प्रदूषण एक विष-जन्य समस्या है। प्रदूषण आज देश के सामने चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। आज न केवल मानव स्वास्थ्य, अपितु सम्पूर्ण बह्रामंड का अस्तित्व खतरे में है।यह केवल कपोल कल्पना नहीं है। अपितु एक यथार्थ है। सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिक इस बात से चिन्तित हैं कि ओजोन-सतह में आगामी 70 वर्षों में लगभग तीन प्रतिशत की कमी आ जाएगी। कार्बन डाईऑक्साइड एवं अन्य ग्रीन हाऊस गैसें जैसे मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, सी.एफ.सी.-11, सी.एफ. सी-12 वायुमण्डल में निरंतर बढ़ रही है। परिणामस्वरूप संसार के तापक्रम में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से 4.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि हो रही है और यदि यही स्थिति कायम रही, तो समुद्री-सतह का फैलाव 20-140 से.मी. की गति से बढ़ेगा। ज्ञात हुआ है कि अंटार्कटिका में ओजोन सतह में एक छिद्र हो गया है जो इस ओजोन के नकारात्मक पहलू की ओर व्यवहृत क्लोरीन और ब्रोमिक यौगिक जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन इसके लिए जिम्मेदार हैं। ऐसी संभावना है कि यदि ब्रह्मïाण्ड के समतापीय ओजोन में यदि एक प्रतिशत की कमी होती है तो लगभग दो प्रतिशत पराबैंगनी विकिरण (अल्ट्रा वायलेट किरणें) बढ़ेगा जिससे मानव-स्वास्थ्य खतरे की ओर तेजी से अग्रसर होगा।

प्रदूषण का प्रभाव

वर्तमान में पर्यावरण मुख्य रूप से प्रदूषित हो रहा है जिसका मुख्य कारण प्रज्ञापराध है। प्रज्ञापराध के कारण वायुमंडलीय प्रदूषण, जलीय प्रदूषण, भूमंडीय प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, आहार प्रदूषण, मानस प्रदूषण, बौद्धिक प्रदूषण, आचार प्रदूषण, काल प्रदूषण, वैचारिक प्रदूषण, तापमान वैषम्य पैदा होते हैं। हमें श्वास लेने के लिए ऑक्सीजन आदि सभी तत्त्वों से भरपूर शुद्घ एवं स्वच्छ वायु की आवश्यकता है। विशुद्घ एवं आवश्यक जीवनीय तत्त्वों से भरपूर जल, स्वच्छ एवं पौष्टिक आहार, स्वच्छ गृह, स्वच्छ वेशभूषा, नियमित रूप से साफ किए हुए शरीर  के प्रत्येक अंग- प्रत्यंग तथा क्षेत्रीय वातावरण की परिशुद्धि आदि आवश्यक बातें ध्यान देने योग्य हैं।

प्रदूषण के कारण

  • घनी आबादी। द्य मलों का अनुचित विसर्जन।
  • ग्ंदी नालियों में पानी एवं गंदगी का जमा होना। द्य औद्योगिक कारखाने आदि से दूषित गैस या द्रव पदार्थों का निकलना एवं समुचित विसर्जन न होकर इक_ा रहना अथवा नदी में विसर्जन से पानी का एवं भूमि का प्रदूषण।
  • सीवर लाइन का दूषित द्रव नदी में मिलना। द्य पेय जल के पाइप में दूषित पदार्थों का मिल जाना। द्य जल की शुद्धि ठीक से न होना।
  • वनों का या पादपों का विनाश।
  • विषाक्त कीटनाशक द्रव्यों का अधिक प्रयोग। द्य वाहनों, कल कारखानों तथा अन्य धूल एवं धुआं उत्पन्न करने वाले व्यवसायों से पैदा प्रदूषण।
  • मेले या बृहत जन समूह के एकत्र होने पर जल्द ही प्रदूषण होने लगता है। द्य हैण्डपंप के उथले पानी में भूमि का प्रदूषण जल्द होकर जल स्तर को दूषित कर देता है।
  • वर्षा के प्रारंभिक काल में वातावरण में व्याप्त प्रदूषण का प्रसार होकर जल्द ही जनपदोध्वंस का रूप ले लेता है।
  • स्पृष्य एवं खाद्य पदार्थों में विकृति होना
  • औषधियों में भूमि प्रदूषण एवं जल-वायु एवं काल की विकृति से निर्वीर्यता एवं प्रभावहीनता पैदा हो जाती है।

प्रदूषण-जन्य कुछ रोग

पामा (एक्जीमा), दाद, विचर्चिका (सोरायसिस), श्वास, कुष्ठ, नेत्र-रोग, राजयक्ष्मा (टी.बी.), शीत-पीत, अभिष्यंद (नेत्र रोग), प्रतिश्याय (साइन्स), अतिसार (दस्त), रक्त-चाप, हैजा, कैंसर, आतशक, उदर रोग, श्लीपद (हाथी पांव), वृद्धिरोग, रजोविकार, बालातिसार, कास (खांसी), शोथ, टुण्डीकेरी, विसर्प, विद्रधि, रक्तपीत, कामला (पीलिया), चर्मदल, रक्त- मंडल, इन्द्रलुप्त (गंजापन), तंद्रा (थकान), कलैव्य, गलगंड घेंघा, विवर्णता, ज्वर, विषम-ज्वर, कफज्वर, गर्भपात, त्वगदाह, विदाह आदि।

उपचार

पर्यावरण के दूषित होने पर उपादान स्वरूप जब जलवायु, भूमि एवं काल भी प्रदुष्ट हो जाते हैं तो भी उपयुक्त औषधियों के प्रयोग द्वारा तज्जन्य रोगों से बचा जा सकता है।

प्रदूषण की रोक-थाम में उपयोगी वनस्पतियां

1-शुद्घ हवा प्रदान करने वाले वृक्ष:- (क) वट, पीपल, पाकड़, जामुन, मौलसिरी। (ख) नीम पत्र, सफेद सरसों एवं साल का गोंद का धूपन देने से वातावरण स्वच्छ होता है।

2-प्रदूषण को रोकने वाले पादप (पेड़):- नीम, फरहद, मौलसिरी, कपूर, तुलसी, गंधतृण, सीतावन, नैरपत्ती, इनके रोपण एवं धूपन से प्रदूषण में लाभ होता है।

3-सर्वोषधि द्रव्य-(क) जटामांसी, तगर, मुरा, मांसी, वचा, कूठ, गुग्गुलू, चम्पा, नागरमोथा, कर्पूर, तुलसी आदि। (ख) पत्तियां वायु में मिले प्रदूषण पदार्थों के सूक्ष्मकणों को सोख लेती हैं। इसलिए वृक्षारोपण का महत्त्व है। (ग)पत्थर के कोयलों से उत्पन्न प्रदूषण रोकने के लिए जंगल जलेवी नामक वृक्षों का रोपण लाभदायक है।

4-पर्वतीय क्षेत्रों के जलस्रोतों को सुरक्षित रखने वाले पादप:-प्राकृतिक रूप से उगने वाली वनस्पतियां एवं झाड़ियों जैसे हिसालू, बांझ, बुरांस, सियास, तिमला, आदि वनस्पतियों को बढ़ावा देना।

विशिष्टï उपचार:- सृष्टि में एवं शरीर में दोषों का बाहुल्य होने पर शोधन चिकित्सा का प्रयोग अत्यंत आवश्यक हो जाता है। जिन व्यक्तियों के दैव एवं कर्म के अनुसार मृत्यु का योग नहीं है उनके लिए स्नेहन स्वेदन पूर्वक शोधन चिकित्सा (पंचकर्म) स्वयं में श्रेष्ठ औषधि के रूप में जीवन रक्षक बन जाता है। शरीर की शुद्धि होने पर दोषों का निर्हरण के बाद रोगोत्पत्ति का भय नहीं रहता क्योंकि शोधन चिकित्सा से बाहर निकाले गए दोष पुन: प्रकुपित होकर रोगोत्पादन नहीं कर पाते।

रसायन चिकित्सा:- शोधन के बाद पर्यावरण प्रदूषण होने से पूर्व ही संग्रहित औषधियों का प्रयोग के बचाव एवं रोग निवारण के लिए करना चाहिए तथा जीवनीय क्षमता, बलवीर्य, बुद्धि एवं आयु की वृद्धि के लिए व्यक्ति के अनुरूप भिन्नभिन्न रसायन औषधियों का प्रयोग विधिपूर्वक करना चाहिए। इनमें हरीतकी, ब्राह्य रसायन, आमलकी रसायन, विडंग, गुडूची, नागबला, त्रिफला, पिप्पली, यष्टिमधु, शंखपुष्पी, मंडूकपर्णी, ब्राह्यी, निर्गुण्डी, ज्योतिष्मती, पलाश, भृंगराज एवं शिलाजीत आदि प्रमुख हैं।

आचार रसायन:- सत्यवादिता, प्राणियों पर दया, दानशीलता, देवपूजा, शांति रखना, अपने शरीर की रक्षा का ध्यान रखना, जिन गांवों या नगरों में प्रदूषण न हो तथा लोगों के आचार-विचार ठीक हों वहां जाकर निवास करना चाहिए। ब्रह्मïचर्य का पालन,  ब्रह्मïचारियां की सेवा, धर्म शास्त्रों का अध्ययन, श्रवण, जितेन्द्रिय महर्षियों की सेवा, सात्विक, धार्मिक एवं वृद्धों से प्रशंसित व्यक्तियों के सम्पर्क में रहना आदि सदाचरण रूपी अमोघ औषधि के द्वारा पर्यावरण प्रदूषण जन्य जनपदोध्वंस की विभीषिका से देह रक्षा की जा सकती है।

कुछ आवश्यक सुझाव:- पर्यावरण प्रदूषण का नियंत्रण करने के लिए निम्न आवश्यक सुझाव अत्यंत उपयोगी हैं। यद्यपि राजकीय स्तर पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा अनेक ठोस कदम उठाए जा रहे हैं तथा विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस ओर प्रयासरत हैं तथापि इसका व्यापक प्रचार-प्रसार करते हुए हर क्षेत्र में पर्यावरण सुधार के कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए तभी इसका संतुलन ठीक हो सकता है।

  • जनसंख्या नियंत्रण व्यापक स्तर पर तीव्रगति से किया जाना चाहिए।
  • वन-उपवन एवं उद्यानों का क्षेत्र बढ़ाकर उन्हें विकसित किया जाना चाहिए।
  • पर्यावरण की शुद्धि में वशिस्ट भूमिका रखने वाले औषधोपयोगी पादप जैसे-बेल, नीम, हरड़, बहेड़ा, आम, पीपल, आंवला, अशोक, तुलसी, मौलश्री, वट, प्लक्ष, जामुन, सोभांजन, आरग्वध, कनेर, महानिम्ब, सफेदा आदि का अधिकाधिक आरोपण करना चाहिए। वनस्पति विशेषज्ञों एवं आयुर्वेद के द्रव्यगुण विशेषज्ञों के परामर्श से जलवायु के अनुकूल औषधोपयोगी पादपों का अधिक से अधिक आरोपण वन, उपवन, उद्यान तथा पार्क आदि में, खेतों के मेड़ एवं सड़क के किनारे लगाए जाने चाहिए।
  • नगरों की बढ़ती हुई आबादी पर अंकुश लगाना चाहिए तथा पर्यावरण का संतुलन नहीं बिगड़े उतनी ही आबादी रखनी चाहिए।
  • कल-कारखाने तथा जलवायु एवं भूमि का प्रदूषण करने वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों को शहर से 15-30 कि.मी. दूर रखना चाहिए तथा वहां पर भी उनके प्रदूषण पर अंकुश लगाना चाहिए।
  • शहर में गंदी नालियां, उनका पानी तथा मलविर्सजन के निश्चित क्षेत्र बनाए जाएं तथा मलों का ठीक से सुरक्षित उपयोग किया जाना चाहिए।
  • जल की प्रयाप्त शुद्धि पर ध्यान देना आवश्यक है। द्य वायु शुद्धि के लिए यज्ञ (हवन) एवं लोहवान, गंधक, जटामांसी, अगर आदि के प्रयोग द्वारा घर में धूपन करना चाहिए।
  • प्राणायाम, ईश्वर चिंतन, धार्मिक कृत्य उपदेश एवं मानसिक शुद्धि के पर्याप्त अवसर उपलब्ध किए जाने चाहिए।
  • नैतिकस्तर को सुधारने के लिए नैतिक शिक्षा तथा आदर्शों का परिपालन एवं सदाचार का सेवन आवश्यक है।
  • आज आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण के दुष्प्रभाव में जन सामान्य को पर्याप्त जानकारी देकर जनता को जागरूक बनाया जाए। वास्तव में प्रदूषण नियंत्रण के लिए जनता को जानकारी का कानूनी अधिकार होना चाहिए। सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण पर खतरा बनने वाली सभी सरकारी और निजी गतिविधियों के बारे में सभी सूचनाएं एक अधिकार के रूप में आम जनता को हासिल होनी चाहिए। स्थानीय आबादी और नागरिकों को यह अधिकार होना चाहिए कि औद्योगिक स्थलों के चयन और निर्णय-प्रक्रिया में वह शामिल हो सके। देश के पर्यावरण आंदोलन का मूलभूत सिद्धान्त लोकतंत्र पर्यावरण लोकतंत्र और पर्यावरण अधिकार होने चाहिए।

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