deh gandh
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

सतत् प्रवाहमय समय कब रुका या ठहरा है? दीवार पर चढ़ते उतरते कैलेंडर और बदलती तारीखें जरुर कभी-कभी चौका देती है, अरे ! ….. आठ साल गुजर गए पता ही नहीं चला…. पलक झपकते गुजर गये जिन्दगी के आठ बरस! …..

हां कहीं-कहीं ऐसे भी छलकता है जिन्दगी का प्याला …. एक तार, एक सुर ताल में बजती जिन्दगी की सरगम, ……. जहाँ कदम ये भी भूल जायें की कहाँ चल रहे है हम….!!

हां कुछ ऐसी ही थी आदित्य और गीता के बीच जिन्दगी; जहाँ ये अपने चेहरे आईने में नही; एक-दूसरे की आँखों में देखते थे…….. और सँवारते थे। गीता के चेहरे पर कहाँ कालिक या हल्दी लगी है…… कब आँखों में नमी है या होंठों पर शरारत, ….. कब किसी सपने का फूल खिला है या समझौते की सलवट उभरी है….. इसका ध्यान आदित्य ही रखता था और कौन-सी शर्ट मैली है या कौन-सी ज्यादा जंचेगी यह गीता की आँखें देखती थी….. गीता की उदासी की कोई दरार, कहीं आदित्य के चेहरे पर चस्पा तो नही है… एक के पैर में चुभी फांस दूसरे को कितनी तकलीफ देगी यह कभी शब्दों में कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी…. ऐसी स्थिति में सूरज कब तारीख बदल कर आ जाता, यह पता न चले तो कौन सी बड़ी बात है।

आप यह भी नहीं कह सकते कि भौतिक सुख के साधनों में आपाद मस्तक डूबें हो तो कहाँ पता चलेगा समय…… अरे!…… यहाँ तो किसी सामान या साधन को इजाजत नहीं थी की वे अभाव के किसी भाव को उनके दरम्यान दाखिल कर सके।

आज भी नाईट ड्यूटी थी…… नौ बज चुके थे भागते दौड़ते गीता ने खाना तैयार किया….. साथ ही रानू का दूध गरम करके ठंडा होने के लिए आधी खुली तश्तरी से ढंक दिया, खाना पलंग के पास की टी टेबल पर लगाकर घडी की ओर देखा- कांटे तेजी से सरकते जा रहे थे। देखते-देखते नौं बजे कर बीस मिनट हो गये थे।

ओह, उसने खिड़की से बाहर देखा वहां आदित्य की उपस्थिति की कोई आहट नहीं थी। गनीमत है, रानू सो रहा था वरना, कोई काम नहीं करने देता। गीता ने साड़ी उतार कर पलंग पर फेंकी, ड्यूटी ड्रेस पहन कर, हाथों में पर्स संभालती बाहर आ गई। दूर सर्कल तक लाइट में नजर दौड़ाकर आदित्य को देखा, खोजा, हवा को सूंघा जिसमें आदित्य की गंध नहीं थी।

अब तक आदित्य कैसे नहीं पहुंचे, किंचित छलक आई चिंता को परे करते गीता ने कलाई पर नजर डाली नौ तीस…. ओह, बाजू से बैनर्जी आंटी को आवाज दी- आंटी-आंटी प्लीज आप थोड़ी देर रानू के पास बैठीयेगाआदित्य बस आते ही होंगे, कहती दौड़ती-सी गीता सामने ही हॉस्पिटल के कंपाउंड में समा गई।

उधर रेलवे क्रॉसिंग पर माल गाड़ियों को आराम से चहल कदमी करते, गुजरते देख, बंधे पैर दौड़ता आदित्य गीता की एक-एक परेशानी को साफ देख रहा था। बज रहा था एक ही सुर में दोनों सिरों पर चिंता का एक ही संगीत….घर आकर दरवाजे की चिटकनी चढ़ाते आदित्य ने अंदर कमरे में नजर दौड़ाई रानू आराम से सो रहा था। दरवाजे पर ही मिली बैनर्जी आंटी ने संकेत से कहा- रानू सो गया।

लंबी सांस ले आदित्य ने शरीर को ढीला किया। सारा कमरा गीता की अनुपस्थिति में, उसके होने को बयान कर रहा था……. कदम कदम पर खड़ी थी गीता…. खूटी पर टावेल, बाथरुम के बाहर स्लीपर, टेबल पर खाना, रात में पीने का पानी रखना, जैसी छोटी से छोटी चीजों को याद से रखना वह कभी नहीं भूलती। सब सहेजती-संवारती गीता कहीं-कहीं उलझी बिखरी भी थी। उतारी हुई साड़ी पलंग के किनारे झूल रही थी… तो बदला हुआ पेटीकोट गोल घेरे में फर्श पर पड़ा था…… कंघी में कुछ बाल फंसे रह गए थे, तो फर्श पर फैले पाउडर के कतरे…

आदित्य ने सारे बिखराव को दुलार से थपकते हुए समेट लिया। खाना खाकर दांत कुरेदने की टुथपिक उठाते वह गीता की नजदीकी से सराबोर हो उठा- इतनी छोटी छोटी बातों का ध्यान कैसे रख लेती है गीता !! सहसा उसकी नजर दीवार पर टंगे कैलेंडर पर गई कितने साल गुजर गए सोचने का समय ही नहीं मिला….।

जीवन की उस अविस्मरणीय की शाम से आदित्य ने अपनी जिंदगी गीता के नाम लिख दी थी या कहें कि उस दिन के बाद आदित्य की जीवन रेखा गीता की हथेली से शुरू होने लगी।

……विचारों की पटरियों पर यादें दौड़ पड़ी….!!. लंग्स इन्फेक्शन हुआ था…. आदित्य को सांस लेने में भी तीखा दर्द हो रहा था। अर्ध चेतना में हांफता-सा हॉस्पिटल पहुंचाया गया था…. अपनी बेसुधी में आदित्य इससे भी अनजान था कि रातभर मौत उसकी ओर कदम बढ़ाती रही…..और गीता उसे जिंदगी की ओर खींचती रही… सुबह जब वह खतरे से बाहर आ चैन की नींद सो रहा था, गीता उनींदी आंखों से बार-बार नींद को झिड़कते हुए अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थी।

अगले दिन कुछ स्वस्थ होने पर रूम की आया देवकी ने उसकी सीरियस नाजुक स्थिति को बतलाते हुए कहा- कल तो आपकी हालत से डॉक्टर साहब भी घबरा गए थे। वह तो आपकी किस्मत से कल गीता सिस्टर यहां थी बेचारी की ड्यूटी नहीं थी फिर भी पूरी रात कुर्सी पर बैठी आप को संभालती रही।

-कौन गीता सिस्टर….? मैंने जानना चाहा

सच साहब- गीता सिस्टर जैसा तो कोई हो ही नहीं सकता, सबके लिए कितना कुछ करती है पर बेचारी खुद कितनी अकेली और परेशान है…

कौन गीता सिस्टर??…. मैंने स्मृति पर जोर डाला कुछ धुंधला-सा चेहरा याद आया सांवला रंग बड़ी-बड़ी गहरी पलकों वाली सांवली-सी लड़की, कम बोलती मगर मुस्कुरा कर जवाब देती, कुछ डूबी-डूबी… कुछ ठहरी ठहरी सी… आया ने जब उसे बेचारी अकेली कहा तो मैंने बीच में रोक कर पूछा- क्या हुआ उसे?..

-अरे साहब. क्या बताएं…. एक लडका था प्रहलाद बहत पसंद करता था गीता सिस्टर को गीता भी उसे पसंद करती थी मगर, सगाई होने के पहले ही उसने ‘गीता नर्स है’, इस कारण सगाई रोक दी, उसने गीता सिस्टर को नौकरी छोड़ने को बोला, मगर गीता सिस्टर को तो मरीजों की सेवा में भगवान की पूजा जैसी शांति मिलती है ना, सो गीता सिस्टर ने नौकरी छोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रहलाद हमेशा के लिए गीता सिस्टर की जिंदगी को मंझधार में छोड़कर चला गया। फिर सुना उसने शादी भी कर ली।

अच्छा ही हुआ ऐसा आदमी कितने दिन गीता सिस्टर को सुखी रख पाता। मगर तब से गीता सिस्टर ने शादी न करने की कसम खा ली। बस उसे अस्पताल और मरीज के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं। कभी-कभी तो वह 24 घंटे अस्पताल में ही नजर आती है। कितने ही निराश हो चुके मरीजों को वह अपनी सेवा और अपने अच्छे विचारों से मौत के मुंह से बचा लाई। बहुत मेहनती और खुद्दार है हमारी गीता सिस्टर…..

आदित्य गीता के बारे में सोचता रहा…. जिंदगी से मौत की रस्साकशी में जिंदगी की जीत ही शायद गीता कि अपनी जीत है।….. शायद गीता हर बार अपनी इस जीत में प्रहलाद को चुनौती देती है……

देखो, !!….एक नर्स क्या कर सकती हैं… शायद इसी जुनून में गीता अपना दर्द भुलाए रहती है।

-और कौन है गीता के परिवार में ?

-मैंने पूछा-

-अरे कहां परिवार…!! रिश्ते की बस एक मौसी है उसी ने गीता को पाल-पोस कर बड़ा किया। मौसी है बस। मैंने गीता के टूटे किनारों की थाह ली।

‘गीता’ एक हुक-सा अटक गया जेहन में…. डिस्चार्ज होने से पहले मैं गीता से मिलना चाहता था। शुक्रिया अदा करने जब एक दिन पहुंचा तो पता चला- उस दिन भी गीता और प्रहलाद में मौन संवाद जारी था…. यानी उस दिन भी गीता एक सीरियस पेशेंट के साथ जुटी पड़ी थी। किसी लड़की का सुसाइड केस था- उसने जलकर मरने की कोशिश की, क्योंकि वह उतनी सुंदर नहीं थी जितनी पति की चाहत थी।

गीता उसकी लड़ाई में शामिल हो जाती है, उसे समझाती है-शालू जिंदगी अपने लिए होती है, सुंदरता अपने लिए होती है ….. किसी तौल के लिए नहीं…..पति की चाहत के लिए सुंदर होना और ना होने पर मर जाना…!!छी छी.. कैसी कमजोर हो तुम…. जैसे वह इस निर्णय को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। अंतत: गहरी जद्दोजहद के बाद, शालू को बचाकर गीता एक बार फिर प्रहलाद से जीत जाती हैं। शालू अपनी बदसूरती में जीने की नई दृष्टि, नया मूल्य और आत्मविश्वास की खुशबू लेकर जब वापस लौटती है, तो गीता हाथ हिलाते हुए उसे विदा देकर, ऊपर आकाश की ओर देखती है। जैसे- उसे अपने हिस्से की सारी खुशियां दे रही हो, जिसकी उसे आवश्यकता नहीं है।

मैं गीता से मिलता हूं… देखता हूं….गीता कृष्ण की गीता से पृथक नहीं थी। कर्मयोगिनी गीता….

मैं गीता की लड़ाई में शामिल होता हूं….. मगर, गीता मेरी जिंदगी में शामिल होने से इंकार कर देती है …….गीता का इनकार मुझे अधिक आग्रही बनाता जाता है…. और फिर गीता और मैं अच्छे मित्रों की तरह एक सीमा रेखा पर रूककर साथ चलते हैं।…. परिवार और समाज के सिकुड़ते दायरे, उठती उंगलियों के बीच भी मैं रुका नहीं…. मैं गीता के साथ उसके हर उस मुकाम या मंजिल को स्वीकार कर लेता हूं जिसे गीता पाना चाहती है…. मैं उसे निर्णायक क्षण तक ले जाना चाहता हूं, जिसमें गीता विजयी होकर प्रहलाद द्वारा दी गई मात से उबर सके।

मैं सौगात में मिली अपनी जिंदगी को, जो, एक नर्स की दी हुई सांसो की साक्षी में स्पंदित हो रही थी, गीता को उपहार में देकर, अदेखें प्रहलाद को जवाब देना चाहता था कि उसने गीता को खोकर क्या खोया।

मेरे मिलने के प्रयासों को गीता यदा-कदा ही स्वीकार करती, ड्यूटी ऑफ होने पर गीता मिलती मगर, अकेली….!! वह अपने अंदर की स्त्री के साथ कभी नहीं मिली। मैं एक तरफा पुरुष उसे कैसे समझाता कि संसार में एक पुरुष आदित्य भी है जो प्रहलाद नहीं है….. मगर गीता के अंदर ठहर चुकी सतह में कोई हलचल नहीं होती….कोई लहर नहीं उठती… कोई शिकायत नहीं, चेहरे पर कोई अवसाद नहीं… बस थोड़ी देर बाद….. मुझे जाना है आदित्य या…. मुझे देर हो रही है या…. हॉस्पिटल में मेरा सीरियस पेशेंट है।

अपने निर्णय पर पूरी तरह से ठहर चुकी या दिशा बदल कर चलती गीता मेरे किसी तर्क से सहमत नहीं थी। गीता अपनी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं चाहती थी। उसने कई बार मुझसे लौट जाने की सलाह दी, मुझे समझाना चाहा कि, उसकी और मेरी राह एक नहीं हो सकती, अब काफी देर हो चुकी है और लौटना संभव नहीं है।

……..मगर कुदरत कुछ और चाहती थी। प्रकृति मुझसे सहमत थी। उसने मुझे अचानक गीता के करीब आने का मौका दिया। टीबी वार्ड में काम करते, गीता को गहरा इंफेक्शन हो गया। गीता अपनी बीमारी में भी उतनी ही सहज थी, मगर मैं बहुत असहज हो गया। गीता की निरंतर गिरती हालत में मुझे ईश्वर के न्याय में भी प्रह्लाद के प्रति पक्षधरता दिखाई देने लगी। मेरी अधीरता बढ़ती जा रही थी… गीता के जर्द होते चेहरे और क्षीण होती सांसो में….. मैं उसकी हार को स्पष्ट देख रहा था …. मैं गीता की पराजय को बर्दाश्त नहीं कर पाता और एक दिन उद्वेलित होकर.. मरणासन्न गीता की मांग में सिंदूर भर देता हूं….!!

अचानक अपनी हथेली में सिंदूर का प्रतिबिंब देखकर गीता चौक उठती है मगर, प्रतिवाद नहीं करती, कुछ नहीं कहती…. बस उसकी झुकी पलकों के किनारे चमकती ढुलकती आंसू की बूंद सब कुछ कह देती है….. मैं गीता के आंसुओं को जिंदगी भर के लिए सहेज लेता हूं……

ठीक उसी समय शायद ईश्वर भी अपना निर्णय बदल लेते हैं…. सिंदूर की सत्ता शंखनाद करती है…… सूखी नदी में संवेदनाएं करवट लेने लगी…..धीरे-धीरे गीता की स्त्री में पत्नी का प्रवेश होने लगता है…. और फिर गीता पूरी शक्ति से बीमारी के खिलाफ, एक पुरुष के पक्ष में लड़ने लगती है…… धीरे धीरे टूटती है जंग लगी हुई जंजीरें…… रेशम के सरसराते धागों में बंध जाती है कभी न खुलने वाली गांठे…. एक पथरीली नदी लहरों का वरण कर….. हहराकर बहने लगती है… कालिमा से घिर गया अस्तांचल फिर सूर्य की किरणों से रक्ताताभ हो उठा…. अचानक ही रानू के जोर-जोर से रोने की आवाज से आदित्य की तंद्रा टूटती है…ओह….!! वह हाथ में लपेटी गीता की साड़ी को वहीं छोड़ कर रानू को संभालने लगा। गहरी नींद से चौककर जागा रानू किसी तरह चुप होने के लिए तैयार नहीं था। न अपने पापा की गोदी…ना दूध की बोतल, ना कोई गीत की गुनगुनाहट….. उसे तो बस मां चाहिए थी केवल मां….!!

उसे चुप कराना आदित्य को टेढ़ी खीर लग रहा था. कैसे चुप कराऊ इसे !! आदित्य उसे गोद में लिए बाहर आंगन तक घुमा लाया, मगर रानू एक ही राग में रोए जा रहा था।

यकायक आदित्य के दिमाग में एक विचार कौंधा…..! उसने गीता की उतारी हुई साड़ी को तकिए पर लपेट कर अपने और रानू के बीच में ठीक उसी तरीके से लिटा दिया जैसे गीता रानू को खुद से चिपकाकर सुलाती थी.. रानू ने साड़ी में बसी मां की देह गंध को पहचाना और अपनी नन्ही मुट्ठियों से भींच लिया…. आतुर होंठ बड़ी व्यग्रता से बोतल से दूध पीने लगे….. धीरे-धीरे उसका चेहरा आश्वस्ती और सुरक्षा की गहरी छाया में ढंक गया ।

तकिये के इस पार साड़ी के दूसरे छोर को थामे आदित्य ‘देहगंध’ के इस जादू को मुग्ध भाव से देखता रहा…. रानू गहरी नींद सो गया। साड़ी के दूसरे छोर को चेहरे पर डाल कर आदित्य भी उसी देहगंध को अनुभव करने लगा जिसे रानू ने समझा…..उसे गीता के विशाल व्यक्तित्व में अपना अस्तित्व रानू की तरह लगने लगा…..!!

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’