Indian Guru: सवाल जितना अजीब है उतना ही महत्त्वपूर्ण भी। महत्त्वपूर्ण इसलिए क्योंकि शिष्य का सब कुछ गुरु से बंधा होता है, वह गुरु पर ही आश्रित होता है। यदि गुरु नकली होगा या भटका हुआ होगा तो उसके शिष्य भी उसकी ही तरह नकली और भटके हुए होंगे। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि गुरु वास्तव में असली गुरु हो क्योंकि यदि जीवन में असली गुरु मिल जाए तो ही इस भवसागर से तरा जा सकता है अन्यथा डूबना निश्चित है। इसलिए जीवन में सही गुरु का मिलना एक महत्त्वपूर्ण घटना है।
और यह सवाल अजीब इसलिए है क्योंकि कोई कैसे पहचानेगा कि उसका गुरु कैसा है। असली है या नकली? शिष्य में इतनी क्षमता नहीं होती कि वह गुरु की परख करे। यदि शिष्य ही गुरु को सही या गलत की कसौटी पर परखने लगे तो शिष्य-शिष्य कहां रहा? गुरु का भी गुरु नहीं हो गया? यह बात सुनते ही अजीब लगती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि पहले गुरु करो, फिर उसे पहचानो, यदि वह नहीं भाता या हमारी कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसे छोड़ो और नया गुरु तलाशो।
इसी संदर्भ में एक कहावत है- ‘गुरु करो जान के, पानी पियो छान के’। प्रश्न उठता है कि कैसे जानें गुरु को? आजकल के माहौल में तो यह समस्या और भी जटिल हो गई है। गली-गली में, शहर-शहर में साधु-संत, गुरु-महात्मा आदि पैदा हो गए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि सभी पहुंचे हुए हैं। सभी के पास लाखों शिष्यों एवं संन्यासियों का जमघट लगा रहता है, कम कोई भी नहीं मालूम पड़ता। ऐसे में क्या करें, किसको बनाएं गुरु? कैसे पहचानें कि हमारा गुरु असली है या दूसरे का गुरु असली है? क्या किसी गुरु को उसकी प्रसिद्धि, मान्यता, उसकी संस्था, आश्रम एवं वैभव आदि के पैमाने से आंका जा सकता है? शायद नहीं, लेकिन गुरु-शिष्य के महत्त्वपूर्ण संबंध को ध्यान में रखते हुए इस उलझन से उबरना भी जरूरी है।

असली गुरु कैसा होता है? हमें कैसे पता चलता है कि हम सही गुरु के सान्निध्य में हैं? हमें कैसे पता चले कि जो हम सीख रहे हैं वह ठीक है? जिस मार्ग या विधि को हम अपनाए हुए हैं, उसमें हमारा कल्याण है? हमें कैसे पता चले कि जिस पर हमने भरोसा किया है वह भरोसे के लायक है या नहीं? कहीं हम धर्म एवं अध्यात्म के नाम पर गुमराह तो नहीं हो रहे? अनेक सवाल इस प्रश्न के साथ जन्म लेते हैं। लेकिन इन्हीं प्रश्नों के साथ मन कुछ और सवाल जुटा लेता है, जैसे कि क्या गुरु पर शक करना सही है? क्या एक गुरु के होते हुए दूसरा गुरु करना चाहिए? क्या गुरु की खोज-बीन, उसका पूर्व आदि तलाशना चाहिए?
अजीब उलझन है, पर हल तो ढूंढना है। मुद्दा इतना महत्त्वपूर्ण है कि इस बात पर गौर करना जरूरी है। सच तो यह है कि यह जानना भी जरूरी है कि आखिर गुरु कहते किसे हैं? असली-नकली की पहचान तो बाद की बात है। मुख्य बात तो यह है कि गुरु कौन है? गुरु की परिभाषा क्या है? गुरु के नाम पर यूं तो सदियों से दोहराया जा रहा है कि गुरु यानी जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। गुरु यानी जो शिष्य और परमात्मा के बीच का बांध है। गुरु की हमने कई परिभाषाओं एवं उपमाओं के साथ जोड़कर व्याख्या की है। हमने उसे कभी परमात्मा से भी पहले व ऊंचा स्थान दिया है, तो कभी उसे शब्द रूप कहा है।
लेकिन इन सब अर्थों एवं दर्जों से गुरु को व उसकी गहराई को नहीं समझाया जा सकता। यह सारी बातें तो उन लोगों के अनुभव से निकली हैं, जिन्हें असली गुरु का सान्निध्य व उनका चमत्कार प्राप्त हुआ है। नए लोग इन बातों को पढ़-सुनकर मान सकते हैं पर समझ नहीं सकते। इन शब्दों एवं व्याख्याओं के आसरे न गुरु को समझा जा सकता है न ही पहचाना जा सकता है।
एक आम आदमी की नजर से देखें तो गुरु यानी वह इंसान जिसका जीवन, जिसकी जीवन शैली, रहन-सहन, बोलना-चालना, भाषा-शब्द, वेश-भूषा आदि आम इंसान से अलग है। जो धर्म-कर्म की बातें करता है, प्रवचन देता है, आध्यात्मिक उपदेश देता है, गैरिक वस्त्र पहनता है, आधुनिक नहीं सादा-साधारण जीवन जीता है, जिसकी जुबान पर या तो कोई श्लोक, दोहे या चौपाइयां होती हैं या फिर गीता-रामायण, वेद-पुराण एवं शास्त्र आदि के वाक्य, माथे पर तिलक, गले में कंठी, भजन-कीर्तन आदि करता हो। जैसे ही आदमी को कोई ऐसा व्यक्ति भीड़ के बीच दिखता है, वह भी उस भीड़ का हिस्सा बन जाता है और बना लेता है उसको गुरु और बन जाता है शिष्य। एक आम आदमी के लिए गुरु का इतना ही अर्थ है। इससे ज्यादा न वह उसे पहचानना चाहता है न ही परखना चाहता है। इन सबके अलावा लोग उसे भी गुरु कह देते हैं जो उन्हें बहुत कुछ सिखाता है। उन्हें ज्ञानोपदेश देता है। उनकी समस्याओं को हल करता है। जो उनके ज्ञान में वृद्धि करता है, उन्हें कई चीजों का जानकार बनाता है। आत्मा-परमात्मा, अच्छे-बुरे, कर्म-भाग्य, जन्म-मृत्यु, पाप-पुण्य आदि के मर्म एवं भेद को समझाता है। यदि ऊपरी सतह पर स्थूल दृष्टि से देखें, तो यह सही है, यही तो गुरु का काम है, यही गुरु की परिभाषा है और यही गुरु की पहचान। यदि हमें किसी इंसान से, गुरु के रूप में इतना कुछ मिल रहा तो फिर इस पचड़े में क्या पड़ना कि हमारा गुरु असली है या नकली? बात भी ठीक है।
लेकिन इतना कुछ देने वाला, सिखाने वाला, सच्चा गुरु ही होगा यह जरूरी नहीं है। गुरु वह है जो भले ही हमें यह सब बातें सिखाए न सिखाए लेकिन हमें हमसे मिलने की विधि दे दे। हमें हमसे मिलवा दे। जिसको सुनते ही, जिससे मिलते ही हम खुद को, खुद के करीब महसूस करने लगें। जिसका मौन भी उत्तर हो, जिसकी उपस्थिति ही औषधि हो, जिसका स्मरण भी आशीष बन जाए। जो प्रश्नों का उत्तर ही न दे बल्कि हमसे हमारे प्रश्न ही छीन ले। जो जब भी किसी से, कुछ भी कहे हमें लगे वह हमसे, हमारे लिए कह रहा है। जिसको अपनाने के लिए हमें कोशिश न करनी पड़े, वह बिना प्रयास के हमारा अपना हो जाए, जिसके साथ हमें संबंध साधना न पड़े, संबंध निर्मित हो जाए। जो हमें केवल बचाए नहीं बल्कि स्वयं बचने का हुनर सिखा दे। जो केवल मार्गदर्शन ही न करे बल्कि शिष्य को अपना मार्ग चुनने की कला भी सिखा दे। जो हमें दुनियादारी नहीं खिदमतगारी सिखा दे।
सच तो यह है कि जिसके जरिये हम स्वयं को पहचानने लगें वही निमित्त गुरु है, वही गुरु की पहचान है और वही गुरु को पहचानने का ढंग। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे पता चलेगा कि जिसे हम स्वयं की पहचान समझ रहे हैं वह पहचान हमें हमारे करीब कर रही है या हमें हमसे दूर? हम कैसे जानेंगे कि हम अपने बारे में सही जान रहे हैं? मगर इस समस्या का भी हल है और वह है प्रश्न का गिर जाना, शांत हो जाना। जिस उत्तर को सुनकर मन में प्रश्न न उठे या फिर उसके उत्तर हमें खुद-ब-खुद भीतर से मिलने लगें और हम खुद को निर्मल, शांत एवं आनंदित महसूस करने लगें, समझना हम ठीक जा रहे हैं। जीवन के प्रति शिकायत नहीं संतुष्टि का भाव उभरने लगे। न तो जीने की चिंता हो, न ही मरने का भय हो। हमें लगने लगे कि अब मैं अकेला नहीं हूं, मेरे अंदर-बाहर वह परम आत्मा विद्यमान है, मुझे महसूस होने लगा है और मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। तब समझ लेना कि जो मैं पहचान रहा हूं वह ठीक है और यह स्वयं से पहचान कराने वाला गुरु भी असली है। इसके अलावा बाकी किसी बात में मत उलझना। बाकी बातें आकर्षित करेंगी, लुभाएंगी जिनको बोलकर या दोहराकर हमें ऐसा लगेगा कि हम ज्ञानी हो गए हैं। पहले से कुछ भिन्न, कुछ नए हो गए हैं और हमारा गुरु सही ही नहीं श्रेष्ठ है। लेकिन ऐसा होता नहीं।
वैसे तो सच्चे गुरु की पहचान सरल नहीं है, किंतु कुछ संकेत दिए जा सकते हैं। पहली पहचान यह है कि गुरु अपने लिए कुछ नहीं मांगता, अपने लिए कुछ नहीं चाहता, वह सिर्फ देता है। दूसरा चिह्न है गुरु ने अपने अहं पर विजय प्राप्त की होती है। इसलिए वह विनम्र, शिशु समान भोला तथा पवित्र होता है। तीसरी विशिष्टता यह है कि गुरु ज्योति में तथा ज्योति उसमें निहित होती है। उसकी उपस्थिति ही ज्योतिर्मय होती है, जिसमें आपकी आत्मा भी प्रकाशवान हो जाती है। चौथा संकेत है कि गुरु कभी स्वयं को गुरु नहीं मानता। वह स्वयं को जिज्ञासु, शिष्य ही मानता है। यह गुरु की पांचवीं विशेषता है। छठा गुण है गुरु सनातन सत्य की, अविनाशी तत्त्व की पहचान करा देता है। अपने ज्ञान तथा अनुभवों का उपयोग गुरु अपनी आजीविका के लिए नहीं करता, यह गुरु का सातवां गुण है। गुरु की आठवीं पहचान यह है कि वह अपने शिष्यों को केवल विचारों से नहीं, बल्कि जीवन द्वारा शिक्षा देता है। गुरु स्वयं ही जीवंत शास्त्र है और नवां गुण है कि सच्चा गुरु जितेन्द्रिय होता है। श्रीमद् भागवत के अनुसार गुरु का दसवां लक्षण है कि वह सहनशील, दयावान, प्राणी-मात्र का मित्र, शत्रुविहीन, शांत शास्त्रनुसार आचरण करने वाला तथा दैवीय गुणों से युक्त हो।

असली गुरु ईश्वर की तरह इतना दयालु है कि वह दंड नहीं देता। गुरु काम-क्रोध-लोभ-मोह से परे करुणा, पवित्रता, शांति तथा आत्मीयता से परिपूर्ण होता है। गुरु के मौन में भी उपदेश है। वह बहुत संवेदनशील है। उसकी संवेदनाएं, विचार, तरंगें, संवेग शिष्य तक पहुंचते हैं, शिष्य में यदि उन्हें ग्रहण करने की शक्ति हो तो।
गुरु का एक और स्वाभाविक गुण यह होता है कि वह सभी मिलने वालों से तद्रूप होकर मिलता है, बच्चों से बालक बनकर, प्रबुद्ध जनों से ज्ञानी बनकर, पराजित तथा परेशान लोगों के साथ हमदर्द बनकर, सफल लोगों की खुशी मनाकर, सुखी लोगों के सुख तथा दुखी लोगों के दुख को समान रूप से भोगते हैं। उच्च तथा निम्न वर्ग के लोगों से उन्हीं के समान होकर मिलते हैं। एक सम्पूर्ण गुरु प्रत्येक स्तर पर सम्पूर्ण होता है।
जो सच्चे गुरु होते हैं, उनको गुरु बनने का शौक नहीं होता, बल्कि दुनिया के उद्धार का मन होता है। उनमें दुनिया के उद्धार की स्वाभाविक सच्ची लगन होती है। वे कभी नहीं कहते कि तुम मेरे चेले बन जाओ तो कल्याण हो जाएगा। जिनको गुरु बनने का शौक है, वही ऐसा प्रचार करते हैं कि गुरु बनाना बहुत जरूरी है, बिना गुरु के मुक्ति नहीं होती।
लोग तो गुरु को ढूंढते हैं, पर जो असली गुरु होते हैं, वे शिष्य को ढूंढते हैं। उनके भीतर विशेष दया होती है। जैसे, संसार में मां का दर्जा सबसे ऊंचा होता है। मां सबसे पहला गुरु है। बच्चा मां से ही जन्म लेता है, मां का ही दूध पीता है, मां की ही गोदी में खेलता है, मां से ही पलता है, मां के बिना बच्चा पैदा हो ही नहीं सकता, रह ही नहीं सकता, पल भी नहीं सकता। मां तो वर्षों तक बच्चे के बिना रही है। बच्चे के बिना मां को कोई बाधा नहीं लगी। इतना होते हुए भी मां का स्वभाव है कि वह अपने आप तो भूखी रह जाएगी, पर बच्चे को भूखा नहीं रहने देगी। वह खुद कष्ट उठाकर भी बच्चे का पालन करती है, ऐसे ही सच्चे गुरु होते हैं। वे जिसको शिष्य रूप में स्वीकार कर लेते हैं, उसका उद्धार कर देते हैं। उनमें शिष्य का उद्धार करने का सामर्थ्य होता है।
गुरु की बात सुनकर मनुष्य भगवान में लग जाए तो ठीक है, पर वह गुरु में ही लग जाए तो बड़ी हानि की बात है। शिष्य को अपने में लगाने वाले गुरु नहीं होते। भगवान के समान हमारा हित चाहने वाला गुरु ही गुरु है। सच्चे गुरु अपना पूजन-ध्यान नहीं करवाते। परमात्मा का ही पूजन करवाते हैं। वह गीता, रामायण आदि ग्रंथों का सार बताकर आपको प्रभु से जोड़ते हैं। जब आपको अपने भीतर से गुरु पर विश्वास आ जाए और आप अपना तन, मन, धन न्यौछावर कर देने तक को तैयार हो जाएं तो गुरु कृपा आप पर बरस पड़ती है। सद्गुरु (परमात्मा) तो एक ही है, वह सदा है, रहेगा। जो शरीर रूप में गुरु दिखाई दे रहा है, वह तो पोस्टमैन है। वह आपकी चिट्ठी उस तक पहुंचा देता है और उसका (परमात्मा) संदेश आप तक ले आता है। धरती पर विराजमान शरीर रूपी गुरु उस शक्ति से जुड़ा हुआ है, उसकी सांस में वह परमात्मा बसा हुआ है।
गुरु का बिम्ब समाज का प्रतिबिम्ब होता है। इसलिए गुरु को सदैव अपने कार्य-व्यवहार के प्रति सावधान रहना चाहिए। उसे अपने क्रिया-कलापों, कार्य-व्यापारों का मूल्यांकन समाज की आंखों से करना चाहिए। शिक्षक समाज को भी अद्यतन परिवेश में अपने अन्तर्मन में चिंतन-मनन करना चाहिए, अपनी अन्तर्रात्मा की आवाज को सुनना चाहिए। राष्ट्रोत्थान, राष्ट्रोद्धार तभी संभव होगा जब गुरु अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुन:स्थापित करें। मर्यादित आचरण करें, पुनीत दायित्व निर्वहन करते हुए मनसा, वाचा एवं कर्मणा के धरातल पर जीवनादर्श स्थापित करें ताकि स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र और स्वस्थ विश्व की कल्पना साकार हो सके।
यह भी पढ़ें –कैसे रहें दूर नकारात्मक विचारों से