मन चाहता है आनंद की प्राप्ति और आनंद की तलाश में कहां-कहां भटकता है। हर आगंतुक इच्छा इसी आनंद की पूर्ति के लिए तो करता है लेकिन वो बात अलग है कि इच्छा तो पूरी हो जाती है, पर आनंद नहीं मिलता।
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सुख की अनुभूति – आनंदमूर्ति गुरु मां
वो जरा सा सेकेंड निर्विकल्पता का। वह जो भीतर निर्विकल्पता होती है सबसे प्यारी होती है क्योंकि उसमें हम अपने मन में अपना प्रतिबिंब नहीं देख रहे, मन ही को उड़ा दिया है, सीधे-सीधे अपने आपको देख रहे हैं।
जो जन्मा है सो मरेगा – आनंदमूर्ति गुरु मां
हम जीने का इतना इंतजाम कर रहे हैं। हम खाने का इतना इंतजाम कर रहे हैं। पर हम अपनी मौत के विषय में कभी भी नहीं सोचते हैं। कौन बचा है मौत से? जो जन्मा है सो मरेगा।
मन की कल्पना के जाल – आनंदमूर्ति गुरु मां
सीमा में जो होगा, उसकी स्मृति हम कर सकते हैं, परमात्मा हर देश में, परमात्मा हर काल में, हर वस्तु में अनुगत है, तो एक दफे उसका बोध हो जाने पर चूंकि दूरी फिर नहीं होती तो स्मृति नहीं होगी।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि – आनंदमूर्ति गुरु मां
संत से सुना ज्ञान। ज्ञान को ठीक से श्रवण कर लिया तो तुम्हारे मन में बैठे इन राक्षसों की हत्या की जाएगी तो फिर संत भी कौन हो गया? मुरारी। क्योंकि तुम्हारे अन्दर वाले मुर को उसने मारा।
सवाल सिर्फ भावना का है – आनंदमूर्ति गुरु मां
ज्ञान किसको मिले? जो श्रद्घाभाव से शरणागत हो और अपना आप समर्पित करके कहे कि ‘गुरुदेव! ज्ञान दीजिए!’ ‘उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं’ तो ही गुरु उपदेश दे। ‘ज्ञानिन: तत्त्वदर्शिन: तो ही तत्त्व का दर्शन तुमको होता है।
