शाम से ये ‘निदासी’ आँखें
जाने क्या ढ़ूढ़ रही ये ‘प्यासी’आँखें ,
और किसे है मांग रही ये ‘प्यारी’ आँखें ।पूछते-पूछते राह के दरख्त थक गए,
जाने क्या छुपा रही ये ‘कयासी’ आँखें ।हवा भी छूकर हर बार गुजर गई
फिर भी न कुछ कह पाई ये ‘रूंआसी’ आँखें ।वक्त तो गुजरता रहा ,पर हम ही कही रूक गए
तेरी तलाश में गुम हो गए ,
बस तेरी याद में पूरी शाम रही ये ‘उदासी’ आँखें ।कब तुमसे मिलेंगें,कुछ हंसी लम्हें गुजरेंगें,
उन्ही लम्हों की आस में डूबी रही ये ‘शबाबी’ आँखें ।
बस इतना ही तो मांग रही ये ‘निदासी’आँखें ।
‘ये निदासी आँखें’
