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2 अक्टूबर, 2021 को भारत अहिंसा के पुजारी गांधी जी की 152वीं जयंती मनाएगा। उनके सम्मान में विश्व अहिंसा दिवस मनाता है। उन्होंने भारत के भविष्य के लिए क्या सोचा था, जानें उनकी पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ के अंश से।

भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएं रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उसे भारत में मिल सकता है। भारत दुनिया के उन इने-गिने देशों में से है, जिन्होंने अपनी अधिकांश पुरानी संस्थाओं को, कायम रखा है। साथ ही वह अभी तक अन्ध-विश्वास और भूल-भ्रान्तियों की इस काई को दूर करने की और इस तरह अपना शुद्ध रूप प्रकट करने की अपनी सहज क्षमता भी प्रकट करता है।

उसके लाखों करोड़ों निवासियों के सामने जो आर्थिक कठिनाइयां खड़ी हैं, उन्हें सुलझा सकने की उनकी योग्यता में मेरा विश्वास इतना उज्ज्वल कभी नहीं रहा जितना आज है। मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है। भारत ने आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया है, उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। भारत को फौलाद के हथियारों की उतनी आवश्यकता नहीं है, वह हथियारों से लड़ा है और आज भी वह उन्हीं हथियारों से लड़ सकता है। दूसरे देश पशुबल के पुजारी रहे हैं। यूरोप में अभी जो भयंकर युद्ध रहा है, वह इस सत्य का एक प्रभावशाली उदाहरण है।

भारत अपने आत्मबल से सबको जीत सकता है। यदि भारत तलवार की नीति अपनाए, तो वह क्षणिक सी विजय पा सकता है। लेकिन तब भारत मेरे गर्व का विषय नहीं रहेगा। मैं भारत की भक्ति करता हूं, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है वह सब उसी का दिया हुआ है। मेरा पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक सन्देश है।

उसे यूरोप का अन्धानुकरण नहीं करना है। भारत के द्वारा तलवार का स्वीकार मेरी कसौटी की घड़ी होगी। मैं आशा करता हूं कि उस कसौटी पर मैं खरा उतरूंगा। मेरा धर्म भौगोलिक सीमाओं से मर्यादित नहीं है। यदि उसमें मेरा जीवंत विश्वास है तो वह मेरे भारत-प्रेम का भी अतिक्रमण कर जायेगा। मेरा जीवन अहिंसा-धर्म के पालन द्वारा भारत की सेवा के लिए समर्पित है।

यदि भारत ने हिंसा को अपना धर्म स्वीकार कर लिया और यदि उस समय मैं जीवित रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूंगा। तब वह मेरे मन में गर्व की भावना उत्पन्न नहीं करेगा। मेरा देशप्रेम मेरे धर्म द्वारा नियंत्रण है। मैं भारत से उसी तरह बंधा हुआ हूं, जिस तरह कोई बालक अपनी मां की छाती से चिपटा रहता है, क्योंकि मैं महसूस करता हूं कि वह मुझे मेरा आवश्यक आध्यात्मिक पोषण देता है। उसके वातावरण से मुझे अपनी उच्चतम आकांक्षाओं की पुकार का उत्तर मिलता है।

मैं भारत को स्वतंत्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूं, क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह दुनिया के भले के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहुति दे सके। भारत की स्वतंत्रता से शांति और युद्ध के बारे में दुनिया की दृष्टि में जड़मूल से क्रांति हो जायेगी। उसकी मौजूदा लाचारी और कमजोरी का सारी दुनिया पर बुरा असर पड़ता है।

मैं यह मानने जितना नम्र तो हूं ही कि पश्चिम के पास बहुत कुछ ऐसा है, जिसे हम उससे ले सकते हैं, पचा सकते हैं और लाभान्वित हो सकते हैं। ज्ञान किसी एक देश या जाति के एकाधिकार की वस्तु नहीं है। पाश्चात्य सभ्यता का मेरा विरोध असल में उस विचारहीन और विवेकहीन नकल का विरोध है, जो यह मानकर की जाती है कि एशिया-निवासी तो पश्चिम से आने वाली हरेक चीज की नकल करने जितनी ही योग्यता रखते हैं।

….मैं दृढ़तापूर्वक विश्वास करता हूं कि यदि भारत ने दु:ख और तपस्या की आग में गुजरने जितना धीरज दिखाया और अपनी सभ्यता पर- जो अपूर्ण होते हुए भी अभी तक काल के प्रभाव को झेल सकी है-किसी भी दिशा से कोई अनुचित आक्रमण न होने दिया, तो वह दुनिया की शांति और ठोस प्रगति में स्थायी योगदान कर सकती है।

भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्त-रंजित मार्ग पर नहीं है जिस पर चलते-चलते पश्चिम अब खुद थक गया है, उसका भविष्य तो सरल धार्मिक जीवन द्वारा प्राप्त शांति के अहिंसक रास्ते पर चलने में ही है। भारत के सामने इस समय अपनी आत्मा को खोने का खतरा उपस्थित है। और यह संभव नहीं है कि अपनी आत्मा को खोकर भी वह जीवित रह सके। इसलिए आलसी की तरह उसे लाचारी प्रकट करते हुए ऐसा नहीं कहना चाहिए कि ”पश्चिम की इस बाढ़ से मैं बच नहीं सकता।” अपनी और दुनिया की भलाई के लिए उस बाढ़ को रोकने योग्य शक्तिशाली तो उसे बनना ही होगा।

यूरोपीय सभ्यता बेशक यूरोप के निवासियों के लिए अनुकूल है, लेकिन यदि हमने उसकी नकल करने की कोशिश की, तो भारत के लिए उसका अर्थ अपना नाश कर लेना होगा। इसका मतलब यह नहीं कि उसमें जो कुछ और हम पचा सकें ऐसा हो, उसे हम लें नहीं या पचाए नहीं।

इसी तरह उसका यह मतलब भी नहीं है कि उस सभ्यता में जो दोष घुस गए हैं, उन्हें यूरोप के लोगों को दूर नहीं करना पड़ेगा। शारीरिक सुख-सुविधाओं की सतत खोज और उनकी संख्या में तेजी से हो रही वृद्धि ऐसा ही एक दोष है, और मैं साहसपूर्वक यह घोषणा करता हूं कि जिन सुख-सुविधाओं के वे गुलाम बनते जा रहे हैं उनके बोझ से यदि उन्हें कुचल नहीं जाना है, तो यूरोपीय लोगों को अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा।

संभव है मेरा यह निष्कर्ष गलत हो, लेकिन यह मैं निश्चयपूर्वक जानता हूं कि भारत के लिए इस सुनहरे मायामृग के पीछे दौड़ने का अर्थ आत्मनाश के सिवा और कुछ न होगा। हमें अपने हृदयों पर एक पाश्चात्य तत्त्वनाश का यह बोधवाक्य अंकित कर लेना चाहिए-‘सादा जीवन उच्च चिन्तन’। आज तो यह निश्चित है कि हमारे लाखों-करोड़ों लोगों के लिए सुख सुविधाओं वाला जीवन संभव नहीं है और हम मु_ी भर लोग, जो सामान्य जनता के लिए चिन्तन करने का दावा करते हैं, सुख-सुविधाओं वाले उच्च जीवन की निरर्थक खोज में उच्च चिन्तन को खोने का जोखिम उठा रहे हैं।

मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूंगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलम्बन से मुक्त कर दे। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब-से-गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है-जिनके निर्माण में उनकी आवाज का महत्त्व है।

मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें ऊंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।

उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को होंगे। चूंकि शेष सारी दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध शान्ति का होगा, यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे, इसलिए हमारी सेना छोटी-से-छोटी होगी। ऐसे सब हितों का जिनका करोड़ों मूक लोगों से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जायेगा, फिर वे हित देशी हों या विदेशी। अपने लिए तो मैं यह कह सकता हूं कि मैं देशी और विदेशी के फर्क से नफरत करता हूं। यह है मेरे सपनों का भारत..

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