बाहर स्ट्रीट लाइट्स के जलने से सड़क पर उजाला फैल गया था। मोहल्ले के मकान रौशनी में नहा उठे थे। दिन पूरी तरह ढल चुका था। कमरे में बैठे रामेन्द्र ने भी अपनी बात कह ली थी। प्रतिक्रिया के इंतजार में उसने सामने बैठी भाभी के चेहरे पर अपनी निगाहें टिका दीं।
भाभी एक कुलीन परिवार की महिला। मध्यम कद की, लुंजपुंज मांसल देह। अच्छे कहे जा सकने योग्य नाक नक्श, रंग गौरा। बालों में मेंहदी लगी हुई। वस्त्राभूषण संपन्नता के परिचायक। उम्र लगभग साठ बासठ। सूनी मांग वैधन्यता की द्योतक। सामने बैठा रामेन्द्र लगभग तिरसठ चैसठ वर्षीय व्यक्ति। आकर्षक व्यक्तित्व। बदन पर शर्ट-पेंट पहने हुए।
रामेन्द्र की बात समाप्त होने के बाद पसरी खामोशी को भाभी ने तोड़ते हुए कहा
‘‘सीमा को कभी मेरे घर मत लाना।”
इतना कह कर भाभी कुर्सी से उठ खड़ी हुई। उनका उठना इस बात का द्योतक था कि उनकी तरफ से सारी बातें ना केवल सुन ली गईं बल्कि उन्होंने अपनी तरफ से इंसाफ भी कर दिया।
यह बात सही थी कि रामेन्द्र ने भाभी से सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा। मगर सांकेतिक रूप से ही सही, वह सब कुछ परोक्ष हो गया, जो सीमा और उसके बीच घटित हुआ था। जो घटना था, वह अप्रत्याशित नहीं था, क्योंकि मुलाकात के पूर्व ही इस सब के लिए उनमें परस्पर सहमति बन गई थी।
उस प्रसंग का खुलासा हो उसके पहले यह जान लेना भी जरूरी होगा कि रामेन्द्र और सीमा कौन थे और उनमें क्या संबंध थे? रामेन्द्र विधुर था। पत्नी कोई दस साल पहले शांत हो चुकी थी। बेटे-बहू एकल परिवार की मानसिकता के चलते अलग रहते थे। लिहाजा विवशतावश रामेन्द्र को जबरिया थोपी गई तन्हा जिंदगी अभिशाप की तरह झेलनी पड़ रही थी। बहू-बेटे के अलग होने के पहले रामेन्द्र ने कभी सोचा भी ना था कि उसे कभी पुनर्विवाह के बारे में सोचना भी पड़ेगा। परिस्थितियां इंसान से सब कुछ करवा देती हैं।
सीमा भी पचपन-सत्तावन वर्षीय परित्यकत महिला थी। पति से पृथक हुए उसे भी लगभग दस वर्ष हो चुके थे। उसका बेटा भी पति के पास ही था। पिछले दस वर्षों से उसका ना तो पति से ना पुत्र से कोई संपर्क था।
आर्थिक रूप से अपनी गुजर बसर कर लेने वाले रामेन्द्र और सीमा में एक बात समान थी। और वह थी दिन सामने आ रही वृद्धावस्था और अकेलेपन से उपजी असुरक्षा की भावना। योग-संयोग से किसी माध्यम से सीमा और रामेन्द्र में पहले फोन पर चर्चा हुई। पहले महज औपचारिक फिर धीरे-धीरे अनौपचारिक। एक बार किसी कार्यक्रम में दस-पांच मिनट के लिए पहली बार प्रत्यक्ष मुलाकात भी हुई ।इस पहली मुलाकात ने टेलीफोनिक बातचीत को साकार कर दिया। दोनों के मनोमस्तिष्क में हल्की फुल्की और भारी भरकम मतलब सारी बात हुई उसमें एक और मुलाकात की इच्छा दोनों ही तरफ से स्वयमेव व्यक्त होती गई। इस भावी मुलाकात की जब ये कल्पना करते तो एक बार नहीं, कई बार इतने व्यग्र इतने उद्धिगन हो जाते कि इन्हें पता ही नहीं पड़ता कि इनसे कितनी बार वर्जनाएं टूट जातीं। मानसिक धरातल पर सीमा और रामेन्द्र इतने घुल-मिल गए थे कि इन्हें वार्तालाप के दौरान आभास ही नहीं होता था कि ये विधिवत पति-पत्नी नहीं है। उनके प्रौढ़ मस्तिष्क में जाने कब वे युवा प्रेमी -प्रमिका जन्म ले लेते थे, जो सारे बंधनों को बार-बार ध्वस्त करना चाहते थे।
सीमा को मेरे घर मत लाना ‘‘ भाभी का यह फैसला रामेन्द्र को अधूरा इंसाफ लग रहा था। माना कि सीमा ने लक्ष्मण रेखाएं तोड़ी थी मगर क्या सीमा ने ही तोड़ी थी? वह भी तो शामिल था उन लक्ष्मण रेखाओं के ध्वस्त होने में। फिर सवाल यह उठता है कि ऐसा कौन सा अंतिम अध्याय उन्होंने उन्मुक्त यौनाचार का पढ़ डाला था।
वे प्रेमी -प्रेमिका थे। उनमें वादे थे, इच्छाएं थीं, बरसों से एकत्रित वाष्प थी। हां, वे मिले थे। एक -दूसरे से लिपटे थे। एक दूसरे को चूमा था। एक -दूसरे के गले लिपटे थे। अगर यह चरित्र हीनता है तो इस चरित्रहीनता के एक पहलू पर सीमा थी और दूसरे पर रामेन्द्र। भाभी अगर यह कहती कि मेरे घर ना तुम आना और न सीमा को लाना, मगर भाभी ने सिर्फ सीमा को दोषी ठहरा कर फैसला सुनाया।
उसे लगा कि यह अधूरा इंसाफ है। मन में सवाल उठा कि क्या एक औरत दूसरी औरत के साथ कभी इंसाफ नहीं करेगी?
‘‘चलूं भाभी,” रामेन्द्र ने कहा और चप्पलें पहन कर भाभी के घर से बाहर आ गया। रुकने की ना कोई गुंजाइश थी, ना कोई औचित्य।
