“अगर सब कुछ मन मुताबिक ना मिले, तो भी मौके को हाथ से जाने मत दीजिए… क्योंकि रास्ते वहीं से खुलते हैं।” ये शब्द किसी सामान्य व्यक्ति के नहीं, बल्कि भारत के सबसे संवेदनशील और प्रयोगधर्मी फिल्म निर्देशक मणिरत्नम के हैं, जिन्होंने हाल ही में अपनी आने वाली फिल्म ‘ठग लाइफ’ का टीज़र लॉन्च किया है। टीज़र भले ही कुछ सेकंड्स का हो, लेकिन इसके पीछे की सोच, मेहनत और मणिरत्नम का जीवन दर्शन सालों की तपस्या का निचोड़ है। यह फिल्म कई मायनों में खास होने वाली है, न सिर्फ इसलिए कि इसमें एक बड़ी स्टारकास्ट है, बल्कि इसलिए भी कि इसमें मणिरत्नम फिर से समाज, सिस्टम और किरदारों की गहराइयों में उतरते दिखेंगे। ​​​​​​​टीज़र में जो ग्रे टोन है, जो रहस्यमय संवाद हैं, वो बताता है कि ये फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं होगी, बल्कि एक अनुभव होगी।

मणिरत्नम की कहानी उन लाखों लोगों की उम्मीद जगाती है, जो किसी “सेफ करियर” में फंसे होते हैं लेकिन दिल कहीं और होता है। एक इंटरव्यू में वे खुद बताते हैं कि वे मैनेजमेंट कंसल्टेंट थे, एक बेहद प्रतिष्ठित प्रोफेशन। पर दिल वहां नहीं था। रोमांच, कल्पना और रचनात्मकता उन्हें फिल्म की ओर खींच लाए। वे कहते हैं “मैनेजमेंट पढ़ने से मुझे लॉजिकल अप्रोच मिली। पटकथाएं लिखते समय यही समझ काम आती थी।” यानी जो पढ़ाई उन्होंने की, वो व्यर्थ नहीं गई। उन्होंने उस ज्ञान को भी फिल्मी दुनिया में गूंथ दिया।

मणिरत्नम याद करते हैं कि उनके बचपन में फिल्मों को करियर मानने का तो सवाल ही नहीं उठता था। बच्चे क्या देखेंगे, ये तक पैरेंट्स तय करते थे। लेकिन दिल की रुचि चुपचाप अपना रास्ता बना रही थी। जब रिश्तेदार या घर के बड़े फिल्म की बातें करते, तो मणि दोस्तों की बातें छोड़ उनकी बातें सुनने लगते। यह एक ‘कच्चा सपना’ था जो धीरे-धीरे आकार ले रहा था।

अपने सपने को सच करने के लिए मणिरत्नम ने किसी भी तरह का ‘इगो’ नहीं रखा। उनकी पहली फिल्म हिंदी, तमिल या मलयालम नहीं बल्कि कन्नड़ भाषा में थी। वे साफ कहते हैं, “अगर ये फिल्म चीनी में भी होती तो मैं बना लेता।” उनके लिए ‘मौका’ मायने रखता था, ‘सुविधा’ नहीं। वे मानते हैं कि जो भी काम मिले, उसे तुरंत पकड़ लीजिए। चाहे परिणाम कुछ भी हो, अनुभव आपका ही हो जाता है और वो आपको अगली बार बेहतर बनाता है।

आज मणिरत्नम एक प्रतिष्ठित निर्देशक हैं। ‘रोजा’, ‘बॉम्बे’, ‘दलपत’, ‘गुरु’, ‘ओके कनमनी’ और ‘पोन्नियिन सेलवन’ जैसी फिल्मों के बाद भी जब वो कहते हैं, “मैं अपनी कोई भी फिल्म अब नहीं देख सकता, क्योंकि उनमें ढेरों कमियां दिखती हैं,” तो इसी से समझ आ जाता है कि महानता की असली निशानी क्या होती है ‘संतुष्ट न रहना, हर दिन बेहतर होने की भूख रखना’।

मणिरत्नम इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि पढ़ाई कैसी भी हो, उसका असर आपकी सोच पर ज़रूर पड़ता है। पढ़ाई ने उन्हें यह सिखाया कि हर कहानी के पीछे एक लॉजिक होता है, हर इमोशन के नीचे एक स्ट्रक्चर होता है। यही लॉजिकल अप्रोच उन्हें भीड़ से अलग बनाती है। उनकी फिल्मों की परतें सिर्फ दृश्य नहीं, जीवन के गहरे संकेत होती हैं। असली ठग वही होता है, जो किस्मत से ज़्यादा मेहनत पर भरोसा करता है!

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...