वह भी शोर से कुनमुनाई अवश्य थी पर फिर करवट बदलकर सो गई थी। ‘बेचारी इतनी थक जाती है कि कोई भी शोर इसकी नींद में व्यवधान नहीं डाल पाता। रसोई में घुसे रहने की लत तो वह मायके से ही लेकर आई है। तभी तो पहले उनके लिए, फिर बेटे बेटी के लिए, फिर बहू और अब नाती-पोते की फरमाइश पर चक्करघिन्नी की तरह नाचते रहना उसका प्रिय शगल बन गया है। पर इधर जब से विभू की गर्मी की छुट्टियां हुई हैं उसने मम्मी, दादी सहित सभी की नाक में दम कर रखा है। आज उसकी फरमाइश पर ही वसुंधरा ने ढेर सारी कुल्फी जमाई है। बाबूजी ने एक बार फिर अपनी सोच पर लगाम लगाकर उपन्यास पर ध्यान केंद्रित करना चाहा पर तेज़ वॉल्यूम पर चलता टीवी बार-बार उनका ध्यान भंग कर रहा था। ‘बहू भी क्या करे? बच्चा जब जि़द पर ही उतर आए तो… अब इतनी गर्मी में उसे बाहर खेलने भी तो नहीं निकलने दे सकती। हे भगवान क्या होगा इस जनरेशन का!’
धूप का प्रकोप कुछ कम हुआ तो बाबूजी भी शाम की सैर के लिए बाहर निकल आए। बच्चों का हुजूम मैदान में खेलने में व्यस्त था। महिलाएं समूह में खड़ी बतिया रही थीं। उनके पास से गुजरते बाबूजी ने सुना सबकी परेशानी और चिंता का विषय बच्चे ही थे। वाकई आजकल के बच्चे गैजेट्स के कितने गुलाम हो गए हैं। टीवी से उठाओ तो लैपटॉप पर बैठ जाएंगे, वहां से उठाओ तो मोबाइल पकड़ लेंगे। विभू के तो नहीं पर उसके कई दोस्तों की आंखों पर इतनी कम उम्र में ही चश्मे चढ़ गए हैं।
सैर से लौटे बाबूजी को पलंग के नीचे कुछ तलाशते देख वसुंधराजी समझ गईं कि वे अपनी किताबों के खोखे ढूंढ रहे हैं। जिन्हें कुछ दिनों पहले ही उन्होंने बाबूजी से नज़रें बचाकर ताक पर रखवा दिया था। अब आपकी नजरें भी कमजोर हो गई हैं, फिर क्यों हर वक्त किताबों में आंखें गड़ाए रहते हैं?’
‘तुम्हारी भी उम्र हो गई है। घुटन-कमर दर्द करते रहते हैं। फिर भी हर वक्त रसोई में घुसकर कुछ न कुछ बनाने में लगी रहती हो?’ ‘उस समय मुझे दर्द नहीं होता। फिर मुझे वो सब अच्छा…’ कहते- कहते वसुंधराजी रुक गईं। पति की बात का मंतव्य वे भली-भांति समझ गई थीं। मुस्कुराते हुए उन्होंने खोखे नीचे उतरवा लिए थे। किताबें सामने आते ही बाबूजी का चेहरा एकदम खिल उठा था। हर उम्र और हर स्वाद की पुस्तक इस खजाने में मौजूद थी।
स्कूल की किताबों के अलावा भी वे ढेर सारी पुस्तकें खरीदते, पढ़ते थे। बेटे रमन में भी उन्होंने यही प्रवृति डाली। उसके लिए खरीदी डायमंड कॉमिक्स, इंद्रजाल कॉमिक्स, अमर चित्र कथाएं आदि उन्होंने अभी तक संभालकर रख रखी थी। बाबूजी देर तक किताबों की मिट्टी झाड़कर मेज पर सजाते रहे और उनसे जुड़ी यादों को सहेजते रहे।
अगली सुबह चाय अखबार आदि खत्म कर वे बेचैनी से विभू के उठने की प्रतीक्षा करने लगे। छुट्टियां थीं इसलिए विभू आज भी देर से ही उठा। फिर अपना दूध नाश्ता लेकर टीवी के सामने जम गया। बाबूजी ने उसे अपने पास बुलाया तो बड़े अनमनेपन से वह नाश्ता खत्म कर उनके पास गया। बाबूजी ने बड़े उत्साह से उसे कॉमिक्स दिखाने आरंभ किए। विभू ने एक सरसरी निगाह उन पर डाली, ‘अभी मैं कार्टून देख रहा हंू, ये बाद में देखूंगा’ और जाकर फिर से टीवी के आगे जम गया। बाबूजी भी इतनी आसानी से हार मानने वालों में नहीं थे। शाम होते ही उन्होंने फिर विभू को तलब किया। ‘दादी ने ढेर सारी कुल्फी जमाई है। लौटते में अपने दोस्तों को भी ले आना।’ खुशी से उछलता कूदता विभू खेलने चला गया। सैर से लौटकर बाबूजी सुस्ता ही रहे थे कि बच्चों का हुजूम उमड़ पड़ा। सभी दादीजी के हाथ की कुल्फी खाने की रट लगाए हुए थे। ‘मिलेगी मिलेगी, अभी सबको कुल्फी मिलेगी। पहले मैं तुम सबको एक खज़ाना दिखाता हूं।’ बाबूजी ने सबको पुस्तकों से सजी विशालकाय मेज़ के इर्द-गिर्द खड़ा कर दिया। बच्चे कौतूहल से पुस्तकें उलटने-पलटने लगे। कोई तो अपनी पसंद की पुस्तक छांटकर पढ़ने भी लग गया। सारे ही बच्चे पुस्तकों पर टूट पड़े। बाबूजी सब पर नज़र रखे हुए थे।
इशिता, तुम कब से मज़े ले लेकर पढ़ रही हो। हमें भी तो बताओ ऐसा क्या खजाना मिल गया तुम्हें?’
‘मुझे साबू के कारनामे पढ़कर बहुत हंसी आ रही है दादाजी। ऐसा लग रहा है मेरे सामने ही सब कुछ हो रहा है। इशिता ने पास खड़े करण और माही को कॉमिक में से दिखाया तो वे भी पेट पकड़कर हंसने लगे। बाबूजी अंदर गए और एक कुल्फी थामे लौट आए। ‘यह इशिता के लिए।’
इसके बाद तो बच्चों में पुस्तकें पढ़ने और आगे बढ़ बढ़कर दादाजी को बताने की होड़ सी लग गई। विभू कौतुक से मुंह खोले सबको ताक रहा था।
‘दादाजी दादाजी, मैं यह पिंकी वाली कॉमिक घर ले जाऊं? कल पढ़कर लौटा दूंगी।’
पिंकी ने हवा में कॉमिक लहराते हुए पूछा तो और बच्चे भी अपने हाथों की पुस्तक घर ले जाने के लिए मचल उठे। अपना खज़ाना लुटते देख विभू चिल्ला उठा, ‘नहीं नहीं, अभी मुझे सब पढ़नी हैं।’
‘विभू बेटे तुम एक बार में एक ही किताब पढ़ सकते हो न? तुम क्या हर कोई एक बार में एक ही किताब पढ़ सकता है। तो कल शाम इसी वक्त सब यहीं अपनी-अपनी किताब पढ़कर ले आना। नई ले जाना या आपस में अदल-बदल लेना।’ ‘हां, यह ठीक रहेगा।’ बच्चों ने बाबूजी की हां में हां मिलाई। तब तक सबके लिए कुल्फी आ गई थी। कुल्फी खाकर और मनपसंद किताब लेकर बच्चे खुशी-खुशी घर लौटने लगे। तभी बाबूजी का एलान सुनकर ठिठक गए।
‘कल आपकी दादीजी एक और सरप्राइज आइटम बनाने वाली हैं।
लेकिन वो उसी को मिलेगा, जो मुझे बताएगा कि उसने क्या-क्या पढ़ा और उसे उसमें क्या अच्छा लगा? क्या समझ आया और क्या नहीं आया?’
खुशी से चिल्लाते बच्चों की भीड़ छंटी तो अवाक खड़ी वसुंधराजी बाबूजी से पूछ बैठी, ‘मैं भला कल क्या सरप्राइज आइटम बनाने वाली हू?’
‘अब यह मुझे क्या पता? तुम्हारा विभाग तुम संभालो।’ रहस्यात्मक अंदाज में मुस्कराते, कंधे उचकाते बाबूजी बची पुस्तकें व्यवस्थित करने लगे। अगले दिन बाबूजी के सैर से लौटने से पूर्व ही बच्चे जमा होने आरंभ हो गए थे। सबने अपनी कल वाली किताब मेज पर रख दी थी और अब दूसरी ढूंढने में मशगूल थे। ‘दादाजी, इसमें महाराणाप्रताप वाली चित्रकथा नहीं मिल रही है। कल तो थी।’ अनुजा बोली।
‘यहीं होगी बेटी। कल कौन ले गया था?’
‘दादाजी कल तो जलज ले गया था। मैंने देखा था।’ आर्यन बोला। जलज बगलें झांकने लगा तो बाबूजी ने उसे प्यार से अपने पास बुलाया। ‘किताब गुम हो गई या लाना भूल गए?’ ‘म…मेरी गलती नहीं है। मिनी ने खींची तो फट गई। अभी-अभी तो स्कूल जाना शुरू किया है उसने। खुद तो पढ़ पाती नहीं तो बस हर वक्त हर किताब दिखाने, सुनाने की जिद किए रहती है।’
‘यह तो अच्छी बात है। जब तुम छोटे थे तब तुम्हें भी तो पापा मम्मी रंगीन पुस्तकें दिखाते सुनाते थे। अब तुम पढ़ना सीख गए हो तो घर में छोटे भाई बहन या कोई बुजुर्ग जो पढ़ना लिखना न सीख पाया हो उसकी मदद कर सकते हो। जब तुम छोटे थे तो घर के बड़े-बुजुर्ग तुम्हें राजा- रानी की कहानियां सुनाते थे न? अब तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम अपने जमाने की कहानियां उन्हें पढ़कर सुनाते हुए उनका मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन करो। याद रखो, पुस्तकें अमूल्य धरोहर हैं। इनकी हिफाजत में भी कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए।’
‘मैं ध्यान रखूंगा दादाजी।’ जलज शॄमदा था।
‘यह हमारी अपनी लाइब्रेरी है। ये सबकी पुस्तकें हैं और इनकी हिफाज़त सबकी जि़म्मेदारी है। जलज, यह डायरी रखो और कौन बच्चा कौन-सी पुस्तक पढ़ने ले जा रहा है इसमें एंटर करो। पिंकी, तुम कल सबसे इसी हिसाब से पुस्तकें एकत्रित करोगी। और विभू, तुम कल सबकी एंट्री करना। इस तरह बारी-बारी से सबका नंबर आएगा।’
बच्चे अपनी-अपनी किताबों और सौंपी गई जिम्मेदारी की चर्चा में व्यस्त हो गए। तभी दादीजी सरप्राइज आइटम ‘भेलपूरी’ लेकर प्रकट हुई। बच्चों में खुशी की लहर दौड़ गई।
अब तो रोज दादीजी के हाथ के नए-नए व्यंजन खाना और पुस्तकें ले जाना बच्चों का प्रिय शगल बन गया था। पांचवें दिन बच्चे आए तो बाबूजी ने हाथ खड़े कर दिए। ‘आज आपकी दादीजी की तबियत ठीक नहीं है। इसलिए वे कुछ बना नहीं पाईं। आप लोग जा सकते हैं।’
‘कोई बात नहीं दादाजी।’ बच्चे पुस्तकों की ओर लपक लिए तो बाबूजी की रहस्यात्मक मुस्कान गहरा उठी।
बच्चों का बढ़ता पुस्तक प्रेम जल्दी ही कॉलोनी में चर्चा का विषय बन गया था। विभा के यहां आयोजित किटी पार्टी में भी यही चर्चा छिड़ गई।
‘माला, तुम्हारे बाबूजी ने यह बच्चों में कैसी पढ़ने की लत लगा दी है? पूरा दिन किताबों में घुसे रहते हैं।’ रचना ने कहा।
‘तो अच्छा ही तो है। घर में कितनी शांति है। अब न तो टीवी की कानफोडू आवाज गूंजती है और न ही कोई तोड़फोड़। बच्चों की नॉलेज और बढ़ रही है।’ दूसरा स्वर उभरा।
‘हुंह… नॉलेज का क्या है? एक क्लिक करो। नेट पर सब मिल जाएगा। उसके लिए किताबों के ढेर में सर खपाने की कहां जरूरत है?’ तीसरा स्वर उभरा।
‘तुम इसे अच्छी बात समझ रही हो? इससे बच्चा एक्सप्लोर करना नहीं सीख पाता। जब बच्चा चार किताबें पढ़कर या अभ्यास करके उत्तर खोजता है तो उसके दिमाग में वो बात ज़्यादा समय तक रहती है और उसे चार बातें भी ज्यादा जानने को मिलती हैं। सोचकर देखो, जब हम तल्लीनता से पढ़ रहे होते हैं तो हमारे दिमाग में सारे घटनाक्रम की फिल्म चलनी आरंभ हो जाती है। साथ ही हमारी कल्पनाशक्ति, विश्लेषण क्षमता, तर्क क्षमता कई गुना बढ़ जाती है।
लगातार टीवी, कंप्यूटर पर बैठने से ही तो बच्चों के चश्मे चढ़ रहे हैं। और नई-नई बीमारियां हो रही हैं। उससे तो यह पढ़ने की लत सौ गुना बेहतर है।’ निर्मला स्कूल की प्रिंसीपल दर्शनाजी ने गंभीरता से समझाया तो सब महिलाओं की गर्दन सहमति में हिलने लगी।
उन सबकी बातें सुनकर माला मन ही मन मुस्करा रही थी। सच, वह भी आजकल विभू को लेकर कितनी निश्ंिचत हो गई है। स्वयं उसे सास बहू के नौटंकीनुमा सीरियल्स से ज़्यादा किताबें लुभाने लगी हैं। ऑफिस में भी तो सब उसके बढ़ते सामान्य ज्ञान से प्रभावित नजर आने लगे हैं। वह घर लौटकर बाबूजी को इस सबके लिए अवश्य धन्यवाद देगी।
‘हमें बाबूजी को इस नेक कार्य के लिए अपने वार्षिक समारोह में सम्मानित करना चाहिए।’ दर्शनाजी ने प्रस्ताव रखा तो सबने करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया।
शाम को बाबूजी सैर पर निकले तो कॉलोनी के कुछ पुरुष-महिलाओं ने उन्हें घेर लिया। ‘बाबूजी, बच्चों में पढ़ने की लत लगाकर आपने बहुत जिम्मेदारी वाला काम किया है… अपनी छोटी उम्र में हम तो खूब किताबें पढ़ते थे… नौकरी गृहस्थी में सब छूट गया… पर अब घर में बच्चों को किताबों में तल्लीन देख मन फिर से पढ़ने के लिए मचलने लगा है… बाबूजी, आपके पास बड़ों के लिए किताबें… मेरा मतलब प्रेमचंद, शरतचंद्र… और शिवानी का कलेक्शन है क्या?’ बाबूजी के ओठों पर फिर रहस्यात्मक मुस्कान आ गई। ‘सब मिल जाएगा। आकर देख लेना।’ और तेजी से आगे बढ़ गए।