Naradji ko shaap
Naradji ko shaap

Hindi Katha: सृष्टि के आरंम्भिक काल में भगवती जगदम्बिका ने त्रिदेवों – ब्रह्मा, विष्णु और शिव की उत्पत्ति की । तत्पश्चात् उन्होंने ब्रह्माजी को सृष्टि रचना का, विष्णु को पालन का और शिवजी को संहार का कार्य सौंपा। तब भगवती की इच्छानुसार त्रिदेव सृष्टि का कार्य करने लगे । ब्रह्माजी ने मरीचि, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, अंगिरा और पुलस्त्य ये सात मानस पुत्र उत्पन्न किए। ब्रह्माजी के क्रोध से रुद्र, अँगूठे से दक्ष प्रजापति और गोद से नारद मुनि प्रकट हुए। इसी प्रकार सनकादि (सनक, सनंदन, सनत्कुमार और सनातन) मानस पुत्र उत्पन्न हुए।

ब्रह्माजी ने प्रजापति दक्ष से कहा – ” हे वत्स ! मैंने तुम्हारी उत्पत्ति मैथुनी सृष्टि की रचना के लिए की है। भगवती माता का ध्यान करके तुम शीघ्र ही सृष्टि- रचना के कार्य में तत्पर हो जाओ, जिससे कि असंख्य प्रजा उत्पन्न हो जाए और सृष्टि का क्रम सुचारु रूप से चलने लगे । “

ब्रह्माजी की आज्ञा से दक्ष ने प्रजापति पंचजन की पुत्री वीरणी से विवाह किया और पाँच हज़ार अत्यंत पराक्रमी पुत्र पैदा किए। दक्ष के ये पुत्र हर्यश्व नाम से प्रसिद्ध हुए। दक्ष ने अपने पुत्रों को मैथुनी सृष्टि का कार्य करने की आज्ञा दी । दक्ष के उन सभी पुत्रों में प्रजा की सृष्टि करने का अदम्य उत्साह भरा था। पिता को प्रणाम करके वे मैथुनी सृष्टि के लिए वहाँ से चले ।

मार्ग में देवर्षि नारद मिले, जो उन्हें देखकर हँसने लगे । दक्ष – पुत्रों ने हँसी का कारण पूछा। तब नारद बोले – ” हे दक्ष – पुत्रो ! यह पृथ्वी कितनी लम्बी-चौड़ी है, इसका पता लगाए बिना ही तुम पर्याप्त प्रजा की सृष्टि कैसे कर सकते हो ? ऐसा करने से जगत् में तुम्हारा उपहास होगा। इसलिए पहले पृथ्वी की सीमा जानकर ही तुम्हें इस कार्य को आरम्भ करना चाहिए। ऐसा करने से ही तुम्हें इस कार्य में समुचित सफलता मिल सकती है। अन्यथा तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ जा सकता है।

नारदजी की यह बात हर्यश्वों के मन में बैठ गई । वे आपस में परामर्श करके पृथ्वी के विस्तार का पता लगाने चल पड़े। पुत्रों को इस प्रकार जाते देख दक्ष का मन अत्यंत दुःखी हुआ। किंतु वे बड़े दृढ़-प्रतिज्ञ थे । प्रजा की सृष्टि के विचार से उन्होंने पुनः अनेक पुत्र पैदा किए। वे दक्षकुमार भी प्रजा की सृष्टि करने के प्रयत्न में लग गए। लेकिन नारदजी ने पहले की भाँति इन दक्षकुमारों को भी समझाकर प्रजापति दक्ष के अभीष्ट कार्य से अलग कर दिया।

तब दक्ष नारदजी को शाप देते हुए बोले – ” हे नारद! मेरे पुत्रों को पथ भ्रष्ट करके तुमने मेरे कार्य में बाधा पैदा की है। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम कभी भी एक स्थान पर न ठहरो । सदा भ्रमण में रहो। “

इसके बाद प्रजापति दक्ष ने साठ कन्याओं की उत्पत्ति की । उन्होंने अपनी कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप, धर्म, चन्द्रमा, भृगु और अरिष्टनेमि के साथ कर दिया। फिर इनकी संतानों से चराचर जगत् भर गया। इस प्रकार दक्ष प्रजापति ने मैथुनी सृष्टि का आरम्भ किया।

और दक्ष प्रजापति के शाप के कारण ही नारद जी कभी एक स्थान पर नहीं टिकते। सदा भ्रमणरत् रहते हैं।