cactus
cactus

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

उस दिन पूजा के लिए फूल तोड़ते समय मेरे हाथ अचानक जहां के तहां रुक गए थे, एक चिरपरिचित मधुर आवाज अचानक मेरे कानों में गूंजी थी,

“दीदी” ई ई ई……

मैनें पलट कर देखा तो देखती ही रह गई थी। कुछ क्षण रुक कर, फूलों की टोकरी वहीं रख मैं दौड़ पड़ी थी, “अरे, सुषमा, तुम! तुम कैसे आ गई? न चिट्ठी, न खबर। पहले तो तुम ने लिखा था कि अभी छुट्टी मिलने की कोई उम्मीद नहीं हैं।”

मैं इतना सब कुछ एक ही सांस में बोल गई थी। फिर जब गला कुछ सूखता-सा लगा तो एहसास हुआ कि मैं बोले ही चली जा रही हूं। सुषमा को तो बोलने का मौका ही नहीं दे रही हूं। अपनी भूल को मिटाते हुए मैंने सुषमा को सोफे पर बैठाते हुए बड़े लाड़ से कहा, चलो, अब बताओ, तुम कैसी हो? छुट्टियां कैसे मिल गई?

एक गहरी सांस छोड़ते हुए उसने कहा-,

“मिल गई, बस, तुमसे मिलना बदा था और क्या” इतना कह वह अटैची में से अपने कपड़े निकाल नहाने के लिए गुसलखाने में घुस गई।

किसी भी प्रकार की ललक से परे उसका भावहीन चेहरा देख मुझे बरबस गंभीर हो जाना पड़ा। तो क्या सुषमा अभी तक अपने जीवन को सहज नहीं बना पाई हैं? बना भी कैसे पाए। जैसे तैसे अपने को रमा के रखने वाली सुषमा मां के अचानक चले जाने से और भी अंतर्मुखी हो गई हैं।

कुछ भी तो नहीं हुआ था उनको, न सर्दी, न बुखार, खाना खा कर दोपहर को आराम करने के लिए अपने पलंग पर जो सोई तो सचमुच सो ही गई थी हमेशा के लिए। मां ने बड़े जतन से पाला था। पितृहीन सबसे छोटी संतान सुषमा को। मां हमेशा उसे दुनिया के कठोर यथार्थों की चुभन से दूर रखना चाहती थी ।

वह चाहती थी कि सुषमा खूब तडकभड़क वाले कपड़े पहने पड़ोस की अन्य लड़कियों की तरह वह भी चहकती रहे।

इसके लिए वह खुद कभी उसकी साड़ी में तो कभी दुपट्टे में सलमा सितारे, जरीगोटा लगाती और कहती, “ले, इसे पहन ले।” डूबते और उदास रंग के कपड़े पहन कर बड़ी बूढ़ियों-सी बन जाती हैं। लोग देखते होंगे तो क्या कहते होंगे कि इतनी सी लड़की को अभी से पुरखिन बना दिया। जरा चमकदमक से रहा कर, मेरे ही सामने ऐसे रहेगी तो ……………………..

कहने को तो कह जाती थी, पर उस अनजान चुभन की वेदना से बचा नहीं पाती थी अपने मन को। एक लंबी और गहरी सांस इतनी धीमी गति से छोड़ती थी जिससे सुषमा न सुन सके। जिंदगी के 20 बसंत जिसने अपनी आंखों से पतझड़ के पत्तों की तरह एकएक कर झड़ते और सूख कर विलीन होते देखे हों वह दिल की गहराइयों से इतनी अपरिचित कैसे रह सकती थी?

जिंदगी के प्रथम दौर के 20 वर्ष तो तितलियों और पक्षियों की तरह रसपान करते और चहकते हुए बीत गए थे। लेकिन बाद का एकएक पल जिंदगी के हर कोने को रंगीन बनाने की झूठी आशा में मात्र मृगतृष्णा बन कर रह गया था। फिर भी वह खड़ी रहीं थी मरूभूमि में उठते हुए रेत के बवंडरों के बीच खड़े एक कैक्टस की तरह।

उसका सूखा वीरान चुभन भरा जीवन अनेक झंझावातों और थपेड़ों की मार सह कर भी आज अपने आप में संयत था।

दो साल बीत गए थे मां को गुजरे। तब से लगातार चिट्ठियां डाल रही थी सुषमा को – “कुछ दिनों के लिए घूम जाओ। थोड़ा मन बहल जाएगा।” पर जब देखो तब वह लिख देती थी।

प्रिय दीदी,

आने के लिए मैं भी उतावली रहती हूं। फिर भी न जाने क्यों उस क्षण, मन मेरे पैरों को आगे बढ़ने के लिए नहीं कहता। शायद मैं बेहद उदास हो गई हूं। यों तो उदासी दूर करने के लिए मैं खूब बातें करती हूं, अच्छा खाना भी खाती हूं, मनपसंद ओढ़ती-पहनती भी हूं, फिर भी, दीदी, मन का कोई कोना हमेशा अपने खालीपन का एहसास दिलाता रहता है। समझ में नहीं आता कि क्या करूं, किस तरह जिऊं।

तुम्हारी सुषमा

पत्र पढ़ कर मैं भी बेहद उदास हो जाती थी। सच ही तो लिखा है उसने। हरदम खालीपन का एहसास जीने भी तो नहीं देता चैन से। सब कुछ होते हुए भी एक कमी खलती रहती है। शायद सुषमा की यह कमी पूरी न होने में कुछ हद तक मैं ही जिम्मेदार हूं। हां, दोष तो मेरा ही था। मैंने मां की हां में हां नहीं मिलाई थी। नहीं तो आज सुषमा भी मेरी तरह घर की मालकिन होती। मालकिन तो वह आज भी है, लेकिन उस घर की जिसमें अधिकार को छोड़ बाकी सब हैं।

क्या कमी थी अनुराग में? कितना अनुरागी मन था उसका। यथा नाम तथा गुण। धर्म, जाति और हैसियत सब कुछ तो एक जैसा था। आज सोचने से क्या होता है? उस समय तो मैं ही बिगड पडी थी जब मां ने उसकी तरफदारी की थी।

“मां, क्या हो गया है तुमको? समझने की कोशिश क्यों नहीं करती कि अनुराग दूर के रिश्ते में मामा का लड़का है? फिर दूर का हुआ तो क्या हुआ? आखिर रिश्ता तो रिश्ता ही है। क्या इज्जत रह जाएगी हमारी? मां, तुम्हें, और कुछ नहीं तो अपने दामाद की इज्जत का भी ख्याल रखना चाहिए। अरे! कोई कमी है क्या लड़कों की? एक से एक लड़का ला कर खड़ा कर देंगे ये।

सुषमा भी न जाने क्या सोच कर चुप्पी साध गई थी। शायद उसके अहं को कहीं गहरी चोट लगी थी। स्वाभिमानी तो वह बचपन से ही रही हैं। इसी स्वभाव से चिढ़ कर भाभी हमेशा उसे नकचढ़ी कह कर चिढ़ाया करती। चिढ़ाने को तो चिढ़ा देती, पर सुषमा के प्रति अपने कर्तव्य का आभास कभी न होने देती। भाई ने भी शायद उसके एकाकीपन को दूर करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। अन्यथा उस दिन अनुराग के बारे में दो टूक फैसला करने की हिम्मत मुझ में न होती।

अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ और समझा कर चली आई थी मैं। उस के बाद फिर कभी उतने जोशीले विचार नहीं आए मेरे मन में और न ही सुषमा के जीजाजी से अधिकारपूर्वक आग्रह ही किया था और न, ही बड़ी बहन होने के नाते कर्तव्यबोध ने कभी कचोटा। कभी कचोटता भी तो सोचती, ऊंह भाई भी तो है घर में, उसे भी तो सोचना चाहिए। फिर, यह तो मां का काम है। कि पीछे पड़ी रहें। अकसर मां के पत्र आते रहते।

प्रिय बेटी,

आजकल सुषमा बहुत उदास रहती हैं। अमर बेटा अपने में ही खोया रहता है। उसने अपने लिए एक लड़की पसंद कर ली है, शायद अगले माह कचहरी में जाकर शादी करने वाला है। लेकिन सुषमा का क्या होगा? कोई नहीं सोचता उसके बारे में। मैं पैरों से अपाहिज कहां जाऊं? तुमने भी कोई कोशिश नहीं की शायद। एक मां इस से ज्यादा और क्या लिख सकती है?

तुम्हारी मां

पत्र पढ़ कर मैं चिढ़ जाती। जब भाई को अपनी शादी के सामने बहन की शादी का ख्याल नहीं तो मैं ही कहां तक परेशान रहूं? इसके बाद मां थोड़े ही दिनों में चल बसी थी। मां के न रहने के बाद मैं गई तो देखा, सुषमा मां के मरने पर भीतर ही भीतर घुट रही थी। वहां से लौट कर एक सांत्वना भरा पत्र मैंने सुषमा को डाला था। उसका जवाब ठीक एक माह बाद आया था।

प्रिय दीदी,

यह सच है कि कोई किसी का नहीं होता। खुशी भी आदमी अकेले ही भोगता है और दुख भी अकेले ही भोगना पड़ता है। चाह कर भी कोई किसी की खुशी में पूरी तरह शरीक नहीं हो पाता और न दुख को ही बांट पाता है। किसी के लिए जीने या मरने की बात कहना सरासर झूठ है। आदमी जीता भी अपने लिए और मरता भी केवल अपने लिए है। आदमी दरअसल स्वयं को ही दुनिया मानता है। जब आदमी की परिस्थितियां उसके विश्वास को कमजोर करने लगती हैं तब आदमी दुखी होता है। मतलब यह कि आदमी प्यार भी करता है खुद से, और लड़ता भी है खुदी से।

तुम्हारी सुषमा

मां के मरने के बाद से सुषमा का पत्र कुछ देर के लिए एक गहरी उदासी में डूबा देता था। मैं अब सुषमा के प्रति उतना ही सोचने लगी थी जितना तब सोचना चाहिए था। क्या कमी थी उसमें? न रूप की, न रंग की, न पैसे की। जब किसी बात की कमी नहीं होती, तब परिवार की उदासीनता ही लड़की के दुख का कारण बन जाती है।

लड़की अपने लिए कुछ करे तो कलंकिनी, न करे तो छाती का पत्थर। छाती का पत्थर बनने की अपेक्षा कलंकिनी (समाज और परिवार का खोखला अहं) बनना ज्यादा श्रेयस्कर होता है, क्योंकि जब कोई किसी के सुख में अपना सुख मानने के लिए तैयार नहीं तो फिर क्यों न हम अपने सुख की पहल आप करें?

पर सुषमा में यह पहल करने की शक्ति नहीं थी। वह जब भी अनुराग से मिलती, ज्यादा ही आदर्शवादी बन जाती। न साथ में घूमना, न ज्यादा बतियाना। हमेशा एक फासला बना रहता दोनों के बीच। वह जब भी घूमने फिरने की इच्छा जाहिर करता तो सुषमा हमेशा यही तर्क देती, “कोई देख लेगा तो क्या कहेगा ?” मां क्या सोचेगी कि सुषमा इतनी उतावली हो गई है?

अनुराग बी.ई. हो कर पहली नियक्ति पर बाहर जा रहा था। जाने से पहले क्या कुछ नहीं कहा था उसने। खूब मिन्नतें की थी उसने ।

“सुषमा, बस हां कर दो। देखो, मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह सकता। जिस दिन तुम्हें नहीं देखता हूं। सच मानो, वह रात आंखो में गुजार देता हूं।”

पर सुषमा ने सिर्फ इतना ही कहा था, क्यों? “शायद तुम समझ नहीं पा रही हो कि मैं क्या कहना चाहता हूं। मैं तुम से शादी करना चाहता हूं सुमि। मैंने मां से भी बात कर ली है,” उसने स्पष्ट करते हुए कहा था।

सुषमा कुछ न बोली थी। वह मौन अनुराग को बहुत खला था। फिर भी वह उसमें डूबने की कोशिश करता रहा उसे मनाता रहा। पर सुषमा उतनी ही दूर खिंचती रही। इस प्रकार उसके प्यार का हर एक पल उस के खोखले आदर्शों की वेदी पर चढ़ता रहा और एक दिन उसी में जल कर भस्म हो गया। सुषमा देखती रह गई थी।

एक बार मैंने सुषमा को लिखा था-तुम ज्यादा से ज्यादा अपने आप को व्यस्त रखने की कोशिश करो। अच्छा हो, यदि कुछ लिखना शुरू कर दो। लेखन वास्तव में मानव मन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अपने विचार, अपना दुख मन में दबाए रखने से तो अच्छा है, उसे व्यक्त करो। चाहो तो अच्छा खासा उपन्यास ही लिख डालो। लेखन समग्र जीवन के मल्यांकन का एक सशक्त साधन है, एक ऐसा साधन जो कभी नष्ट नहीं होता।

याद है मेरे पत्र के जवाब में उसने लिखा था।

प्रिय दीदी,

अपने शेष जीवन को बिताने के लिए आप ने अच्छा सुझाव दिया है।

मैं चाहती हूं कुछ लिखू। लेखनी के माध्यम से अपने दर्द को शब्दों की अभिव्यक्ति दूं। लेकिन मेरे लिए यह भी संभव नहीं हो पाता। लिखने बैठती हूं तो लगता है, जैसे मेरे जीवन में घटी दर्दीली घटनाओं को अभिव्यक्ति करने के लिए शब्दकोश में शब्द ही नहीं है। दरअसल मेरे लिए जीवन को चलाने के सभी साधन असमर्थ हो गए हैं। पत्र डालती रहिएगा ताकि जीवन जीने की प्रेरणा मिलती रहे।

तुम्हारी सुषमा

तभी पीछे से सुषमा ने टोकते हुए मेरी विचार तंद्रा तोड़ दी थी, “दीदी, क्या अब आप भी सोचने लगी? आप क्यों नाहक इस फेर में पड़ती हैं? आप तो बस जीजाजी की सेवा कीजिए।”

सचमुच सब वही तो करती है, अचार, पापड़, बड़ी से लेकर मेरे कपड़ों तक का सारा इंतजाम। एक पल के लिए भी मुझे मां का अभाव नहीं खटकने दिया। ऐसी पुरखिन जैसी नपी तुली बात करती है कि मैं बड़ी होकर भी छोटे बच्चे की तरह हामी भरती रहती हूं।

इतना सब कुछ होते हुए भी इस बार सुषमा और मेरे बीच वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो पाया जिस की तलाश में वह आई थी। उसके लिए तो सब कुछ हम ही थे। हमारे बच्चे थे। पर इधर, मेरे लिए मेरा अपना घर था। मेरे अपने बच्चे थे। उनके बीच मुझे किसी के प्रत्यक्ष सहयोग और सहानुभूति की आवश्यकता तो महसूस हो ही नहीं रही थी। बल्कि किसी की उपस्थिति भी खटकने लगी थी।

लगता था, मेरे घर की सजावट व्यवस्था, और बच्चों आदि के बारे में सिर्फ मैं ही सोचूं, दूसरा नहीं। सुषमा थी कि रोज मेरे घर को संवारने सुधारने में लगी रहती। उससे समय बचता तो बच्चों को और अजय को खूब बनाती खिलाती।

न मालूम क्यों, मैं मन ही मन डरने लगी थी अपने बच्चों और अजय के लिए। शायद मेरे मन में सौतिया डाह का बीज अंकुरित होने लगा था। सषमा जितनी दिलचस्पी दिखाती. मैं उसके प्रति उतनी ही बेरुखी होती जा रही थी। शायद मेरी सहानुभूति सिर्फ पत्रों तक ही सीमित रहना जानती थी। ऐसा नहीं कि सुषमा मुझमें आए इस बदलाव को समझ नहीं पा रही थी। फिर भी उसने आभास नहीं होने दिया था।

उसकी छुट्टियां खत्म हो चुकी थीं। आज उसे जाना था। रात का समय था। खूब जोरों से पानी बरस रहा था और घने अंधेरे में पूरा शहर बियाबान जंगल-सा लग रह था। समय की नजाकत को देखते हुए अजय ने कहा था। “सुषमा, चलो, मैं छोड़ आता हूं। तुम अकेली कैसे जा सकोगी ऐसे में। स्टेशन भी दूर है और लाईट भी नहीं है। वैसे भी रात दस बजे अकेले जाना ठीक नहीं है।

तभी मैं न जाने कैसे बोल गई थी, “आप कहां जायेगें इतनी वर्षा में? सुषमा को तो आदत है, वह चली जाएगी अकेली।”

सुषमा बोली तो कुछ नहीं, पर इस वातावरण से अनजान-सी रहकर हाथों में सूटकेस लिए निकल पड़ी थी बिना किसी सलाह के। किसी अनजान कुंठा से घिरी। मैं, उसे सिर्फ आंगन की देहरी तक ही पहुंचा सकी थी। उसे छोड़ जब मैं आंगन में आई तो देखा, कैक्टस के सभी पौधे ज्यौं के त्यों प्लास्टिक की थैलियों में बंधे रखे थे।

मैंने सोचा, शायद वह भूल गई होगी। बात आई गई हो चुकी थी। एक दिन अचानक उसका पत्र मिला। लिखा था- दीदी, मेरी रुचि देख तुमने मुझे कैक्टस लगाने के लिए दिए थे। मुझे भी कैक्टस लगाने का शौक था। चाहती थी मेरे आंगन में तरह-तरह के कैक्टस हों, लेकिन मेरे आंगन में कैक्टस लगता तो कैसे? मेरा तो कोई घर ही नहीं है, कोई आंगन कभी बनेगा, इसकी भी अब उम्मीद नहीं।

इसलिए कैक्टस के वे पौधे मैं वहीं छोड़ आई थी। आशा है, तुमने अपने आंगन में लगा लिए होंगे।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’