घर में जाते ही शारदा ने पूछा – ‘किस लिए बुलाया था, बड़ी देर हो गई?’
फतेहचंद ने चारपाई पर लेटते हुए कहा – ‘नशे की सनक थी, और क्या शैतान ने मुझे गालियां दी, जलील किया। बस, यही रट लगाए हुए था कि देर क्यों की? निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा।’
शारदा ने गुस्से में आकर कहा – ‘तुमने एक जूता उतारकर दिया नहीं सूअर को?’ फतेहचंद – ‘चपरासी बहुत शरीफ है। उसने साफ कह दिया, हुजूर, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। बस उसी वक्त सलाम करके चला गया।’
शारदा – ‘यही बहादुरी है। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा।’
फतेहचंद – ‘फटकारा क्यों नहीं – मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर दौड़ा, मैंने भी जूता संभाला। उसने मुझे कई छड़ियां जमाई, मैंने भी कई जूते लगाए।’
शारदा ने खुश होकर कहा – ‘सच? इतना-सा मुंह हो गया होगा उसका।’
फतेहचंद – ‘चेहरे पर झाडू-सी फिरी हुई थी।’
शारदा – ‘बड़ा अच्छा किया तुमने। और मारना चाहिए था। मैं होती, तो बिना जान लिये न छोड़ती।’
फतेहचंद – ‘मार तो आया हूं लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है? नौकरी तो जायेगी ही, शायद सजा भी काटनी पड़े।’
शारदा – ‘सजा क्यों काटनी पड़ेगी? क्या कोई इंसाफ करने वाला नहीं है? उसने क्यों गालियां दी, क्यों झड़ी जमायी?’
फतेहचंद – ‘उसके सामने मेरी कौन सुनेगा? अदालत भी उसी की तरफ हो जायेगी।’
शारदा – ‘हो जायेगी, हो जाय, मगर देख लेना, अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियां दे बैठे। तुम्हें चाहिए था कि ज्यों ही उसके मुंह से गालियां निकली, लपक कर एक जूता रसीद कर देते।’
फतेहचंद – ‘तो फिर इस वक्त जिंदा भी न बच सकता। जरूर मुझे गोली मार देता।’
शारदा – ‘देखी जाती।’
फतेहचंद ने मुस्कराकर कहा – ‘फिर तुम लोग कहां जाती?’
शारदा – ‘जहां ईश्वर की मर्जी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज इज्जत है। इज्जत गंवाकर बाल-बलों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मारकर आये होते तो मैं गुरूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर आते, तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जत जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आएगी, खुशी से झेल लूंगी और अब कहां जाते हो, सुनो-सुनो, कहां जाते हो?’ फतेहचंद दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गई। वह फिर साहब के बंगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं बल्कि गुरूर से गर्दन उठाए हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, आंखों में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट-सी हो गयी थी। वह कमजोर बदन, पीला सुखता, दुबले बदन वाला, दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत से भरा हुआ, मजबूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसका डंडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बंगले पर जा पहुंचे।
इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज़ पर थे मगर फतेहचंद ने आज उनके मेज़ पर से उठ जाने का इन्तजार न किया। खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठाकर अन्दर गये। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। जमीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी फतेहचंद की शादी में नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उसकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देखकर कहा – ‘तुम क्यों आया? बाहर जाओ, क्यों अंदर चला आया?’
फतेहचंद ने खड़े-खड़े डंडा सँभालकर कहा – ‘तुमने अभी फाइल मांगा था, वहीं फाइल लेकर आया हूं। खाना खा लो, तो दिखाऊं। तब तक मैं बैठा हूं। इत्मीनान से खाओ, शायद यह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो।’
साहब सन्नाटे में आ गए। फतेहचंद की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देखकर कांप उठे। फतेहचंद के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गए, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आया है। ताकत में फतेहचंद उनके पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार हैं। यदि वह फतेहचंद को बुरा-भला कहते हैं, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बिठाए डंडे खाना भी तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिए, ठुकराए जो चाहे कीजिए, मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्राकर दौड़ पड़े, तो फिर देखें, आपकी हिम्मत कहां जाती है? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का था। जब तक यकीन था कि फतेहचंद घुड़की, गाली, हंटर, ठोकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा, तब तक आप शेर थे। अब वह त्यौरियां बदले, डंडा संभाले, बिल्ली की तरह घात लगाए खड़ा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने डंडा चलाया। वह अधिक-से-अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं तो मार खाने का भी डर। उस पर फौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का अंदेशा – मजा कि वह अपने प्रभाव और ताकत से अंत में फतेहचंद को जेल में डलवा देंगे, परंतु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुद्धिमान और दूरदर्शी आदमी की तरह उन्होंने कहा – ‘ओह, हम समझ गया, आप हमसे नाराज हैं। हमने क्या आपको कुछ कहा – है? आप क्यों हमसे नाराज है?’
फतेहचंद ने तनकर कहा – ‘तुमने अभी आधा घंटा पहले मेरे कान पकड़ कर और मुझे सैकड़ों ऊलजलूल बातें कही थी। क्या इतनी जल्दी भूल गए?’
साहब – ‘मैंने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा क्या मजाक है? क्या मैं पागल हूं या दीवाना?’
फतेहचंद – ‘तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं?’ चपरासी गवाह है। आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे।
साहब – ‘कब की बात है?’
फतह, – ‘अभी-अभी, कोई आधा घंटा हुआ, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिए थे।’
साहब – ‘ओ बाबूजी, उस वक्त हम नशा में था। बैरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं, क्या हुआ, माई गॉड? हमको कुछ खबर नहीं।’
फतेहचंद – ‘नशा में अगर तुमने मुझे गोली मार दी होती, तो क्या मैं मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ माफ है, तो मैं भी नशे में हूं। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कमी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं उठकर तुम्हारे कान पकड़ेगा। समझ गए कि नहीं? इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूं वह करते चलो पकड़ो कान।’
साहब ने बनावटी हंसी-हंसकर कहा – ‘वेल बाबूजी, बाप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहा है, तो हम आपसे माफी मांगता है।’
फतेहचंद – (डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो।
साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपक कर उठे और चाहा कि फतेहचंद के हाथ से लकड़ी छीन लें लेकिन फतेहचंद गाफिल न थे। साहब मेज़ पर से उठने भी न पाए थे कि उन्होंने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही, चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गई। एक मिनट तक सिर को पकड़ने के बाद बोले – ‘हम तुमको बरखास्त कर देगा।’
फतेहचंद – ‘इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़वाए नहीं जाऊंगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ना ही चाहता है।’
यह कहकर फतेहचंद ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाय। गाल पर हाथ रखकर बोले – ‘अब आप खुश हुआ?’
फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे?’
‘कभी नहीं।’
‘अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना, मैं कहीं बहुत दूर नहीं हूं।’
‘अब किसी को गाली न देगा।’
‘अच्छी बात है, अब मैं जाता हूं, आज से मेरा इस्तीफा है। मैं कल इस्तीफा में यह लिखकर भेजूंगा कि तुमने मुझे गालियां दी, इसलिए मैं नौकरी नहीं करना चाहता, समझ गए?’
साहब – ‘आप इस्तीफा क्यों देता है? हम तो बरखास्त नहीं करता।’
फतेहचंद – ‘अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूंगा।’
यह कहते हुए फतेहचंद कमरे से बाहर निकले और इत्मीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीवन की पहली जीत थी।
