प्र. जब भी आप ओशो शब्द सुनते हैं तो आपके जहन में क्या तस्वीर उभरती है या फिर यूं कहूं कि आपके नजर में ओशो कौन हैं? एक सम्बुद्ध रहस्यदर्शी सद्गुरु, कुशल वक्ता, महाचेतना या फिर महान तार्किक व दार्शनिक या कुछ और?
उ. ओशो शब्द सुनकर मेरे जहन या मस्तिष्क में कोई तस्वीर नहीं उभरती बस एक धन्यवाद का थेंकफुलनेस का भाव जगता है और मेरा सर झुक जाता है अज्ञात के असीम के आगे जो सर्वत्र है सदैव है! बहुत सुंदर और प्यारा नाम है इससे किसी हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई होने की या किसी देश का नागरिक होने की भनक नहीं मिलती यह नाम होते हुए भी अनाम जैसा है।
मेरी दृष्टि में ओशो चैतन्य के परम शिखर हैं जिन्होंने मनुष्यों में सोई हुई चेतना को जगाने के लिए तर्क की कुशलता के साथ-साथ पूरब और पश्चिम की बहुत सी विधाओं का सफलता पूर्वक उपयोग किया है! ओशो को कुशल वक्ता, तार्किक, रहस्यदर्शी या किसी और ढंग से संबोधित करना प्रत्येक व्यक्ति का अपना दृष्टिकोण है! मैं उन्हें सद्गुरु या प्रबुद्ध कहना पसंद करूंगा! अगर पांच दस वर्ष और ओशो शरीर में रहते तो शायद दो चार और भी नये नाम उन्होंने बदल लिए होते, क्योंकि शून्यता की या आकाश की कोई सीमा नहीं वह सदैव वर्तमान ही है, उसे अतीत या भविष्य का कोई बोध नहीं है उसमें जो लीन हो गया, उस अनाम के लिये हम कोई भी नाम दें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वहां शब्दों की पहुंच नहीं है वहां विचार की कोई गति नहीं बस एक सतत सनसनाहट गुंजायमान है, जिसे जागकर बोध पूर्वक मौन होकर हम कहीं भी और कभी भी सुन सकते हैं महसूस कर सकते हैं! उसी में लीन हो सकते हैं क्योंकि वही शाश्वत है, सनातन है, नित, नूतन है! ओशो मेरे लिए कोई शब्द या किसी व्यक्ति का नाम नहीं, बस यही शाश्वतता है।
ओशो सर्वांग सुन्दर ही नहीं ऐश्वर्यवान व्यक्तित्व के स्वामी हैं। उनका शरीर ही नहीं उनकी हर एक मुद्रा में होश की बोधपूर्ण लयबद्धता की झलक साफ-साफ दिखाई देती है। ओशो को देखकर पहली बार मुझे कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर जैसे पौराणिक हो गए सद्गुरुओं पर यकीन आया, नहीं तो मैं कभी इस गुणात्मक भेद का अनुमान ही नहीं लगा सकता था। ओशो से पहले और उनके शरीर से विदा होने के बाद भी मैंने कई देशों के लाखों लोगों को देखा है, लेकिन ऐसा सौन्दर्य, ऐसा ऐश्वर्य मैंने दोबारा नहीं देखा। वे ऊर्जा से लबालब छलकते हुए शक्ति पुंज की तरह हैं! एक चुम्बकीय आकर्षण कि जो भी उनकी तरफ देखे वही उनके पास खिंचा चला आये।
ओशो एक रहस्य हैं, जिन्हें समझते-समझते मुझे अपनी समझ गंवानी पड़ी है। जिसे मैं अपनी समझ समझता था वह तो कचरा साबित हुई, वह औरों के द्वारा मुझमें प्रोग्रामिंग की गई थी, वह मेरा अपना चुनाव नहीं थी। ओशो को सुनते-सुनते यह बात बिलकुल साफ हो गई और साथ ही साथ मैं उनके प्रेम में पगला गया।
प्र. ओशो का आदर्श कम्यून कैसा होना चाहिए? आपके समय से लेकर आज तक, आप ओशो कम्यून में क्या परिवर्तन पाते हैं?
उ. यूं तो जिसे ओशो की बात समझ में आ गई हो उसके लिए कोई आदर्श नहीं हो सकता न कोई ओशो का कम्यून, न कोई देश, न कोई तथाकथित धर्म या मजहब वह किसी भी तरह की कैद पसंद नहीं करेगा। पिंजरा सोने का हो उसमें हीरे जवाहरात जड़े हों वहां रहने खाने-पीने की सब सुविधाएं हों, चाहे पिंजरा एक मील का हो या दस हजार मील का हो कैद तो कैद होती है, जेलखाने के बड़े हो जाने से हमें भले ही यह प्रतीति हो कि हम स्वतंत्र हैं वह केवल गलतफहमी ही होगी।
जो संन्यासी ओशो के शरीर में रहते हुए पुणे के कम्यून में रहे हैं उन्हें तो आज की व्यवस्था पसंद नहीं आयेगी! और उनमें से बहुत कम होंगे जो वहां जाते हैं! बुद्ध पुरुष की उपस्थिति उसकी मौजूदगी का कोई परीपूरक या सब्सिट्यूट नहीं होता यह असंभव है। कितनी भी सुंदर जगह कोई बना ले वह बात ही नहीं बनती। नये लोगों को तो इसका पता नहीं चल सकता इसलिए कोई तुलना का उपाय नहीं है। उनके पास इसलिए शहर की भागदौड़ और टेंशन से निकल कर कुछ समय ध्यान सीखने के लिए कहीं शांत और व्यवस्थित एकांत जगह पर जाना अच्छी बात है। अब बस एक क्लब है। एक संस्था है। सबकी अपनी-अपनी पसंद है! लेकिन भविष्य में निश्चित ही ओशो का सपना साकार होगा इससे कहीं बेहतर कम्यून पूरी दुनिया में बनेंगे और अभी भी कुछ बन चुके हैं जब कोई कॉपीराइट करने वाले दावेदार नहीं होंगे तो बहुत सुगमता से नये लोग पुरानी गलतियों से सबक हासिल कर के कुछ नया निर्माण करेंगे और यह सिलसिला हजारों साल तक चलता रहेगा।
अब वह आश्रम नहीं केवल एक संस्था है यह बात सौ प्रतिशत सच है कि अब पुणे के आश्रम में शिष्यों प्रेमियों और संन्यासियों की जगह सिऌर्फ क्लर्क बैठे हुए हैं जो अपनी ड्युटी निभाते हैं, जिनके हृदय में न ओशो के प्रति कोई प्रेम भाव है और न हमारे हृदय में उन्हें वहां देख कर कोई उमंग उठती है वो वहां नौकरी करते हैं और हम उनके लिए ग्राहक हैं। इसलिए उनके चेहरों पर वह ध्यान और प्रेम की आभा नहीं दिखाई देगी। आप उस जमाने की पुरानी तस्वीरें देख कर यह समझ सकेंगे। यह केवल एक औपचारिक संस्थागत नियम ही ने वहां की उत्सवपूर्ण ऊर्जा को नष्ट कर दिया है। अब पुराने संन्यासी मित्रों को वहां जाना अच्छा नहीं लगता है। लंदन के ही मेरे एक कवि मित्र चमनलाल चमन कुछ वर्षों पहले पुणे के रिजोर्ट में अपनी पत्नी के साथ तीन सप्ताह के लिए गये थे, उससे पहले भी जब ओशो अमेरिका से लौटे तब भी वहां उनका जाना हुआ था तो उनकी पत्नी के बारे में बताते हुए वे बोले कि ‘हम कहीं भी जाते हैं तो मेरी पत्नी उस शहर में शापिंग करने जरूर जाया करती है पर जब हम पुणे के आश्रम में पहली बार गये थे तब वह दिन भर आश्रम में ही खोई रहती और कभी बाहर जाने या शापिंग करने की बात भी नहीं करती थी और इस बार जब हम वहां गये तो तीसरे दिन ही हमें वहां रिजोर्ट के भीतर अजीब सा लगने लगा और हम वहां से सीधे देहरादून के आश्रम में आ गये अब पहले जैसी वहां कोई बात ही नहीं है। ऐसा ही बहुत से पुराने मित्रों का कहना है।’
कॉपीराइट के कारण और ओशो के प्रवचनों और पुस्तकों को एडिट कर के काट-छांट करने की वजह से पुणे रिजोर्ट वालों ने जो काम खराब किया है वह तो जग जाहिर है। ओशो ने अनेक बार कहा है कि ‘मेरे कहे गये शब्दों को वैसे ही प्रकाशित करना है जैसा मैंने बोला है, उनमें किसी तरह की काट छांट नहीं करना है।’
प्र. पुणे आश्रम में ओशो की समाधि को लेकर भी बहुत विवाद रहा है उस पर आपका क्या कहना है?
उ. पुणे आश्रम के भीतर समाधि बनाने के कुछ जो महत्त्वपूर्ण कारण हो सकते हैं उन पर कुछ बातें हमें समझ लेनी चाहिए ओशो की समाधि बनने से पहले आश्रम के ‘लाओत्सु गार्डनÓ में स्वामी विमल कीर्ति जो जर्मनी में हनोवर के राजकुमार थे उनकी समाधि बनाई गई थी, उसके बाद मुंबई की मा सीता और स्वामी आनंद मैत्रेय की समाधि भी उसी गार्डन में बनाई गई है। इसके अलावा जीसस हाउस के गार्डन में ओशो के पिताजी ‘स्वामी देवतीर्थ भारती’ और ओशो की माताजी ‘मा अमृत सरस्वती’ की समाधि भी है। इन सभी संन्यासियों की समाधि ओशो ने बरसों पहले ही आश्रम के बगीचे में बनवा दी थी। इसके पीछे केवल भावात्मक या इन संन्यासियों से जो लोग जुड़े हैं उनके प्रति प्रेम भाव प्रकट करने का या उनको याद रखने का ही कारण नहीं है, भारत में तो सदियों से ‘साधु-महात्माओं, पीरों फकीरों की बहुत सी मशहूर समाधियों’ और मजारों पर हर वर्ष मेले लगते रहते हैं हजारों लोग वहां मन्नत मांगने और फूल चढ़ाने जाते रहते हैं इसके पीछे लोगों की धार्मिक भावनाएं और परम्परागत धार्मिक श्रद्धा या अंधविश्वास भी हो सकता है इसके अलावा एक और भी महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि भारतीय कानून के तहत जहां भी किसी संन्यासी, साधु संत,महात्मा की या किसी सिद्ध, बुद्ध पुरुष की समाधि होगी उसकी समाधि पर या उस जगह पर उस साधू संन्यासी या बुद्ध पुरुष के दर्शन करने के लिए वहां जाकर ऌफूल चढ़ाने के लिए या मौन बैठने, ध्यान साधना करने के लिए जो भी लोग आते हैं उन्हें आप रोक नहीं सकते और उनसे किसी तरह की फीस या दर्शन करने के लिए टिकट लगा कर रुपये पैसे भी नहीं ले सकते हैं, इसलिए ऐसी जगहों पर दान देने वालों के लिए वहां रुपये पैसे चढ़ाने के लिए पेटियां या दानपत्र रखे होते हैं, जिन पर ताला लगा होता है और लोगों की अपनी मर्जी है, वे एक रुपया डालें या हजारों रुपये उस पेटी में डालें या कुछ भी नहीं डालें लेकिन वहां सभी प्रेमियों को आने की बेशर्त अनुमति होती है। दूसरी बात यह है कि उस जमीन को कोई किसी को कानूनी रूप से बेच नहीं सकता। अक्सर तो ऐसी जगह की देख भाल ट्रस्टियों द्वारा होती है वे ही वहां की साफ-सफाई का खयाल रखते हैं वह किसी एक व्यक्ति की या किसी कंपनी की निजी प्रापर्टी नहीं हो सकती है। अब तो आश्रम के तथाकथित उत्तराधिकारी कहते हैं कि ‘वहां कभी कोई समाधि थी ही नहीं।’
ओशो की समाधि जब पहली बार बनाई गई थी जिसमें उनके अस्थियों का कलश रखा गया था। बाद में ओशो की पहले वाली समाधि को उखाड़ कर उनकी अस्थियों का कलश निकाल कर नई समाधि बनाई गई थी।
तीसरी बार, अब जो समाधि बनाई गई है, वह इन दोनों से अलग है जिसमें ओशो की सफेद रंग की छोटी सी मूर्ति साइड में ऊपर की तरफ शीशे के पास रखी गई है।
अब वहां से ओशो की अस्थियों वाला कलश इन्होंने निकाल दिया है! और वह संगमरमर की शिला जो उसके ऊपर लगी थी उसे भी गायब कर दिया है!
20 जनवरी 1990 को दूसरे दिन जब समाधि में ओशो के छोटे भाई स्वामी विजय भारती ने अस्थियों का कलश समाधि के भीतर रखा था तो वहां हजारों लोग मौजूद थे, उत्सव मनाया गया था, उसकी वीडियो और फोटो भी किसी के पास जरूर होगी! लेकिन अब ये ट्रस्टी कहते हैं कि वहां कोई समाधि कभी नहीं थी!
भारतीय कानून के अंतर्गत किसी भी संत पीर फकीर या बुद्ध पुरुष की समाधि पर दर्शन करने वालों से कोई फीस टिकट लगा कर नहीं ली जा सकती है और वहां किसी को भी आने से रोका नहीं जा सकता है तथा उस ऌप्रॉपर्टी को बेचा भी नहीं जा सकता है।
प्र. ओशो की मृत्यु को लेकर भी एक विवाद है, वो यह कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। क्या आप इस मत से सहमत हैं?
उ. हां कोई न कोई तो जिम्मेदार होगा ही क्योंकि वर्ल्ड टूर में और उसके बाद मुंबई में भी ओशो बिलकुल स्वस्थ रहे हैं। यह सब पुणे आने के बाद ही हुआ है। ओशो की अचानक मृत्यु से जुड़ी और भी कई बातें हैं जिन पर खोज होनी चाहिए। जैसे ओशो के मुंह के सारे दांतों को एक साथ निकालने की घटना है एक जीवित व्यक्ति के सभी दांत निकालने का क्या तुक है? पहले तो उन निकाले गये दांतों का परिक्षण होना जरूरी है, मृत्यु तो इसके बाद की घटना है। और उन दिनों ओशो का भोजन कौन बनाता था यह भी जानना जरूरी है।
प्र. कहते हैं, ‘प्रेम और जंग में सब जायज है।’ फिल्म ‘वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री’ में शीला अपने गुनाहों पर पर्दा डालते हुए कहती है, ‘उसने जो कुछ भी किया वह अपने गुरु, ओशो व उनके कम्यून को बचाने के लिए किया।’ आप इस दलील से कितने सहमत हैं?
उ. हां यह दास्तान भी प्रेम की है लेकिन इसने फिर निजी स्वार्थ के कारण जंग की शक्ल इख्तियार कर ली थी। और जिस प्रेम में हिंसा हो तो उसे प्रेम कैसे कहें? और जंग में तो हिंसा ही हिंसा है। जंग करने वाले लोगों को मनुष्य नहीं जंगली, आदिम या असभ्य ही कहना चाहिए, चाहे वह कितनी ही प्रेम या धर्म की बातें करते हों वे सब अभी भी अविकसित मनुष्यों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए जंग किसी भी सूरत में जायज नहीं है। और प्रेम के साथ जंग को जोड़ कर हम जंग को भी महिमा मंडित करने का प्रयास कर रहे हैं यह पागलपन है हमने दबी हुई पाशविक वृतियों को प्रेम जैसे विधायक शब्द से जोड़ कर हिंसा को छिपाने की कोशिश हैं।
अगर अब शीला कहती है कि उसने सब कुछ ओशो के कहने पर ही किया है, उसने कोई अपराध ही नहीं किया तो फिर शीला और उसकी टीम को इस तरह चुपचाप रजनीशपुरम छोड़ कर भागने की जरूरत क्यों पड़ी? निश्चित ही वह जानती थी कि वह गलत है। रजनीशपुरम लुट जाने के बाद भी ओशो पांच वर्ष से अधिक शरीर में रहे और उन्होंने प्रवचन में साफ-साफ यह कहा भी है, कि ‘शीला मेरे सामने यहां आकर बात करे’ शीला व उसके समूह के पास समय काफी था पर तब उन्होंने सफाई नहीं दी।
रजनीशपुरम के बाद, जब ओशो कुछ समय के लिए कहीं गायब रहे, एक महीने के लिए उस समय शीला जर्मनी और स्विट्जरलैंड के ब्लेक फोरेस्ट में थी और उसने कहा था कि ‘भगवान इज नो मोर अवैलेबल बट आई एम स्टिल योर मम्मा’ इस तरह की बातें संन्यासियों को फिर से प्रभावित करने के इरादे से ही कही गई हैं। मैं उस समय जर्मनी में ही कुछ तीस पैंतीस संन्यासियों के साथ एक कम्युनिटी में रहता था और रजनीशपुरम में होने वाले ओशो के सभी प्रवचन तथा गतिविधियों की जानकारी वहां आने जाने वाले संन्यासियों से तथा रजनीश टाइम्स से मिलती रहती थी हम सभी मिलकर वीडियो देखा करते थे। खैर जब शीला जर्मनी के बाजार में कपड़े खरीदने गई और किसी दुकान में वह कपड़ों को देख रही थी तो बोली कि ‘यह तो बहुत महंगे हैं और मेरे पास इतने रुपये नहीं है कि मैं इन्हें खरीद सकूं।’ इसे वहां की मीडिया ने उस समय न्यूज चैनल में दिखाया था और फिर महीने भर के बाद ही जर्मनी की पत्रिकाओं में फोटो छपी थी, जिसमें एक बंगले के बाहर पांच-छह: महंगी कारें खड़ी हुई दिखाई गई और समाचार यह थे कि शीला वहां पर एक कसीनो खोलने जा रही है। उसके बाद ही शायद उसे गिरफ्तार कर के अमेरिका की जेल में सजा दी गई थी।
सच तो यह है कि शीला व उसके साथ काम करने वाली टीम थी और उसके अलावा भी बहुत से लोग जो किसी पद पर थे उनमें से अधिक बॉसी किस्म के लोग थे। इनका व्यवहार दूसरे प्रेम भाव से काम करने वाले संन्यासियों के प्रति नौकर की तरह होता था। मैं तो इन जैसे लोगों को मानसिक रूप से बीमार ही समझता हूं जो आपसे मित्र या एक संन्यासी या ओशो प्रेमी की तरह नहीं मिलते और किसी भी तरह आपको सताने में इन्हें मजा आता है। ये सब इनफियरिरिटी कोम्पलेक्स से, हीनता की ग्रन्थी से पीड़ित लोग थे, जो ओशो के बहाने किसी पद की, कुर्सी की, तलाश में थे, ताकि ये ताकतवर हैं ऐसा साबित कर सकें।
प्र. आप की नजर में ओशो को जन-जन तक कैसे पहुंचाया जा सकता है?
उ. अब तो इंटरनेट के जैसी बहुत सुविधापूर्ण टेक्नोलॉजी उपलब्ध है। ओशो हमेशा नई-नई टेक्नोलॉजी के पक्ष में रहे हैं, फिर भी जब तक यह सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी ओशो ने गांव-गांव, शहर-शहर घूम कर कई बरसों तक लोगों से व्यक्तिगत रूप से संपर्क स्थापित किये। ओशो ने लाखों की भीड़ में अपने शिष्यों तक बात पहुंचाने के लिए अथक श्रम किया है लेकिन अब तो बहुत आसान हो रही है यह बात। जिनमें जितनी सामर्थ्य हो अपनी क्षमता के अनुसार उसे जो ओशो से मिला है, वो उसे दूसरों से साझा करना चाहिए और किसी से कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सभी लोग ओशो को समझ सकेंगे यह नामुमकिन है।
अगर वह बेईमान और कायर या कट्टरपंथी किस्म का व्यक्ति हुआ तो ओशो की बातें सुनकर वह भयभीत होगा, डर जायेगा इतनी सीधी साफ सच्ची बातें वह नहीं समझ सकेगा तो वह यह नहीं कहेगा कि ये बातें मुझे समझ में नहीं आती। वह कहेगा ओशो अधार्मिक हैं यह तो हमारे धर्म को नहीं मानते हमारे आदर्शों के खिलाफ हैं। अगर वह हिम्मत वाला और ईमानदार व्यक्ति है तो ओशो की बात से सहमत होकर सच्चाई क्या है उसे जानने में उत्सुक हो जाता है इसलिए वह और भी ओशो को सुनना या पढ़ना चाहता है।
ओशो किसी को ईसाई मिशनरी की तरह नहीं बनाना चाहते हैं कि बाइबिल लेके तुम किसी के पीछे पड़ जाओ या मुसलमानों की तरह तलवार के बल पर उसका धर्म रूपांतरण करो क्योंकि यह पुण्य का काम है और बदले में तुम्हें जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगी ऐसी मूढ़ताएं किसी को नहीं करनी है। कोई पूछे तो ही बात करें। नहीं तो अपने ध्यान में अपनी मस्ती से जिएं।
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