lakha pir
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

किसी तपस्वी जोगी जैसे घटादार बरगद की छाया में आज वडवाई की तरह अपनी जटाएं फैला कर कोई जोगंदर बैठे थे। खीमाणा के लोग कुछ कुतूहल से जोगींद्र को देखकर फिर आगे बढ़ जाते थे। किसी ने गांव में जाकर बात की- “लगधीर भा! देवण वट के नीचे कोई जोगी बैठे हैं।” लखधीर सोंढो और हाजो दोनों भाई बडे परोपकारी जीव थे। सत के व्यापारी और धर्म के अवतार! अमथरी तालाब के पास दोनों का ननिहाल जोगीराज के बारे में समाचार मिलते ही दोनों उनके दर्शन करने चल पड़े। जोगीराज न तो बोलते थे, न ही बात करते थे। दोनों भाइयों ने जोगीराज को भोजन का न्योता दिया। फिर भी जोगी चुप ही रहे। बहुत विनती करने के बाद मस्तक थोडा-सा हिला दिया। दोनों भाई खश हो गये। और जोगीराज के लिए जल्द ही खाना लेने घर की ओर चल पड़े। जोगीराज के लिए बाजरे की पेंस बनाई और मटकी में भरकर चले बरगद की ओर। जोगीराज को भाव से खिलाया। जोगीराज ने पेट भर कर घुस खाई। और फिर पहली बार लखधीर और हाजा को ध्यान से देख लिया। और फिर जिसमें खाया था उस छालिये में हो-हो कर वमन किया। हाजा और लखधीर दोनों सोच में पड़ गये। जोगी राज का बरताव उनकी समझ में नहीं आया। छालिया उल्टी से आधा भर गया था। थोड़ी देर के लिए तो दोनों भाइयों को ऐसा लगा कि किसी पागल आदमी को महाजोगी मान कर हम फंस ही गये है। लेकिन यह क्या? उल्टी के गंदवाड में से मगज को तरबतर कर देनेवाली खुशबू निकलती थी। मानो जोगंदर के पेट में से खुशबूदार इत्र उनकी आंते में से न निकला हो! तीनों की छः आंखें छालिये को ताक रही थी। अंत में पहली बार मौन तोड़ते हुए जोगींद्र ने कहा- “हाजा! ले यह प्रसाद पी ले!” लखधीर और हाजा दोनों स्तम्भित से खड़े रह गए। जोगींदर को हाजा के नाम की खबर किस तरह पडी?

  • “यह… प्रसाद?” हाजा उल्टी से भरे वह छालिये को देखता रहा। जोगींदर तो आदेश कर रहे थे। “पी ले! लेकिन भीतर कुछ विरोध-सा रहा। उल्टी कैसे पी जाती है भला? यह गंदगी मुंह लगाते ही प्राण छूट जाए। हाजा को उल्टी पीने के नाम से ही घबराहट होने लगी। उसने दो हाथ जोड कर ही जोगींदर से कह दिया- “बापू! मेरा तो यह उल्टी देख कर ही सिर घूम रहा है।”

जोगींदर बरसों पुराने बरगद को हिला दे, ऐसा विचित्र हास्य करने लगे। फिर बोले- “हाजा! तेरा मनखा अभी जगा नहीं। तू नहीं पी सकेगा। लखधीर का आतमराम जाग उठा है। वह पी सकेगा।” और हुक्म होते ही लगधीर सोंढा ने जरा भी सोचे बिना ही वह छालिया हाथ में लिया और जरा भी संकोच किए बिना ही पी गया। हाजा लखधीर की हिम्मत को देखता ही रह गया। जोगीराज का उच्छिष्ट मिलने से लखधीर सोढा को मानो अमृत मिला उसकी जीभ का हरेक तंतु झूम उठा। जोगीराज की प्रसादी लखधीर के शरीर में प्रवेश करते ही उसके नौ दरवाजे स्वयं ही खुल गये। मन के अंधेरे उजाले में बदल गये। अज्ञान की सारी पर्ते खुल गई। एकाध पल के लिए लखधीर दुनिया में से गुम हो गया। कोई गहरी समाधि में से वह बाहर निकला। अब उसकी आंखे प्रबुद्ध-सी हो गई। लखधीर सोढा की अधूरी भक्ति जाग उठी।

  • “क्यों… कैसा है?” गुरु ने हंसते हुए पूछा।
  • “गुरु महाराज! मै माया में फंस गया था। आप का भला हो कि मुझे बाहर निकाला।” लखधीर ने हंसते हुए गुरु से कहा। जोगंदर ने आंखें मूंद ली और फिर समाधि में उतर गये। लखधीर ने सारी रात अनमनेपन में बिताई। सुबह उठकर लखधीर दौडा। गुरु महाराज को अपने घर निमंत्रित करने। लेकिन गुरु तो अब बरगद से मानो अदृश्य ही हो गये थे। लखधीर सोढा गायों के लिए बलिदान हो गया तब तक कभी उसे अपने गुरु के दर्शन फिर से नहीं हुए। लेकिन अब वह दैवी पुरुष तो बन ही चुका था। भक्ति के गहरे प्रवाह में उतर चुका था और उसके माध्यम से कोई न कोई चमत्कार होने लगे थे।

खीमाणा से दक्षिण दिशा में अलासर तालाब के पास छः एकड़ का एक खेत था। बड़े-बड़े सांड छिप जाये, ऐसा बाजरा का मोल वहां लहरा रहा था। लखधीर कुछ रोज्मदार मजदूरों से फसल कटवा रहा था। उस वक्त उसकी बहन भाण बाई खाना लेकर आ गई। भाण बाई भाई को खेती में मदद करने के लिए कुछ दिनों से आई थी। उसकी काख में बच्चा था। पेड़ की डाल से अपनी चुनरी बांध कर उसने अपने बच्चे के लिए पालना तैयार किया। जिसमें अपने आठ महीने के बच्चे को सुला कर सभी लोगों को भली-भांति खिला कर वह भी फसल की कटाई के काम में लगी। ठीक उसी वक्त पेड़ की डाली पर एक काला सांप उतरा। इतना ही नहीं सीधा ही डाल पर से बच्चे के पालने में ही उतर आया। और बच्चे को डंक दे ही दिया। दो-तीन मिनट छटपटा कर बच्चे ने अपने प्राण त्याग दिए। लेकिन नागराज खुद पालने में फंस गये! एकाध घण्टे के बाद बच्चे को दूध पिलाने के लिए भाण बाई पालने के पास आई तो उसके मुंह से मारे भय के चीख निकल गई। आवाज से घबराया हुआ सांप भागने की कोशिश करने लगा। और पालने से बाहर निकल कर डाली पर चढने लगा लेकिन फिसल कर नीचे ही गिर गया। और फिर झाड़ी में अदृश्य हो गया।

भाण बाई की चीख सुनकर मजदूर लोग दौड़ कर आ गये। भाण बाई ने दौड कर पालने में से बच्चे को उठा लिया और देखने लगी। बच्चे का शरीर नीला-काच जैसा हो गया था। उसके हरेक रोम में विष फैल गया था। शरीर एकदम से ठंडा पड गया था। भाण बाई की सांस फूल गई। उसने बच्चे की रग देखी। सच में बच्चा मर चुका था। इसके साथ ही भाण बाई के मुंह से एक दर्दभरी चीख उठी और वह जहां खडी थी, वहीं पर ढेर हो गई। लखधीर सोंढा दौड़ता हुआ आ पहुंचा। अपनी बहन और भांजे की हालत देख कर उसकी आत्मा भी कराह उठी। लोग कहेंगे कि भाई के घर काम करने गई और भांजे के प्राण गंवाये।

ईंड में से रतन निकले

चांच, पंख चतुराई!

और भजन के शब्दों के साथ ही भांजे के मृत शरीर में चेतना का संचार होने लगा। अचेतन क्लेवर की नसें जागने लगी और देह हिल उठी। प्राण का संचार हुआ। भांजे ने आंखें खोली और एकदम से रोने लगा।

  • “बहन! भांजा रो रहा है! उसे शांत करो!” भाण बाई आघात की वजह से मूढ बन गई थी। लखधीर सोढा ने उसे पानी छिटक कर जगाया। आंखें खोलते ही लखधीर ने उसके हाथों में रोते हुए भांजे को रखा। आश्चर्य और आनंद से भाण बाई ने अपने पुत्र को गले लगाया।

इसके बाद तो लखधीर के चमत्कार की बातें दूर-दूर तक फैली। लोग उन्हें संत मानते थे। एक बार लखधीर ने वेंजीया तालाब के पास दश महात्माओं को भोजन का न्योता दिया। रसोई हो गई। अतिथि भोजन के लिए तो आये परंतु दस की बजाय पचास रसोइये घबरा गये और लखधीर के पास पहुंचे। लखधीर सोढा ने हंसते हुए कहा- “मै कढाई पर कपड़ा ढक देता हूं! तुम लोग बिना चिंता किए मेहमानों को परोसो।”

वह छोटी-सी कढाई मानो अक्षयपात्र बन गई। पूरे पचास लोग खाना खाकर उठे फिर भी अंदर घी का शीरा वैसे का वैसा भरा पड़ा था।

लखधीर भा दानशील भी थे। वीर भी थे। संत भी थे। उनके आंगन से कोई खाली हाथ नहीं जाता था। उत्तरावस्था में उनकी वीर मृत्यु के बाद भी उनके चमत्कार चलते रहे। आज भी वे लाखा पीर के नाम से जाने जाते हैं।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’