भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
वो अक्तूबर का महिना था। सुबह और शाम के वक्त ठण्ड ने अपने पैर पसार लिये थे। लोगों ने अभी ठंड के कपड़े नहीं निकाले थे अपने-अपने बैडों से। जो महिलाएं गांव देहात से शहर में आयीं थी उन्होंने तो अपने देशी अंदाज से दोपहर की धूप में अपने-अपने बैडों में से गर्म कपड़े निकालकर धूप में डाल दिये थे। शहरों के लोग गर्म कपड़ों को ड्रैकलिन करवाना पसंद करते हैं लेकिन ये महिलाएं आज भी यह मानती हैं कि ड्रैकलिन व्रैकलिन से कुछ नहीं होता, सूरज की धूप तो लगनी ही चाहिए। इसलिए ऐसे घरों की छतों पर गर्म कपड़े दिखने लगे थे।
सुबह की सूरज की किरणें अच्छी लगती थी लच्छों को। अकसर गांव में भी वह धूप सेंकती दिख ही जाती थी छत पर। आज उसका मन किया कि अपनी छत पर जाकर सुहानी-सुहानी धूप सेंक ली जाये। वह छत पर चली गयी अपनी चटाई और कटोरी में सरसों का तेल लेकर। कम से कम अपने हाथ पैरों पर तेल की मालिस कर लेगी धूप में। उसने सोचा और छत पर जाकर अपनी चटाई पर बैठ गयी। थोड़ी देर बैठी रही पर मन ऊपर आकर अनमना-सा हो गया था। मां की याद हो आयी। वह जानती थी कि अगर अच्छे से दहाड़ मारकर नहीं रोयेगी तो सिर फट जायेगा उसका। अंदर अंदर जब जब आंसू टपके उसे शारीरिक कष्ट हुआ था। मां भी अकसर उसे चाचा को याद करते हुए मन मन में दुःखी होते देख कह दिया करती थी कि घुट-घुट कर मत रोआ कर, कोई बीमारी लग जाएगी। इसलिए उसने मन को वहां से हटाने की कोशिश की ओर धीरे-धीरे अपने पैरों की एंड़ी की मालिस करने लगी। उसके पैरों और घुटनों का दर्द बढ़ जाता है सर्दियों में। सारा बदन अकड़ जाता है ठंड में। बीमारी के वक्त के टीके, ड्रिप आदि सब दर्द करने लगते हैं उसके ठंड में। उसे लगता जैसे अभी भी उसकी बाजू पकड़कर सूईं से ब्लड निकाल रहा हो कोई। उसे वही दर्द महसूस हो रहा होता। उसने घुटनों से लेकर अपने पैरों के पंजों और ऐड़ी की सुहांदा सुहांदा सी मसाज की। अपनी एक बाजू से दूसरी बाजू की मालिश की। मालिश करके वह चटाई पर पसर गयी।
आंखें बंद कर ली थी उसने। आज मां का चेहरा बार-बार उसे याद आ रहा था। मां ने ही तो उसे चटाई खरीदवायी थी कि धूप के दिनों में छत पर ले जाने के काम आया करेगी। मैंने मां को कहा भी कि टाइम कहां मिलता है इतना कि मैं छत पर जाकर धूप सेंकू। मां ने हूं-हां कि जैसे उसकी बात से सहमति हो फिर भी कहा ले लो क्या पता कभी काम आ ही जाये। उसने मां के कहने से चटाई ले ली थी। ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया था उस वक्त उसका। मां के जाने के बाद आज वह पहली बार उस पर लेटी थी। समय उसकी आंखों से कितनी जल्दी गुजर गया था। देखते ही देखते एक साल बीत गया। पर जब मां उसे छोड़कर गयी थी, तो समय मानो ठहर-सा गया था। कितना समय लगा था उसे अपने आपको सम्भालने में और इस नियति को स्वीकार करने में भी कि मां उसे हमेशा के लिए छोड़कर जा चुकी। नहीं आयेगी अब दोबारा लौटकर।
वह दिन-रात इसी गम में घुटती रहती कि ‘मां को, जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तो उसके साथ नहीं थी वह’। अकसर ये घुटन वह सोशल मीडिया पर भी डालती। कुछ लोग इसे भावनात्मकता से देखते तो कुछ सलाह देते कि ये उसके व्यक्तित्व को सूट नहीं करता। अब रोना-धोना बहुत हुआ, काम पर लग जाना चाहिए। बहुत सारे उसके अपने नजदीकी मित्र भी उसे यही सलाह देते कि व्यवहारिक बनो, यहां पर कोई तुम्हारे आंसुओं को पोंछने वाला नहीं है। थोड़े दिनों बाद ही लोग व्यवहारिकता को पसंद करने लगते हैं। यहां तक कि अपने बच्चे और तुम्हारा पति भी उब जायेगा एक दिन तुम्हारे इस रोज-रोज के रोने-धोने से। उसे आश्चर्य भी होता कि उसे कोई क्यों नहीं समझता। उसकी मां दूसरों के लिए केवल एक बुजुर्ग महिला थीं पर उसके लिए, उसके लिए तो उसकी सारी दुनिया थी। अगर उसे यह पता होता कि एक दिन उसकी मां भी उसे चाचा की तरह छोड़कर चली जायेगी तो वह कभी उसे अकेले छोड़कर बाहर न जाती। वह फूट-फूटकर रोना चाहती थी, जितना वह रो सकती थी। पर इस सामाजिक और बड़प्पन की मर्यादा ने उसे खुलकर रोने भी नहीं दिया। उसने भी इसे स्वीकारा और अपने रोजमर्रा के कामों में अपने आपको और अपनी जिम्मेदारियों के बीच इतना घेर लिया कि उसे वक्त का खुद भी पता नहीं चला। वह बिना काम के एक क्षण नहीं खाली बैठती थी। झोंक दिया था उसने अपने आपको कामों में पूरी तरह से…
उसको सीढ़ियों से किसी के आने की आहट सुनाई दी। पर वह उठी नहीं और खोई रही अपनी यादों में। नीचे के फ्लैट वाली उसकी पड़ोसन थी। उसने नमस्ते भी किया पर वह अपने आप में ही इतनी गुम थी कि इतनी सी भी औपचारिकता
पूरी करने की जहमत नहीं उठाई कि नमस्ते का जवाब भी दे और ऐसे ही लेटी रही मानो कोई आया ही न हो।
मां बाबा ने प्यार से नाम तो लक्ष्मी रखा था उसका, दिवाली के तीन दिन पहले जो हुई थी। सबने कहा लक्ष्मी आ गयी घर में। उसकी दादी ने मन मसोस कर कह दिया- “हां हां जूठी छोरी के छोरे तै कम होवे है।” इसलिए इसका नाम लक्ष्मी रखा था। ले लिया था उसे अपनी बाहों में। पर लक्ष्मी से लछ्मी और कब लच्छो बनी इसका भी पता नहीं चला। सब उसे अब लच्छो-लच्छो बुलाते और वह भी तुरंत जवाब देती। कभी किसी के ऐसे पुकारने पर उसने विरोध भी नहीं किया था। जब बड़ी हुई तो उसे अपना नाम सबके मुंह से यही सुना।
पर एक दिन अपनी मां से उसने बोल ही दिया कि स्कूल में तो मेरा नाम लक्ष्मी है तो सब मुझे लच्छो लच्छो क्यों बुलाते हैं? मां गम्भीर हो गयी थी। टालना चाहती थी पर उसकी जिद्द के आगे उसे आज झुकना ही पड़ा। मां ने सोचा कि अब वह समझने भी लगी है। बच्ची नहीं रही थी वह। ऊँच-नीच के व्यवहार को अब जांचने लगी थी। मां ने बताया कि गांव में उनके परिवार के लोग नाम तो बहुत अच्छा रखते हैं। पर समय के साथ उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है और वह नाम कुछ का कुछ बन या बना दिया जाता है। कब लक्ष्मी से लच्छो, बलवीर से बकरी, कूडा, मींगण, काला धौला और भोला बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। खेतों में काम करने जाते हैं तो धीरे-धीरे जमींदार जिस भी नाम से पुकारना शुरू कर देता है वही नाम सब लेने लगते है। लच्छो को अचानक पता नहीं क्या सूझा कि उसने अपनी मां से पूछ ही लिया कि मां ये जमींदार अपने घर जब भी आता है तो सारी औरतों का नाम लेकर ही क्यों बुलाता है। मैंने कई बार उसे तुम्हारा नाम भी लेते हुए सुना है। ऐसा क्यों। मां चुप हो गयी थी। काम का बहाना बनाकर चल दी थी कि सुरां का टेम हो गया चाट देण का। या फालतू बात बाद मैं कर ल्याग्गें।
अचानक से उसका ध्यान अपनी लेटने से पेट से थोड़ा सा सरकी टीसर्ट की ओर गया। और एक दम से उसने अपनी टीसर्ट सरका कर पेट ढक लिया था। छटी इन्द्रियां शायद इसे ही कहा जाता होगा कि इतनी तल्लीनत से खोई होने के बावजूद भी वह फुरती से अपने शरीर को ढक सकी थी। उसे महसूस हुआ था कि जैसे छत की दिवार से कोई झांक रहा था। वह उठकर बैठ गयी थी। इधर-उधर नजर दौड़ाई तो कपड़े सुखाने की तार के पास ही कोई उसे मैक्सी में खड़ी दिखाई दी। वह उसी की ओर ताक रही थी। एक बार तो वह झेंप सी गयी थी कि शायद इसने उसका थोड़ा उघड़ा हुआ पेट देख लिया हो। फिर लगा कि देख भी लिया होगा तो क्या फर्क पड़ता है। है तो स्त्री ही। उसकी मां की उम्र की रही होगी। परंतु सजी संवरी थी। माथे पर लाल बड़ी बिंदी और मांग में सिंदूर जो सुहागन की निशानी थी।
बात की शुरूआत उसी ने की, अन्यथा तो उसका तो बात करने का मन ही नहीं था। वह तो अपने आपसे अकेले में बतियाने के लिए ही छत पर आयी थी। औपचारिकतावश उसे भी खड़ा होना पड़ा उसके पास। थोड़ी देर तो वह अनमने से उसकी बात सुनती रही परंतु जैसे ही उसने अपनी बहू के पंजाबी होने की बात कही तो उसे रुचिकर लगा था। क्योंकि उसने जिस तरह से नाक से लेकर दूर मांग तक सिंदूर भरा था उससे उसका बिहारी होने का सबूत मिला था परंतु बहु पंजाबी है तो उसे थोड़ी उत्सुकता हुई जानने की। मेरे बेटे ने अन्तर्जातीय विवाह किये हैं। एक पंजाबी ले आया तो दूसरा बंगालन। थोड़ी देर बड़बड़ करती रही फिर अपने आपको मानो तसल्ली देते हुए कहने लगी कि बहु दिन रात बीमार बेटे की सेवा कर रही है, मेरी जात की होती तो अब तक तो छोड़कर भाग चुकी होती। मुझे खुशी हुई कि चलो इसने बहू को अपना तो माना चाहे इसी बहाने सही अन्यथा तो प्रेम विवाह अगर अपनी जाति में ही हो तो भी ससुराल वाले उसे जिन्दगी भर नहीं अपनाते खासकर तब कि बहू गूंगी बहरी न हो। वह बताती जा रही थी कि कैसे-कैसे रिश्तेदारों ने शुरू में विरोध किया फिर धीरे-धीरे अपना भी लिया। सबसे ज्यादा विरोध उसकी अपनी मां ने किया था। वह थोड़ा भावुक और गौरवान्वित होकर बता रही थी कि मैंने भी बोल दिया- “कौन सा चूहड़े, चमारों की उठाकर लाया है”। ये शब्द ऐसे सुनाई दिये, जैसे कुएं से किसी ने आवाज लगायी हो। आवाक रह गयी लच्छो।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
