Bharat Andolan : 21वीं सदी के सबसे बड़े संकट की यदि बात करें तो वह है पर्यावरण पर आया सकंट। अभी भी प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जा रहा है। पानी की बर्बादी, जगंलों को काटना, बची-कुची नदियों को गंदा करना आदि कार्य अभी भी हो रहे हैं। हमारा देश भी इस समस्या से ग्रसित है। ऐसा नहीं है किसी ने कोशिश नहीं की कोशिशें खूब हुई हैं, आंदोलन समय-समय पर विश्व भर में होते रहे हैं। कभी नदी तो कभी जगंलों को बचाने के लिए लोगों ने अपने स्तर पर प्राचीन समय से ही बहुत प्रयास किए हैं। जब भी कुछ लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए प्रकृति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है तब-तब लोगों ने उसका खुलकर विरोध किया है, और यह विरोध बाद में जनआंदोलन के रूप में परिवर्तित हुए। भारत में ऐसे ही हुए प्राकृतिक आंदोलनों को आइए जानते हैं।

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बिश्नोई आंदोलन

पर्यावरण आंदोलन की हम जैसे ही बात करते हैं तो पहला नाम लोग चिपको आंदोलन का लेते हैं। पर चिपको आंदोलन से कई सौ वर्ष पूर्व वृक्षों को बचाने के लिए एक आंदोलन और हुआ था जिसमें बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने वृक्षों को बचाने के लिए अपने प्राण त्यागे थे। हुआ यूं था कि सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने एक विशाल महल बनाने की योजना बनाई। जब महल के लिए लकड़ी की बात आई तो यह सुझाव दिया गया कि राजस्थान में वृक्षों का अकाल है लेकिन केवल एक ही जगह है जहां बहुत मोटे-मोटे पेड़ हैं वह है बिश्नोई समाज का खिजड़ी गांव। महाराजा ने पेड़ काटने का हुक्म दे दिया। वे लोग गए और कुल्हाड़ियों से सीधे खेजड़ी के मोटे-मोटे पेड़ काटने लगे। उसी समय एक महिला अमृता देवी ने जब यह देखा कि कुछ लोग पेड़ काट रहे है तो उन्होंने उनको रोकना चाहा पर वह लोग नहीं रूके। ऐसा होता देख अमृता देवी पेड़ से लिपट गई वृक्षों की रक्षा हेतु उन्होंने अपना बलिदान दे दिया। यह खबर सारे क्षेत्र में फैल गई और देखते की देखते 363 बिश्नोईयों ने इस स्थान पर अपना बलिदान दे दिया। वृक्ष-प्रेमी रिचर्ड बरवे द्वारा सम्पूर्ण विश्व में इस घटना को पर्यावरण संरक्षण का उदाहरण देते हुए प्रचारित किया गया।

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चिपको आंदोलन इस आंदोलन की शुरुआत उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले में साल 1973 में शुरू हुई है। किसान राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों के हाथों से कट रहे पेड़ों पर लोग अपना जब भी कुछ लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए प्रकृति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है तब-तब लोगों ने उसका खुलकर विरोध किया है, और यह विरोध बाद में जनआंदोलन के रूप में परिवर्तित हुए हैं। – अनुज श्रीवास्तव आंदोलन भारत में हुए पर्यावरण आंदोलन गुस्सा जाहिर कर रहे थे और उनपर अपना दावा ठोंक रहे थे। इस आंदोलन की शुरुआत चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी की ओर से की गई थी और भारत के प्रसिद्ध सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे इसका नेतृत्व किया। इस आंदोलन में पेड़ों को काटने से बचाने के लिए गांव के लोग पेड़ से चिपक जाते थे, इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था। उस समय केंद्र की राजनीति में भी पर्यावरण एक एजेंडा बन गया था। इस आन्दोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया। यह चिपको आन्दोलन की देन थी की सन् 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया जिसमें हिमालयी क्षेत्रों के वनों को काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में चिपको में आन्दोलन भारत के पूर्व, मध्य और दक्षिण के राज्यों में भी फैला।

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अप्पिको आंदोलन

अप्पिकोआंदोलन को दक्षिण भारत का चिपको आंदोलन भी कहते हैं। अप्पिको का अर्थ है चिपक जाना या लिपट जाना। लगातार खत्म हो रही वन संपदा, अंधाधुंध पेड़ों की कटाई और विलुप्त हो रहे जंगली जीव-जन्तु और जंगल खत्म होने से पर्यावरण पर पड़े रहे बुरे प्रभाव को देखते हुए दक्षिण भारत के लोगों ने पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए यह अभियान चलाया था। अप्पिको आंदोलन की शुरुआत 1983 में कर्नाटक के सिलकानी गांव से हुई थी। पेड़ों को कटने से बचाने के लिए सिलकानी और आस-पास के गांव वाले पास के जंगलों तक करीब 5 मील की यात्रा करके आए और चिपको आंदोलन की तरह ही इस आंदोलन में पेड़ों को गले से लगा लिया। और इस तरह यहां के लोगों ने राज्य के वन विभाग की तरफ से कट रहे पेड़ों पर रोक लगवाई और यहां के जंगलों के हरे पेड़ काटे जाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए चलाया गया अप्पिको आंदोलन, एक ऐसा आंदोलन बना जिसने बहुत कम समय में ही अभूतपूर्व सफलता हासिल की। आपको बता दें कि साल 1990 में कर्नाटक सरकार ने पेड़ों की कटाई को रोकने की मांग को मान लिया था।

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नर्मदा बचाओ आंदोलन

नर्मदा नदी पर बन रहे अनेक बांधों के विरुद्ध साल 1985 में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ शुरू किया गया था। इस आंदोलन में आदिवासियों, किसानों, पर्यावरणविदों ने बांधों के निर्माण के फैसले के विरुद्ध आंदोलन किया। बाद में इस आंदोलन में कई हस्तियां जुड़ती गईं और अपना विरोध जताने के लिए भूख हड़ताल का प्रयोग भी किया। नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 1979 में न्यायधिकरण सर्वसम्मति पर पहुंचा तथा नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया जिसमें नर्मदा नदी तथा उसकी 4134 नदियों पर दो विशाल बांधों – गुजरात में सरदार सरोवर बांध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल था। 1995 के आरंभ में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सरकार बांध के बाकी कार्यों को तब तक रोक दे जब तक विस्थापित हो चुके लोगों के पुर्नवास का प्रबंध नहीं हो जाता। 18 अक्टूबर, 2000 को सर्वोच्च न्यायालय ने बांध के कार्य को फिर से शुरू करने तथा इसकी ऊंचाई 90 मीटर तक बढ़ाने की मंजूरी दे दी। लेकिन इसके लिए कदम-कदम पर यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरण को खतरा तो नहीं है और लोगों को बसाने का कार्य ठीक तरीके से चल रहा है, साथ ही न्यायपालिका ने विस्थापित लोगों के पुर्नवास के लिए नए दिशा-निर्देश दिए जिनके अनुसार नए स्थान पर पुर्नवासित लोगों के लिए 500 व्यक्तियों पर एक प्राईमरी स्कूल, एक पंचायत घर, एक चिकित्सालय, पानी तथा बिजली की व्यवस्था तथा एक धार्मिक स्थल अवश्य होना चाहिए। अप्रैल 2006 में नर्मदा बचाओ आंदोलन में एक बार फिर से उग्रता आई, मेधा पाटकर जो पहले से ही विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास की मांग को लकर संघर्ष कर रहीं थीं, अनशन पर बैठ गयीं। 17 अप्रैल 2006 को नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने संबंधित राज्य सरकारों को चेतावनी दी कि यदि विस्थापितों का उचित पुनर्वास नहीं हुआ तो बांध का और आगे निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।

साइलेंट वैली आंदोलन

यह आंदोलन केरल के वन वर्षा साइलेंट वैली को बचाने के लिए चलाया गया था। केरल के प्रभावी नेता के करुणाकरण और सांसद वीएस विजयराघव वहां एक पनबिजली परियोजना के तहत संयंत्र लगाने के पक्ष में थे। इसी जंगल को बचाने के लिए जन आंदोलन चलाया गया, जिसे ‘सेव साइलेंट वैली आंदोलन’ कहा गया। जून 2019 १७ साधना पथ केरल की शांत घाटी 89 वर्ग किलामीटर क्षेत्र में है जो अपनी घनी जैव-विविधता के लिए मशहूर है। 1980 में यहां कुंतीपूंझ नदी पर एक परियोजना के अंतर्गत 200 मेगावाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया। केरल सरकार इस परियोजना के लिए बहुत इच्छुक थी लेकिन इस परियोजना के विरोध में वैज्ञानिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा क्षेत्रीय लोगों के स्वर गूंजने लगे। इनका मानना था कि इससे इस क्षेत्र के कई विशेष फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। इसके अलावा यह पश्चिमी घाट की कई सदियों पुरानी संतुलित पारिस्थिति को भारी हानि पहुंचा सकता है। अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस विवाद में मध्यस्था की और राज्य सरकार को इस परियोजना को स्थगित करना पड़ा जो घाटी के पारिस्थिति के संतुलन को बनाये रखने में मील का पत्थर साबित हुआ। आखिर 15 नवंबर, 1984 को साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया। देश के पर्यावरण इतिहास में यह ऐतिहासिक क्षण था। इससे पहले पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर वृक्षारोपण तक सीमित समझा जाता था, लेकिन इस आंदोलन ने देश को एक नई दृष्टि दी।

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टिहरी बांध विरोधी आंदोलन

टिहरी बांध उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी और भिलंगना नदी पर बनने वाला एशिया का सबसे बड़ा तथा विश्व का पांचवा सर्वाधिक ऊंचा (अनुमानित ऊंचाई 260.5 मी0) बांध है। इसके निर्माण की स्वीकृति 1972 में योजना आयोग ने दी थी। ऐसा अनुमान था कि टिहरी जलविद्युत परिसर के पूर्ण होने पर यहां से प्रतिवर्ष 620 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन होगा जो दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों के लोगों को बिजली तथा पेयजल की सुविधा उपलब्ध कराएगा। इस परियोजना का सुंदरलाल बहुगुणा तथा अनेक पर्यावरणविदों ने कई आधारों पर विरोध किया है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज द्वारा टिहरी बांध के मूल्याकंन की रिपोर्ट के अनुसार यह बांध टिहरी कस्बे और उसके आसपास के 23 गांवों को पूर्ण रूप से तथा 72 अन्य गांव को आंशिक रूप से जलमग्न कर देगा, जिससे 85600 लोग विस्थापित हो जाएंगे।

जंगल बचाओ आंदोलन

इस आंदोलन की शुरुआत 1980 में बिहार से हुई थी। बाद में यह आंदोलन झारखंड और उड़ीसा तक फैल गया। 1980 में सरकार ने बिहार के जंगलों को मूल्यवान सागौन के पेड़ों के जंगल में बदलने की योजना पेश की, और इसी योजना के विरुद्ध बिहार के सभी आदिवासी कबीले एकजुट हुए और उन्होंने अपने जंगलों को बचाने के लिए एक आन्दोलन चलाया। इसे ‘जंगल बचाओ आंदोलन’ का नाम दिया गया था।

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