भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
जैसे-जैसे चुनाव समीप आते जा रहे थे। सरकारी व गैर सरकारी पार्टियों की जनसभाएं चक्रवृद्धि-ब्याज सी हो रही थीं। सीमा के शहर में भी आए दिन ऐसी जनसभाएं होती रहती थीं। परंतु राजनीति से दूर रहने के कारण वह ऐसी सभाओं में नहीं जाती थी। आज की जनसभा में उसे विशिष्ट अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था इसीलिए उसे आना पड़ा। सभा-स्थल के चारों ओर बेटियों से संबंधित नारे लिखे पोस्टर लगे थे। मंच से सत्ता पक्ष के कैबिनेट मंत्री अपनी ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना का गुणगान कर रहे थे।
सीमा की आँखों के सामने तो मंत्री जी भाषण दे रहे थे, पर उसके कानों में उसी की जिंदगी के तीस वर्ष कानाफुसी-सी कर रहे थे। सास ने उसके पति को अपने कमरे में बुलाकर पूछा था “क्या फैसला किया तुमने?” अपनी मां के इस सवाल को सुन वह बौखला गया। जब उसे कोई भी जवाब न सूझा तो वह सिर झुका कर धीरे से यही कह पाया “मैं कोशिश तो कर रहा हूँ माँ।” उसका जवाब सुनते ही गुस्से से लाल-पीली हो वह उत्तेजित स्वर में बोली “कोशिश करते-करते तझे कितने दिन हो गए? यूं ही दिन निकलते चले जा रहे हैं। मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं बहू को कोई दिक्कत ही ना हो जाए।” मां को यँ संवेदित-सी होती देख उसने पछा “जब तम्हें उसकी इतनी चिंता है। तो उसका गर्भपात करवाने पर क्यों अड़ी हुई हो तुम?” बेटे के सवाल ने उसे विचलित-सा कर दिया। उसके समीप जा धीरे से बोली “तुझे पता तो है अम्माजी के पास हम सब की एक-एक साँस गिरवीं है।”
माँ की बेचारगी को भांप उसने कहा “मां तुम्हें तो पता है पिछली बार के गर्भपात में सीमा की हालत कितनी खराब हो गई थी?” उसकी बात सुन आशंकित सी हो उसने चारों ओर नजरें घुमाई और बोली “बेटा इससे भी बदतर हालत झेल चुकी हूँ मैं। मुझे चार बार गर्भपात कराने पड़े थे। पांचवीं बार तेरे बारे में पता चला तो ही मेरी जान में जान आई थी।” अम्माजी को पूरे मोहल्ले में बेटे वाली कहलवाने का जो भूत चढ़ा है न जाने वो कब तक हम सबको यूँ ही, कहते-कहते उसका गला रुंध गया। मां को पानी पिला कर उसने पूछा “अम्मा जी को कोई समझाता क्यों नहीं?” उसके सवाल को सुन सूनी निगाहों से उसे देखते हुए उसने कहा “ताई, चाची और मैं उनके ऐसे ही जुल्मों को सहते आए हैं। कोई जरा-सा भी विरोध करें तो वह किसी भी हद को पार कर जाती हैं।” माँ की यह सुनते ही वह बोला “सीमा मेरी जिम्मेदारी है माँ। मैं सीमा के संग इस घर को ही छोड़कर कहीं और चला जाऊंगा।” उसकी बात सुनते ही वह भयभीत-सी हो थर-थर कांपने लगी। फिर कांपती हुई आवाज में ही उसने कहा “बेटा यह गलती कभी न करना। एक बार तेरे पापा ने भी यही करने का साहस दिखाया था। उस समय तू तो बहुत ही छोटा था। तुझे तो कुछ याद भी नहीं होगा। अम्माजी ने मुझ पर गोली ही चला दी थी। मुझे बचाने के चक्कर में तेरे पापा की जान ही चली गई थी बेटा।” यह कहकर उसने सिसकते हुए उसे अपने सीने से लगाते हुए कहा “तेरे पापा को तो मैं खो चुकी हूँ, पर तुझे खोना नहीं चाहती।”
सास के कमरे के बाहर एक कोने में खड़ी होकर चुपचाप उनकी बातें सुनने वाली सीमा ये अच्छी तरह से समझ गई थी कि अब उसे पति से किसी प्रकार की भी मदद नहीं मिल पाएगी। अपनी कोख की बच्ची को बचाने के लिए उसने उसी रात को घर छोड़ने का फैसला ले लिया। रात्रि में जब सब गहरी नींद में डूबे हुए थे तो वह अपना घरबार छोड़कर, दृढ़ संकल्प के संग अनजानी राह पर चल पडी। अपने ही मन से जिस राह को उसने चुना उस पर आने वाली हर बाधा का दृढ़ता पूर्वक सामना भी किया। जीवन में आने वाले हर संकट को झेलती हुई वह फौलादी बन गई। बेटी को उसने केवल बचाया ही नहीं पढ़ाया भी। धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग ला रही थी। अचार, पापड़ व बड़ियाँ बनाने का छोटा-सा उसका काम कारखाने में तब्दील हो गया। आसपास के इलाकों में भी उसका नाम फैलने लगा।
समाज की पुरुषवादी सोच के कुछ लोग एक अकेली औरत की इस तरक्की को पचा नहीं पा रहे थे। उसे देख उनकी जीभ लपलपाती तो थी परंतु उसके तेवर देख वे कर कुछ नहीं पाते थे। एक दिन मौका मिलते ही ऐसे ही कुछ लोगों ने उसकी बेटी को अपना निवाला ही बना लिया। मासूम सी बेटी के संग हुए इस हादसे ने उसे हिला कर रख दिया। वह यही सोचती रहती जिसे बचाने के लिए मैनें अपना घर छोड़ा उसी को ना बचा पाई। इसी सोच-विचार में वह टूटती ही चली गई। उसने सबसे मिलना-जुलना छोड दिया। बस कभी अपने को तो कभी समाज को दोष देती रहती। उसने अपने आपको घर में ही कैद कर लिया। दिन भर घर में यूं ही गुमसुम चुपचाप-सी बैठी रहती थी। एक दिन मन में ये विचार आया कि अपनी बेटी को तो मैं बचा न सकी, पर दूसरों की बेटियों को तो बचा सकती हूँ। बस यही सोचते हुए उसके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मानों नई जान ही आ गई। और वह जुट गई अपने इसी मिशन में। अपनी बेटी की याद में ही “फौलाद” संस्था की स्थापना की। तब से लेकर अब तक वह निरंतर इस संस्था के माध्यम से केवल अपने ही शहर की नहीं वरन आसपास की अनगिनत बेटियों के भविष्य को संवारने में जुटी है।
वह अपने ही विचारों में डूबी थी कि माइक पर अपना नाम सुनते ही चौंक गई। मंत्री जी कह रहे थे “हमारी सरकार तो कुछ ही वर्षों से यह योजना चला रही है परंतु सीमा जी इस क्षेत्र में जो बीस वर्षों से योगदान दे रही हैं, वह तारीफे काबिल है। बिना किसी सरकारी सहयोग के इस कार्य को करने के उनके जज्बे को मैं सलाम करता हूँ। मैं सीमा जी से यह अनुरोध भी करता हूँ कि कृप्या वो मंच पर आएँ।” यह सुनते ही तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वह स्टेज पर पहुंची। मंत्री जी ने उसके हाथ में एक चौक थमाते हुए कहा “आप इस सरकारी सहायता को स्वीकार कीजिएगा।” चौक पर बिना निगाह डाले ही वह उसे वापस करते हुए हाथ जोड़कर बोली, मंत्री जी मैं सरकार का “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” योजना को यूँ जोर-शोर से चलाने के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ। मैं यह भी बताना चाहती हूं कि एक मां अपनी बेटी को अपनी कोख में तो बचा सकती है पर समाज के भेड़ियों से नहीं। यदि आपकी सरकार हमारी कुछ मदद ही करना चाहती है तो मेरी यही प्रार्थना है कि वो ‘भेड़िये भगाओ’ योजना का आगाज करे। सीमा की बात मंत्रीजी के गले भले ही न उतरी हो पर सभा की तालियों ने उसका समर्थन जरूर किया।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
