एक राजा संत-महात्माओं की सेवा कर अपने आपको धन्य समझते थे। एक बार उनके राज्य में एक महात्मा पधारे। राजा ने उनका बड़ा नाम सुना था। सो उन्होंने अपने राज्य में उन्हें स्वागत-सत्कार के साथ आश्वाशन दिया। उनकी सेवा के लिए सेवकों को जुटा दिया।
रात में सत्संग के लिए राजा जब महात्माजी के साथ बैठे और बोले- “गुरुदेव, आप कहें तो मैं आपके लिए सर्वसुविधा युक्त आश्रम बनवाकर उसमें आपके आराध्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित करवा देता हूँ। आप वहीं रहकर देव सेवा करते हुए हम सबका कल्याण करें।
उनकी बातें सुनकर महात्मा बोले- ‘आप। जो कह रहे हैं वह बात मुझे पसंद नहीं आ रही है।’ ‘क्यों गुरुदेव?’ राजा ने आश्चर्य में पड़कर पूछा। ‘मैं तो ठहरा संत मेरे लिए आसमान की छत, धरती का बिछौना आश्रम से कम नहीं है और प्रकृति द्वारा दी गई सुविधा ही मेरे लिए सुविधा है। रही बात देव मूर्ति सेवा की तो उसकी मुझे आवश्यकता नहीं है, क्योंकि देव तो कण-कण में हैं।
कण-कण में है तो हर जीव में है। बस, बात उसे पहचानने की हैं। आदमी यही भूल कर जाता है, जब इतना सब कुछ मेरे पास है तो आपके दान का मेरे लिए क्या महत्व है बोलो महाराज। “राजा क्या बोलते उन्हें उनका राज मद उनके चरणों में नतमस्तक होता नजर आ रहा था।
सारः सृष्टि और प्रकृति सर्वाेपरि है, राजमद नहीं।
ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं– Indradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)
