Hindi Immortal Story: बाघापुर के राजा हिम्मतसिंह की सेना में शामिल होकर कोई बीस बरस तक युद्ध लड़ता रहा था मालू वाघेर। फिर एकाएक उसे गाँव की याद आई। उसने राजा से कहा, “महाराज, अब मुझे इजाजत दीजिए। अब मैं अपने गाँव में जाकर रहना चाहता हूँ।”
राजा हिम्मतसिंह ने खुशी-खुशी उसे गाँव जाने की इजाजत दे दी। साथ ही बहुत सा धन देकर उसे बड़े आदर से विदा किया।
मालू वाघेर गाँव में आया, तो सभी ने बड़े प्यार से उसका स्वागत किया। सभी को पता था कि राजा हिम्मतसिंह की सेना में उसने बड़े जौहर दिखाए हैं और राजा उसकी बहादुरी से बहुत प्रसन्न हैं।
पर मालू वाघेर के घर के पास ही रहता था हरिया पुत्तन। वह कुम्हार था और खूब लंबा-तगड़ा था, जबकि वाघेर थोड़ा छोटे कद का और कमजोर सा था। हरिया पुत्तन की पत्नी जब वाघरानी से बतियाती तो अकसर इस बात का मजाक सा बनाती। वह बड़े कटाक्ष के साथ कहा करती थी, “अरे, वाघेर साहब तो बड़े दुबले-पतले हैं। वे तो तलवार ही मुश्किल से उठा पाते होंगे, युद्ध करने की तो बात ही छोड़ो। मुझे लगता है, उनकी बहादुरी की कहानियाँ सच्ची नहीं, बस मनगढ़ंत ही हैं।”
सुनकर वाघरानी कुछ कहती नहीं थीं, बस चुपचाप मुसकरा देती थी।
एक बार की बात, रात के समय
अचानक गोली चलने की आवाजें आने लगीं। शोर होने लगा कि डाकू आए हैं। इस पर लंबा-तगड़ा हरिया पुत्तन अपने मिट्टी के घड़ों के पीछे छिप गया। डर के कारण उसकी घिग्घी बँधी थी। लग रहा था कि डाकू उन्हीं की छत से आँगन में कूद रहे हैं।
इतने में वाघेर ने अपनी तलवार उठाई और उसे लहराते हुए वह तेजी से कुम्हार के घर में घुस गया। वहाँ उसने देखा कि कुम्हार थर-थर काँपते हुए घड़ों के नीचे छिपा है, हालाँकि पास में ही लोहे का डंडा पड़ा हुआ है। वाघेर ने तलवार से डाकुओं का डटकर मुकाबला किया और उन्हें भगाकर छोड़ा।
इतने में ही हरिया पुत्तन की घरवाली सिमंती भी कोठरी से बाहर निकल आई। वाघेर को लगा, बस, यही ठीक समय है यह दिखाने के लिए कि उसमें ताकत है या नहीं? उसने उसी समय बात की बात में लोहे के डंडे को हाथों से मोड़कर गोला बनाया और सिमंती के गले में डाल दिया। वह लोहे का गोला उसकी गरदन में इतना कस गया था कि हरिया पुत्तन या उसकी पत्नी चाहकर भी उसे निकाल नहीं सकते थे।
एक दिन हिम्मत करके सिमंती वाघरानी के घर आई और बतियाने लगी।
वाघरानी ने भी हँसते-हँसते उससे पूछा, “क्या बात, इस बार बहुत दिन बाद आई हो?”
इस पर सिमंती की शर्मिंदगी छिपाए नहीं छिप रही थी। पर वह बहुत दिनों से उस लोहे के गोले का कष्ट झेल रही थी। उसने सोचा था कि वाघेर ने इसे उसके गले में डाला है, वही इसे निकाल भी सकता है।
सिमंती दुखी होकर वाघरानी के घर आई थी। उसने कहा, “बस, यों ही कामों में उलझी रहती थी, वक्त ही नहीं मिला।” फिर कुछ रुककर आगे बोली, “अच्छा बहन, मुझे तुम्हारे पति द्वारा गले में डाले गए इस गोले के बोझ से बहुत दिक्कत हो रही है। उनसे कहो न कि वे मुझे इससे मुक्त कर दें।”
वाघरानी ने बड़े फख्र से जवाब दिया, “बहन, यह काम अभी तो नहीं हो सकता, क्योंकि मेरे पति में जोश और बल तभी आता है, जब खतरा एकदम उसके सामने हो, या युद्ध के नगाड़े बज रहे हों। जब वैसा ही वक्त फिर से आएगा, तभी मेरे पति तुम्हें लोहे के इस गोले से मुक्त कर पाएँगे।”
सिमंती ने निराशाभरी आवाज में पछताते हुए कहा, “ऐसा समय तो जिंदगी में एकाध बार ही आता है।”
इतना कह, वह निराश होकर घर जाने लगी। इतने में भीतर से वाघेर आया। हँसता हुआ बोला, “सुनो भाभी, यह तो मजाक की बात है। पर तुम्हारा घमंड भी तोड़ना जरूरी था। लाओ, मैं अभी यह लोहे का छल्ला निकाल दूँ।”
और बात की बात में उसने सिमंती को इस आफत से मुक्ति दिला दी।
थोड़ी देर वाद सिमंती घर जाने लगी। पर तभी वाघरानी ने कहा, “बहन, खुशी-खुशी घर जाओ। पर पहले मेरी एक बात जरूर सुन लो। आज के बाद कभी किसी वीर को ऐसी टोक मत मारना। क्योंकि बहादुर आदमी को गोली से उतना घाव नहीं लगता, जितना गाली से लगता है।”
सिमंती को अपनी भूल पता चल गई थी।
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