह खाया जाएगा।”
इस पर निम्मा जो वहाँ खड़ी थी, बड़े कोमल स्वर में बोली, “नहीं अम्माँ जी, नहीं। आप तकलीफ मत कीजिए। मैं तो वहीं खाऊँगी, जो आपके घर में बनता है।”
“तो रुको, जरा पड़ोस के भुलुआ के घर से तनिक घी तो ले आने दो। घर में एक बूँद घी नहीं है।” बुधना की अम्माँ ने अचकचाकर कहा।
“अम्माँ, जैसा खाना आप रोज खाती हैं, मैं भी वैसा ही खाऊँगी। घी नहीं है, तो कोई बात नहीं। मेरे लिए आप जरा भी दिखावा मत कीजिए। नहीं तो मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगेगा।” निम्मा ने उन्हें रोकते हुए कहा।
तब तक बुधना झटपट नहाकर आ गया था। अम्माँ ने बाजरे की मोटी-मोटी रोटियाँ सेंकीं, उनमें थोड़ा नमक-मिर्च डाल दिया। साथ में प्याज और हरी मिर्च थी। गुड़ की एक डली और आम का अचार भी।
और हाँ, बुधना की अम्माँ का ढेर सारा प्यार भी तो था।
बुधना और निम्मा दोनों खाने बैठे तो बुधना तो गप-गप खाता चला गया। पर निम्मा का सी-सी करते बुरा हाल था। इतनी मिर्चें उसने पहले कभी खाई नहीं थीं। कोशिश कर रही थी, किसी को पता न चले, पर…
अम्माँ के कहने पर उसने गुड़ खाकर पानी पिया तो अच्छा लगा। फिर खुशी-खुशी उसने भी दो रोटियाँ खाईं। बीच-बीच में थोड़ा गुड़ भी खा लेती, ताकि तीखी कटार जैसी हरी मिर्चों की सी-सी से छुटकारा मिले।
खाने के बाद बोली, “वाह, बड़ा अच्छा लगा!…अम्माँ, ऐसा बढ़िया खाना तो मैंने कभी नहीं खाया। आपके खाने में बड़ा स्वाद है।”
“अच्छा, तुझे अच्छा लगा?” बुधना की माँ की आँखों से प्यार झर रहा था। लाड़ में आकर उसने निम्मा परी को पास खींचा और उसका सिर पुचकार दिया।
निम्मा परी तो निहाल हो गई।
आहा, धरती पर इतना प्यार है, इतना सच्चा प्यार…!
उसकी आँखें भीग गईं।
जीवन में पहली बार उसने जाना कि खुशी के भी आँसू होते हैं।
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