मनुष्य जो खाता-पीता है, वह उसके पेट में और फिर वहां से आंतों में जाकर पचता है। पाचक शक्ति (जठराग्नि) से जो अन्न पच जाता है, वह अमृत के समान होता है। वही अन्न अपच रह जाए तो सिरके के समान अम्ल होकर विषाक्त हो जाता है। इसी को ‘फूड पॉइजनिंग’ या अन्नविष कहते हैं। अपच आहार से जो अन्नरस तैयार होता है, वह दूषित होता है। उस पर ‘कोथजनक जीवाणुओं’ का प्रभाव होने से विभिन्न अम्ल द्रव्य तैयार होते हैं- जैसे सिरके के समान अम्ल, तक्राम्ल (लेक्टिक एसिड), नवनीताम्ल, पायरूविक अम्ल आदि। विष से जैसे विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं, वैसे ही यह दूषित अन्नरस अम्ल होकर शरीर में अनेक विकार उत्पन्न करने वाला होता है, अत: इसे अन्न विष कहा गया है। 

गलत खान-पान से होती फूड पॉइजनिंग

गलत खान-पान भी फूड पॉइजनिंग का एक कारण है। अगर पुरुष की पाचक अग्नि (जठराग्नि) तथा रसाग्नि दुर्बल हो तो इस आहार को वे पचा नहीं पातीं। इस अपच आहार से जो अन्नरस बनता है, वह अम्ल हो कर विषाक्त हो जाता है। समअग्नि होते हुए भी यदि कोई अधिक भोजन करता है अथवा ऐसा ही अन्य अहित आचरण करता है तो अन्न का अच्छी तरह पाचन नहीं होता और उस अपच आहार से दूषित अन्नरस तैयार होता है। इसे ‘आम’ कहते हैं। अम्लीभाव को प्राप्त दूषित अन्नरस (आम) का विष से एक समानता यह है कि जैसे विष सूक्ष्म होता है और शरीर के सूक्ष्म स्रोतों और कोषों में प्रवेश होने की उसमें शक्ति होती है, वैसे यह अम्ल अन्नरस भी सूक्ष्मतर स्रोतों में प्रवेश कर संपूर्ण शरीर में पहुंच जाता है और रोगों को उत्पन्न करने में समर्थ होता है। यह अपच अन्नरस द्रव्य, गुरु, अनेक रंगों वाला, चिकना, कफयुक्त, जीवाणुयुक्त, दुर्गंधवाला तथा निरंतर शूल उत्पन्न करने वाला होता है तथा विष सदृश असरकारक होता है।

विष बनते खाद्य पदार्थ

वैसे, ‘विष’ किसी विशिष्ट द्रव्य का नाम नहीं है। जिस द्रव्य या आहार में रूखा, गरम, तेज, तरल, शीघ्र पका हुआ, बासी फूलनेवाला, निर्मल, छोटा तथा अपाचक, ये दस गुण अधिक मात्रा में होते हैं उसी का नाम विष है। ये गुण ओजस (शारीरिक सामर्थ्य) के विरुद्ध होने के कारण दुख व कष्ट पैदा करते हैं, अत: इन गुणों से युक्त द्रव्य विष कहे जाते हैं। कुछ खाद्य पदार्थ जो विष नहीं होते, आपसी संयोजन से विष बन जाते हैं। जैसे दूध और मछली अथवा समान मात्रा में मधु तथा घी आदि।

विकृत करता अन्नविष

अन्नविष अपने रूखेपन से वायु को और गर्मी से रक्त एवं पित्त को विकृत कर देता है। कड़वाहट से बुद्धि में अज्ञान उत्पन्न करता है और हृदय आदि मार्मिक स्थलों में प्रवेश कर उनको शिथिल कर देता है। दूषित अन्नरस अपनी तरलता के कारण रसवाहिनियों द्वारा शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म भागों में प्रवेश कर वहां विकार उत्पन्न करता है। यह अपने आशु (तेज) के कारण अपना असर शीघ्र दिखाता है। अन्नविष निर्मल और फूलने वाली प्रकृति के कारण वायु दोषों, धातुओं तथा मलों को विकृत कर अबाध रूप से संपूर्ण शरीर में फैल जाता है।

अन्न तारे, अन्न मारे

प्रश्न उठता है कि आहार हमारे शरीर का पोषण करता है, हमें जीवन प्रदान करता है, मारक अर्थात् विष तुल्य कैसे हो जाता है? क्योंकि जो भी वस्तुएं हैं, अगर हम उनका सदुपयोग करते हैं, तो उनसे हमें लाभ होता है और उन्हीं का जब दुरूपयोग करने लगते हें तो वही हमें हानि पहुंचाती हैं। कहा है, ‘अन्न तारे, अन्न मारे’। यदि अन्न का उचित रूप में, मर्यादित रूप में सेवन किया जाये तो वह हमे स्वस्थ रखेगा, अन्यथा हानि पहुंचाएगा।

आहार संबंधी भूलें

मनुष्य प्राय: आहार संबंधी भूलें करने के परिणामस्वरूप फूड पॉइजनिंग का शिकार होता है। इन भूलों का कारण कुछ तो उनका अज्ञान होता है और कुछ जानकर भी अपनी जीभ के स्वाद में पड़कर गलत चीजें खाते हैं, जिससे अन्नविष से ग्रसित होकर कष्ट उठाते हैं।

जब मनुष्य अधिक भोजन करे, भूख रहने पर भी भोजन न करे, विषम आहारों का सेवन करे, अधपका भोजन करता हो, अथवा गरिष्ठ, ठंडा, अति रूखा भोजन, सड़ा हुआ बासी आहार का सेवन करे तो ऐसे आहार को पाचक अग्नि पचा नहीं पाती। इससे जो अन्नरस तैयार होता है, वह अम्लीभाव को प्राप्त हो कर विष बन जाता है।

विषरूप में बदलता भोजन

कभी-कभी व्यक्ति जब किसी रोग से दुर्बल या कमजोर हो जाता है, वह जिस देश में रहता है वहां की जलवायु अनुकूल न हो, किसी एक या अनेक ऋतुओं में विषमता हो, वह मल-मूत्र के वेगों को रोकता हो तो ऐसी स्थिति में अग्नि की मंदता पैदा हो जाती है। अग्नि की इस मंदता के कारण हल्का भोजन भी पच नहीं पाता। किया हुआ आहार आमाशय में बिन पाक हुए स्थित हो जाता है। ऐसा अन्नपान सिरके के सदृश अम्ल हो कर विषरूप में बदल जाता है। साथ ही यह विष के समान सूक्ष्मता को प्राप्त हो जाता है।

आधुनिक मत के अनुसार अपक्व अन्नपान का सिरके की अम्लता में परिणत होने का यह अर्थ है कि जिस प्रकार अम्लीभूत दही में जो भी दूध मिलाया जाएगा, वह अमलत्व को ही प्राप्त होगा। इसी प्रकार मंद हुई अग्नि का यह स्वभाव होता है कि जो भी अन्नपान लिया जाएगा, वह उसे पचा नहीं पाती और वह अपक्व या आम रह कर अम्ल हो जाता है। इस अम्लत्व की प्राप्ति को ‘अम्लपाक’ या ‘विदाह’ भी कहा जाता है, क्योंकि यह रूपान्तर बाहर संघान (फर्मेण्टेशन) होकर सिरका बनने की क्रिया के सदृश होता है। 

फूड पॉइजनिंग के कारण कुछ रोगियों में सिरका एक सेन्द्रिय अम्ल (ऑर्गेनिक एसिड) होता है। इस विकृति में एसिटिक एसिड (सिरका) के अतिरिक्त तक्राम्ल (लेक्टिक एसिड) आदि दूसरे भी सेन्द्रिय अम्ल बनते हैं। सेन्द्रिय अम्लों की वृद्धि के साथ-साथ पित्त की भी वृद्धि होती है। इसके कारण उदर, हृदय कण्ठ में जलन, खट्टी डकार, उल्टी, बेहोशी आदि लक्षण प्रकट होते हैं। कुछ रोगियों में इनऑर्गेनिक एसिड, लवणाम्ल (हायड्रोक्लोरिक एसिड) की वृद्धि होती है, अत: चिकित्सा आरंभ करने के पूर्व लक्षणों या गेस्ट्रिक एनेलिसिस द्वारा यह पता लगा लेना चाहिए कि किस अम्ल वर्ग की वृद्धि हुई है। 

फूड पॉइजनिंग से उत्पन्न विकार व लक्षण

फूड पॉइजनिंग से शरीर में निम्न विकार व लक्षण उत्पन्न होते हैं- अपक्व अन्नपान का मलद्वार की दिशा में गतिशील न होना, अपान तथा उद्गार के रूप में वायु की प्रवृत्ति न होना, शरीर में अकड़न व दर्द, मूर्च्छा, भ्रम, तृष्णा, ज्वर, उल्टी, अजीर्ण, आंख के आगे अंधेरा छाना आदि लक्षण पाए जाते हैं।  ये भयंकर विकार प्रकुपित हुए अन्य शारीरिक दोषों के साथ मिलकर नाना प्रकार से अन्य दूसरे रोगों को उत्पन्न करते हैं। जैसे पित्त के संपर्क से ये दाह, तृष्णा, मुखरोग, अम्लपित्त तथा अन्य पित्त विकारों को जन्म देते हैं, कफ से संयुक्त हो कर यक्ष्मा, पीनस, प्रमेह तथा अन्य कफ विकारों की तथा वायु से मिलकर अनेक वात विकारों की उत्पत्ति करते हैं। मलों के साथ मिलकर यह अन्न विष उनके तथा उनके आशयों के रोगों को उत्पन्न करता है जैसे, मूत्र में (मूत्रयंत्र में) स्थित हो यह अन्नविष मूत्ररोगों को, मल में स्थित हो उदर रोगों को तथा रसादि धातुओं में स्थान बनाता हुआ धातुगत रोगों को उत्पन्न करता है।

आहार के समान कोई दवा नहीं

अन्नविष का प्रभाव यदि आमाशय पर रहता है तो वायु एवं पित्त के विकार उत्पन्न होते हैं और केश एवं रोम उखड़ कर गिरने लगते हैं। रस, रक्त आदि धातुओं पर अन्नविष के प्रभाव से विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं।  फूड पॉइजनिंग आहार-विहार के अमर्यादित ढंग से सेवन करने के कारण होता है, अत: उचित आहार और उसकी मात्रा भी उचित होना अनिवार्य है। इससे फूड पॉइजनिंग से बचा जा सकता है। कहा गया है कि आहार के समान कोई दवा नहीं है। केवल उचित आहार से ही मनुष्य निरोग रह सकता है, क्योंकि आहार महान औषध है। इस पर ध्यान न देने से मनुष्य रोगों का शिकार हो जाता है।

जल पिलाना हितकर

यदि शरीर को कुछ समय के लिए, रोज की खुराक पचाने के काम से छुट्टी दे दी जाये तो बिना किसी ऊपरी मदद के वह शारीरिक दोषों को अपने आप निकाल देगा। इससे पाचक अग्नि के बल में भी वृद्धि होगी, जिससे जो भी अन्न सेवन करेंगे, उसके पचने में सुगमता होगी। 

अन्नविष मूर्च्छा, भ्रम, उल्टी आदि विकृत चेष्टाओं से शरीर एवं मन को बेचैनी से पीड़ित कर सकता है, अत: ऐसी स्थिति में शीतल द्रव्यों का सेवन करना चाहिए। ऌफूड पॉइजनिंग से पीड़ित व्यक्ति को थोड़े-थोड़े समय के बाद थोड़ा-थोड़ा शीतल जल पीने को देते रहना चाहिए। इससे विदग्ध (अपक्व) अन्न का परिपाक हो जाता है। जल के शीत गुण से उष्ण गुण पित्त का शमन होता है और जल के द्रव गुण के कारण पित्त की अधोद्वार की दिशा में गति शुद्धि हो जाती है, जिससे अन्नविष से उत्पन्न विकारों में आराम मिलता है। अन्नविष विकारों में भोजन के लिए शालि चावल, साठी चावल, कोदों तथा कंगुनी के चावल हितकर हैं।