परिवर्तन का दर्पण

हमारी भारतीय संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वधर्म सम्भाव की प्रतीक है। अनेकता में एकता के सूत्र में बंधी ऐसी सांस्कृतिक विरासत विश्व में अन्यत्र दुर्लभ है। गौरवशाली सनातनी परंपरा इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में हजारों आक्रमणों से भी पराजित नहीं होने पाई बल्कि निरंतर और समृद्ध ही हुई है। हमारी विशिष्टता है कि यहां जो भी आया, यहीं रचबस गया। एक-दूसरे के प्रति सम्मान और सहिष्णुता का यही भाव हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग है। इसी संदर्भ में बचपन में पढ़ी वो कहानी याद आती है- एक मास्टर साहब की पतलून की लंबाई ज्यादा हो गई तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि पतलून को कुछ छोटा कर दे। पत्नी चूल्हे-चौके में अतिव्यस्त थी सो झल्ला उठीं- ‘ऊंह, रख दो अभी तो मुझे मरने तक की फुरसत नहीं। सयानी होती पुत्री से गुहार लगाई तो बेटी कालेज जाने की जल्दी में थी। पुत्रवधू अपने नन्हे बालक में व्यस्त थी। बाद में घर में पत्नी, पुत्री, बहू तीनों की ही क्रियाशीलता का परिणाम यह रहा कि मास्टर जी की पतलून हाफ पैंट बन कर रह गई। बचपन में यह कहानी बड़ी रोचक लगती थी किंतु पारिवारिक सामंजस्य का सर्वथा अभाव अब समझ में आता है।
हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम का राग अलापते रहें लेकिन आज की सामाजिक स्थिति का कड़वा सच यही है कि विश्व को अपना परिवार मानने वाले हमारे भारतीय समाज में संयुक्त परिवार धीरे-धीरे लुह्रश्वत होते जा रहे हैं। एकल परिवारों में भी उलाहना व उपालंभ जगह लेते जा रहे हैं। स्त्री परिवार की धुरी है किंतु कड़वा सत्य यह भी है कि पुरुष स्त्री के सिर्फ ‘प्रतिभा स्वरूप की ही पूजा कर सकते हैं, उन्हें सजीव संवेदनशील स्त्री की बजाय पत्थर की मूरत में देवी दिखाई देती है जो पुरुष की इच्छा के विरुद्ध अपने स्थान से हिल भी न सके, जिसकी अपनी कोई इच्छा, कोई महत्वाकांक्षा न हो और जिसके आगे पुरुष अधिकारपूर्वक अपनी हर इच्छा मनवा सके। इससे भी अधिक कष्टप्रद यह है कि आज घर में रहने वाले सदस्य रसोई के बर्तनों की तरह होते जा रहे हैं जो बिना टकराए अपनी उपस्थिति का अहसास नहीं करा पाते। विवादों को हवा देने में पुरुष ही नहीं वरन स्त्रियां ‘हम भी किसी से कम नहीं की भूमिका में नजर आती हैं। लाखों में एक चुनी दुल्हन बहू बनते ही आंख की किरकिरी बन जाती है। फ्रिज में आने वाले सामान से लेकर खाने के मेन्यू तक में हर संभव दखल अंदाजी कर अपना-अपना अधिकार जताना ही सास-बहू का प्रमुख काम हो जाता है। बात बहू के बने खाने की हो तो सास स्कूल की हेडमास्टरनी से भी ज्यादा सख्त हो जाती है। कहने को तो बात बहुत ही छोटी सी है लेकिन पढ़ी-लिखी बहुओं को सास का यह व्यवहार रास नहीं आता और वे भी तुनकमिजाजी से तिल का ताड़ बना देती हैं, फलस्वरूप छोटी सी तकरार बड़े विवाद को जन्म दे देती है।
इस समस्या का बेहद सरल समाधान भी है कि एक पक्ष समझदारी दिखाते हुए शांत रह जाए बस, फिर चाहे वे पति-पत्नी हों या फिर सास-बहू या जिठानी-देवरानी। इन्हीं छोटी-छोटी बातों से शुरू होती है तू-तू मैं-मैं। दरअसल बहू के घर आ जाने से सास के अंदर विचित्र सी असुरक्षा की भावना जन्म लेने लगती है, बहू नई है तो सास भी तो अभी ही सास बनी है क्योंकि अभी तक तो घर में एकछत्र उसी का राज्य चलता था। वही थी इस साम्राज्य की एकमात्र रानी पर अब नई बहू को ही सब पूछेंगे। उधर बहू के मन में भी सास को लेकर पहले से अजीब घबराहट होती है, वह सोचती है कि सास उसे उंगलियों पर नचाएगी। यही संदेह, तकरार का मूल कारण बन जाता है, फिर वे सास-बहू हों या पति-पत्नी। जरूरत है सिर्फ संयम की। खुद को ज्यादा पारंगत दिखाने की होड़ न कर एक-दूसरे का सहयोग करें। प्रतिस्पर्धा नहीं समन्वय से काम करें।
परिवार के सदस्यों में ये तीन गुण अति आवश्यक हैं- श्रमशीलता, स्नेहशीलता व सहनशीलता- सास-बहू, पति-पुत्र, माता-पिता, हर सदस्य यदि परिवार के कार्य को करने को तत्पर रहें तो समस्याओं का ग्राफ स्वत: ही नीचे आ जाता है। दूसरी आवश्यकता है स्नेह- अपने परिवार के किसी भी सदस्य को देखते ही मन में स्वाभाविक रूप से हर्ष की लहरें उठती हैं। जिस परिवार में भीतर ही भीतर एक-दूसरे की काट करने की योजना बनती हों और वाणी में निरंतर एक-दूसरे की निंदा के स्वर हों वहां स्नेह के दीप कैसे जल सकते हैं? जरूरी है आपसी संवाद न कि विवाद, तभी परस्पर स्नेह की धारा बह सकती है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है सहनशीलता जो किसी भी सुखी परिवार के लिए संजीवनी बूटी है। कहते हैं- जो सहता है वो रहता। बदलते परिवेश में परिवार का एक सदस्य यदि नसीहत दे तो तुरंत दूसरे पक्ष से विरोध के स्वर उठते हैं। कारण के मूल में जाएं तो हमारे घरों में आज सब यह भूलते जा रहे हैं कि सहनशीलता वास्तव में वो अमृत है जो पारिवारिक जीवन की क्यारियों में जड़ तक पहुंच कर ङ्क्षसचाई, पोषण और अंकुरण करता है। वस्तुत: इस अमृत तत्व का अभाव ही आए दिन के झगड़े वैमनस्य, दूरियों व तनाव का कारण है।