isteepha by munshi premchand
isteepha by munshi premchand

दफ्तर का बाबू एक बेजुबान जीव है। मजदूरों को आंखें दिखाओ तो वह त्यौरियां बदलकर खड़ा हो जायेगा। कुली को एक डांट बताओ, तो सिर से बोझ फेंककर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारो, तो तुम्हारी ओर गुस्से की निगाह से देखकर चला जायेगा। यहां तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दुलत्ती झाड़ने लगता है, मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आंखें दिखाएं, डांट बताएं, दुत्कारें या ठोकरें मारें, उसके माथे पर बल न आएगा। उसे अपने विकारों पर जो आधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरज, उसमें तमाम मानवी अच्छाईयां मौजूद होती हैं। खंडहर के भी एक दिन भाग्य जगते हैं। दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अंधेरी तकदीर में रोशनी का जलवा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कुराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है, कभी हरा भादों नहीं। लाला फतेहचंद ऐसे ही एक बेजुबान जीव थे।

कहते हैं, मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है। फतेहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें ‘हारचंद’ कहा जाय, तो कदाचित् यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिन्दगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर हार और निराशा ही थी। लड़का एक भी नहीं, लड़कियां तीन, भाई एक भी नहीं भौजाइयां दो, गांठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में दया और मुरव्वत। सच्चा मित्र एक भी नहीं – बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गए थे। आंखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल पिचके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छह बजे शाम को लौटकर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया, लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिन्दगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था न, दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गई थी।

जाड़ों के दिन थे। आकाश पर कुछ बादल थे। फतेहचंद साढ़े-पांच बजे दफ्तर से लौटे तो चिराग जल गए थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते, चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं जाकर उनके मुंह से आवाज निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा, तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुंह-हाथ धोने के लिए लोटा-गिलास मांज रही थी। बोली – ‘उससे कह दे, क्या काम है, अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और अभी फिर बुलावा आ गया।’

चपरासी ने कहा – ‘साहब ने कहा है, अभी बुला लाओ। कोई बड़ा जरूरी काम है।’ फतेहचंद को खामोशी छा गई। उन्होंने सिर उठकर पूछा – ‘क्या बात है?’

शारदा – ‘कोई नहीं, दफ्तर का चपरासी है।’

फतेहचंद ने सहमकर कहा – ‘दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है?’

शारदा – ‘हां, कहता है, साहब बुला रहे हैं। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो, बुलाया करता है? सबेरे के गये-गये अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलावा आ गया।’

फतेहचंद ने संभल कर कहा – ‘जरा सुन लूं किस लिए बुलाया है। मैंने सब काम खत्म कर दिया था, अभी आता हूं।’

शारदा – ‘जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेगी।’

यह कहकर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट और सेव लायी। फतेहचंद उठकर खड़े हो गए, किन्तु खाने की चीजें देखकर चारपाई पर बैठ गए और प्याली की ओर चाव से देखकर डरते हुए बोले – ‘लड़कियों को दे दिया है न?’

शारदा ने आंखें चढ़ाकर कहा – ‘हां-हां, दे दिया है, तुम तो खाओ।’

उतने में छोटी लड़की आकर सामने खड़ी हो गई। शारदा ने उसकी ओर क्रोध से देखकर कहा – ‘तू क्यों आकर सिर पर सवार हो गई, जा बाहर खेल।’

फतेहचंद रहने दो, क्यों डांटती हो? यहां आओ चुन्नी, यह लो, दालमोट ले जाओ! चुन्नी मां की ओर देखकर डरती हुई बाहर भाग गई!

फतेहचंद ने कहा – ‘क्यों बेचारी को भगा दिया? दो-चार दाने दे देता, तो खुश हो जाती।’ इतने में चपरासी ने फिर पुकारा – ‘बाबूजी, हमें बड़ी देर हो रही है।’

शारदा – ‘कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आएंगे।’

फतेहचंद – ‘ऐसा कैसे कह दूं भाई, रोजी का मामला है।’

शारदा – ‘तो क्या प्राण देकर काम करोगे? सूरत नहीं देखते अपनी? मालूम होता है, छह महीने के बीमार हो।’

फतेहचंद ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकिया लगायी, एक गिलास पानी पिया और बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गई।

चपरासी ने कहा – ‘बाबूजी! अपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिए, नहीं तो जाते ही डांट बताएगा।’

फतेहचंद ने दो कदम दौड़कर कहा – ‘चलेंगे तो भाई, आदमी ही की तरह, चाहे डांट बताएं या दांत दिखाए। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बंगले ही पर है न?’

चपरासी – ‘भला, वह दफ्तर क्यों आने लगा? बादशाह है कि दिल्लगी?

चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फतेहचंद धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चलकर हांफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठते जाते थे, यहां तक कि जांघों में दर्द होने लगा और आधा खत्म होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा शरीर पसीने में तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आंखों के सामने तितलियां उड़ने लगीं।

चपरासी ने ललकारा – ‘जरा कदम बढ़ाए चलो, बाबू।’

फतेहचंद बड़ी मुश्किल से बोले – ‘तुम जाओ, मैं आता हूं।’

वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गए और सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगे। चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फतेहचंद डरे कि शैतान जाकर न जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायेगा। जमीन पर हाथ टेककर उठे और फिर चले। मगर कमजोरी से शरीर हांफ रहा था। इस समय कोई बल्ला भी उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बंगले पर पहुंचे। साहब बंगले पर टहल के थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को आते न देखकर मन-ही-मन में झल्लाते थे। चपरासी को देखते ही आंखें निकालकर बोले – ‘इतनी देर कहा था।?

चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा – ‘हुजूर! जब वह आयें तब तो, मैं दौड़ा चला आ रहा हूं।’

साहब ने पैर फटक कर कहा – ‘बाबू क्या बोला?’

इतने में फतेहचंद अहाते के तार के अंदर से निकलकर वहां पहुंचे और साहब को सिर झुकाकर सलाम किया।

साहब ने कड़ककर कहा – ‘अब तक कहां था?’

चपरासी – ‘आ रहे हैं हुजूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले।’

फतेहचंद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले – ‘हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूं। ज्यों ही चपरासी ने आवाज दी, हाजिर हुआ।’

साहब – ‘झूठ बोलता है, हम घंटे भर से खड़ा है।’

फतेहचंद – ‘हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गई हो, मगर घर से चलने में मुझे बिलकुल देर नहीं हुई।’

साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा – ‘चुप रह सुअर, हम घंटा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो।’

फतेहचंद ने खून का घूंट पीकर कहा – ‘हुजूर, मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी…’

साहब – ‘चुप रह, सुअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो।’

फतेहचंद – ‘जब मैंने कोई कसूर किया हो?’

साहब – ‘चपरासी! इस सुअर का कान पकड़ो।’

चपरासी ने दबी जबान से कहा – ‘हुजूर, यह मेरे अफसर हैं, मैं इनका कान कैसे पकड़ू?’

साहब – ‘हम कहता है, इनका कान पकड़ो नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा।’

चपरासी – ‘हुजूर, मैं यहां नौकरी करने आया हूं, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूं। हुजूर अपनी नौकरी ले लें। आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूं लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें?’

साहब अब क्रोध को बर्दाश्त न कर सके। हंटर लेकर दौड़े, चपरासी ने देखा, यहां खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फतेहचंद अभी तक चुपचाप खड़े थे। साहब, चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिए।

बोला – ‘तुम सुअर, गुस्ताख़ी करता है? जाकर ऑफिस से फाइल लाओ।’

फतेहचंद ने कान हिलाते हुए कहा – ‘कौन-सी फाइल लाऊं, हुजूर?’

साहब – ‘फाइल-फाइल, और कौन-सी फाइल? तुम बहरा है, सुनता नहीं? हम फाइल मांगता है?’

फतेहचंद ने किसी तरह दिलेर होकर कहा – ‘आप कौन-सा फाइल मांगते हैं?’

साहब – ‘वही फाइल, जो हम मांगता है। वही फाइल लाओ। अभी लाओ।’

बेचारे फतेहचंद को अब कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। साहब बहादुर एक तो यों ही तेज-मिज़ाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचारे क्या कर लेते? चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े।

साहब ने कहा – ‘दौड़कर जाओ.. दौड़ो।’

फतेहचंद ने कहा – ‘हुजूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता।’

साहब – ‘ओह, तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखाएगा। दौड़ो… (पीछे से धक्का देकर)… तुम अब भी नहीं दौड़ेगा।’

यह कहकर साहब हंटर लेने चले। फतेहचंद दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान् होते, तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते, लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकलकर सड़क पर आ गए।

फतेहचंद दफ्तर न गए। जाकर करते ही क्या! साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशे में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़ियां-सी डाल दी थी। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, एक हाथ में कोई चीज भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरों में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे? फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की?

मगर इलाज ही क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगाड़ता? शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जाता। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता? वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते? यदि उनके पास इतने रुपये होते, जिनसे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का इन्हें डर न था। जिंदगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते? खयाल था सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का।

आज फतेहचंद को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुःख हुआ, उतना और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तंदुरुस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उसका कान पकड़ता? उसकी आंखें निकाल लेते। कम-से-कम इन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था! और न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही – पीछे देखा जाता, जेलखाना ही तो होता या और कुछ।

वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बांदेपन पर और भी झल्लाती थी। अगर वह उचक कर दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता – यही न कि साहब के खानसामा, बैरे सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती – पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि किसी गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर, आज मैं मर जाऊं तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था?

इस अंतिम विचार ने फतेहचंद के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े और साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार कदम चले, मगर फिर ख्याल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी, वह तो हो ली। कौन जाने, बंगले पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी और बच्चों को बिना बाप के हो जाने का खयाल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।