aisee dhoom se diye jalao
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Hindi Immortal Story: वह एक सीधा-सरल बच्चा था और माँ उसे बहुत अधिक प्यार करती थी। एक बार वह बुरी तरह बीमार पड़ गया। सभी का कहना था कि अब इस बालक के बच रहने की कोई उम्मीद नहीं। लेकिन उस बच्चे की माँ ने रात-दिन एक करके उसकी सेवा की। और यों ममतामयी माँ ने अपने प्यार और जीवट से उसे मौत के मुँह से खींच लिया।

वह बच्चा इस बात को कभी नहीं भूल पाया। उसके मन में बस एक ही तड़प थी, “काश, मैं सारी दुनिया को वैसा ही प्यार दे सकूँ, जैसा मुझे अपनी माँ से मिला है।”

वह बच्चा थोड़ा और बड़ा हुआ तो उसे भारत के बारे में एक किताब पढ़ने को मिली। इस किताब का उसके मन पर इतना गहरा असर पड़ा कि वह मन ही मन भारत से प्रेम करने लगा। उसका मानो सपना ही यह था कि वह बड़ा होकर कभी भारत जाए। खुद अपनी आँखों से वहाँ के प्यारे लोगों और स्थानों को देखे तथा अपना पूरा जीवन वहीं बिताए। रात-दिन मानो वह यही सोचा करता था। एक दिन उसने माँ से कहा, “माँ-माँ, सुनो! कल से मुझे खाने के थोड़े चावल भी दिया करो।”

माँ ने हैरान होकर पूछा, “क्यों बेटा? क्या तुझे चावल बहुत अच्छे लगते हैं?” इस पर बच्चे ने बड़े भोलेपन से कहा, “माँ, आपको तो पता ही है न, मुझे बड़े होकर भारत जाना है और वहीं रहना है। मुझे पिता जी ने बताया है कि वहाँ सभी चावल खाते हैं। मैं अभी से इसका अभ्यास करूँगा। तभी तो वहाँ ठीक से रह पाऊँगा।”

सुनकर माँ ने निहाल होकर कहा, “अच्छा, तुझे भारत इतना ही अच्छा लगता है, तो बड़े होकर तू वहाँ जरूर जाना।”

और सचमुच एंड्रयूज बड़े होकर न सिर्फ भारत आए, बल्कि भारत के स्वाधीनता संग्राम से गहराई तक जुड़े। महात्मा गाँधी और गुरुदेव टैगोर से वे बहुत प्रभावित थे। अवसर आने पर वे अंग्रेजी सत्ता को इस तरह ललकारते थे कि लोग हैरान रह जाते थे।

जब अंग्रेजी शासन की ओर से यह कहा गया कि भारत की आजादी के लिए प्रयत्न करने वाले तो सिर्फ कुछ सिरफिरे लोग ही हैं, तो एंड्रयूज ने इसका बहुत करारा जवाब दिया था। इससे देश-विदेश में रहने वाले भारतीय उन्हें प्यार करने लगे थे। अंग्रेजी शासक एंड्रयूज के इन विचारों को पसंद नहीं करते थे, पर वे लाचार थे।

सी.एफ. एंड्रयूज सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ाते हुए, अपना बाकी समय दीन-दुखियों की सेवा में लगाते थे। सन् 1907 में जब लाला लाजपत राय को कैद से रिहा किया गया, तो सेंट स्टीफन कॉलेज के छात्र इस खुशी में कॉलेज में रोशनी करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए एंड्रयूज से आज्ञा माँगी तो एंड्रयूज का जवाब था, “ऐसी धूम से दीए जलाओ की दीवाली लगने लगे।”

एंड्र्यूज ने दीन-दुखी भारतीयों की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। इसलिए महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘दीनबंधु’ की उपाधि ने नवाजा था। आज हम उन्हें दीनबंधु एंड्रयूज के नाम से ही अधिक जानते हैं।

इंग्लैंड के न्यू कैसल नगर में जनमे एंड्रयूज के माता-पिता दोनों ही बहुत सीधे-सरल और धार्मिक विचारों के थे। इसका प्रभाव एंड्रयूज पर भी पड़ा। खासकर माँ से उन्हें जो प्रेम मिला, उसी ने उनके जीवन में ऐसी करुणा भर दी कि एंड्रयूज का पूरा जीवन ही बदल गया। वह सचमुच एक ऐसी करुणा मूर्ति बन गए, जिनसे लोगों को बहुत प्रेरणा मिलती थी।

दीनबंधु एंड्रयूज का स्वभाव ऐसा था कि उनके पास जो कुछ भी होता, उसे वह किसी गरीब, जरूतमंद आदमी को दे देते। उनकी जेब हमेशा खाली की खाली रहती थी। कभी उनका कोट गायब हो जाता, तो कभी और कपड़े। कभी-कभी तो वे इतनी तंगी की हालत में होते कि चिट्ठी का जवाब देने के लिए पैसे भी उनके पास नहीं होते थे। पर एंड्रयूज का मन विशाल था। इसीलिए सभी उनसे बहुत प्रेम करते थे।

भारत के स्वाधीनता संग्राम में इस उदार हृदय अंग्रेज के योगदान ने भारतीय जनता के उत्साह और मनोबल को इतना बढ़ा दिया था कि लोग कहते, “अब तो अच्छे और भले अंग्रेज भी हमारा साथ दे रहे हैं। इसी से पता चलता है कि अंग्रेजी शासन अन्याय पर टिका है और उसे उखाड़ फेंकना जरूरी है।”

ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)