दिन की सुनहरी धूप को आज बादलों ने ढक रखा था। बादलों के जमघट बढ़कर धुंध के रूप में जमीन पर उतर आए थे। हवा में नमी होने से हर वस्तु भीग रही थी।
आनंद भी चारपाई पर लेटा सामने की खिड़की से बाहर फैली इस धुंध को आश्चर्य से देखे जा रहा था, जिसके कारण पूरा कमरा भीग-सा गया था, यों प्रतीत होता था मानो बरसात भीतर घुस आई हो।
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उसने धुंध में से बाहर देखना चाहा, किंतु उसे बाहर कुछ दिखाई न दिया। वह आश्चर्य से कमरे की दीवारों को देखने लगा। साफ-सुथरा कमरा, हर चीज ढंग से रखी हुई, सफेद फर्नीचर और मेज पर रखी शीशियों से वह किसी अस्पताल का कमरा जान पड़ता था।
दवाईयों को देखते ही उसका हाथ उठा और उसकी कांपती हुई उंगलियों ने माथे पर बंधी पट्टी को छुआ। उसे याद आ गया कि अधिक रात गए जब वह सड़क के बीचों-बीच बढ़ता जा रहा था, उसकी टक्कर एक कार से हो गई थी।
उसके बाद क्या हुआ, उसे कोई खबर न थी। वह घायल हुआ और अपने होश खो बैठा, उसे इसका भी ध्यान न था। वह जानना चाहता था कि उसे कौन उठाकर अस्पताल में लाया है।
पांव की चाप सुनाई दी तो वह चौकन्ना होकर बैठ गया। नर्स भीतर आई; जिसकी आँखों में घृणा की झलक थी; परंतु होंठों पर बनावटी मुस्कान, शायद उसे भयानक मरीज पसंद न था।
जैसे ही नर्स ने मुँह से थर्मामीटर निकालकर ताप पढ़ा, आनंद ने पूछा-
‘नर्स!’
‘क्या है?’
‘यहाँ मेरा इलाज कौन करवा रहा है?’
‘मैं कुछ नहीं जानती।’ नर्स ने कठोर स्वर में उत्तर दिया।
द्वार पर आहट हुई। डॉक्टर किसी से बातें करता हुआ भीतर आया। आते ही नर्स से उसने कुछ पूछा।
‘नॉर्मल।’ नर्स ने उत्तर दिया।
‘That’s good. लो मिस संध्या तुम्हारा कष्ट कम हुआ।’
‘कष्ट कैसा, डॉक्टर यह तो मेरा कर्त्तव्य है।’
‘संध्या!’ वही बारीक और सुरीली आवाज, जो बहुत समय पहले उसने सुनी थी। आनंद कांप-सा उठा और उस लड़की की ओर देखने लगा, जो डॉक्टर से कह रही थी-‘यदि कोई राही भी घायल हो तो मुझसे नहीं देखा जाता, फिर यह तो मेरी ही गाड़ी से टकराया है।’
आनंद ने जब चोर-दृष्टि से संध्या को देखा तो हक्का-बक्का रह गया। यह उसी की संध्या थी, जो उसे कोई अन्य समझकर यहाँ ले आई थी। वह उसे इस दशा में पहचान न सकी। अच्छा ही हुआ, वरना वह भी उसे सड़क पर ही ठुकराकर बढ़ जाती। उसने भी तो जीवन की लंबी सड़क पर एक दिन उसे ठुकराया था।
यह सोचकर आनंद अपने मन में कोई चुभन अनुभव करने लगा। उसने लज्जा से आँखें झुका लीं और मुँह दूसरी ओर कर लिया। डॉक्टर ने नर्स को दवाई लिखकर दी और संध्या के साथ बाहर चला गया।
जब वे बाहर चले गए तो मुँह फेरकर उसने उस खुले द्वार की ओर देखा, जहाँ चन्द क्षण पूर्व उसका जीवन खड़ा था, किंतु वह उसे जी भरकर भी न देख सका। नर्स ध्यानपूर्वक आनंद को देख रही थी। निस्तब्धता को तोड़ते हुए बोली-
‘इसी देवी ने तुम पर तरस खाया है और आधी रात को तुम्हें उठाकर यहाँ ले आई थी।’
‘जी, आप ठीक कहती हैं। वह कल भी तो आएँगी।’
‘नहीं।’
‘वह क्यों?’
‘इसलिए कि आज ही आपकी छुट्टी हो जाएगी।’ उसने नाक चढ़ाते हुए उत्तर दिया और फर्श पर सैंडिलों से आहट करती बाहर चली गई।
आनंद के मन की हल्की-सी चुभन ने सारे शरीर में पीड़ा की एक लहर छोड़ दी। वह बेचैन होकर तड़प उठा। एक समय से हृदय में छिपी कसक फिर जाग उठी।
बरामदे में स्तम्भ से पीठ टिकाए संध्या मोतियों की उन बेलों को देख रही थी, जिन्हें दो वर्ष पहले उसने लगाया था। आज वह बढ़कर छत तक जा पहुँची थी। हरे-हरे पत्तों पर वर्षा-कण मोती से प्रतीत हो रहे थे। बेलों में छिपा संगमरमर की तख्ती पर खुदा ‘नीलकंठ’ का शब्द देख उसके मन में गुदगुदी-सी हुई। जीवन की कितनी मंजिले गुजर गईं, पर ‘नीलकंठ’ नहीं बदला। उसका मन अब भी किसी की आह सुनकर बेचैन हो उठता, वह उस घाव पर मरहम रखने को दौड़ती, किसी की पीड़ा को बांटने में ही उसे सुख मिलता।
रात वाले पागल को अस्पताल में ले जाकर उसकी मरहम पट्टी करवाने में उसे जो आन्तरिक आनंद मिला, वह उसे आज तक प्राप्त न हुआ। उसे यों अनुभव हुआ जैसे वह उसे एक समय से पहचानती है, परंतु उसने एक बार भी उसका धन्यवाद नहीं किया।
वह इन्हीं विचारों में डूबी अपने-आप से बातें कर रही थी कि सुंदर और पाशा मामूं ने भीतर प्रवेश किया। सुंदर ने अब शराब पीना बंद कर दिया था। वह कारखाने में बने हुए माल का स्टोर मैनेजर था। पाशा मजदूरों की देखभाल और समय पर काम चालू करने का उत्तरदायी था।
दोनों को सामने खड़ा देखकर उसके विचारों का तांता टूट गया।
‘मजदूरों की छांट करनी है, कुल तीन सौ मजदूर आए थे।’ पाशा मामूं उससे बोले।
‘ओह! शहर में बेकारी इतनी बढ़ती जा रही है। कितने चुने?’
‘पचास, आवश्यकता तो चालीस की थी, किंतु इतनी बड़ी संख्या देखकर दस और बढ़ा लिए हैं।’
‘तो ठीक है, सबको भीतर ले जाओ।’ संध्या ने उत्तर दिया।
चुने हुए मजदूर जब भीतर आने लगे तो हर किसी को उस खिड़की के सामने से गुजरना पड़ता था। संध्या सबको बारी-बारी ध्यानपूर्वक देख रही थी, विचित्र प्रकार की सूरतें-कोई भिखारी-कुछ चोरों जैसे-और कुछ ऐसे जैसे अभी पागलखाने की दीवारें फांदकर आए हों, पर उनके ये विचित्र चेहरे देखकर उसे कोई आश्चर्य न हो रहा था, उसने कितने ही चेहरे देखे थे। वह जानती थी कि थोड़े ही समय में वह उन्हें एक नए रूप में ढाल देगी।
बारी-बारी जब सब भीतर चले गए तो उसकी दृष्टि अंतिम मजदूर को देखकर ठिठक गई। वह भी क्षण-भर के लिए खिड़की के पास आकर रुक गया। उसकी भीतर धंसी हुई आँखों में एक बिजली-सी चमकी, जिसे देखकर जरा-सी देर के लिए न जाने क्यों वह कांप गई। उसे यों जान पड़ा जैसे वह उसे जानती है, मन पर अधिकार पाकर वह खिड़की का सहारा लेकर झुककर उसे देखने लगी।
बिलकुल वही-रात वाला भिखारी, जिसे वह अस्पताल में छोड़ आई थी। अभी तक उसके माथे पर ताजा घाव का निशान था, पर वह उसे इतना घूर कर क्यों देख रहा है, वह अपने मस्तिष्क पर दबाव डालकर सोचने लगी-कहीं वह उसका आनन्द तो नहीं, वे ही चौड़े कंधे। मोटी-मोटी आँखें और उनकी गहराईयों में एक अछूती चमक, जो कभी समाप्त नहीं होती।
आनन्द का ध्यान आते ही वह एक बार फिर तनिक कंपकंपा गई, परंतु वह ऐसी दशा में, मजदूरों की पंक्ति में, असंभव है। वह यह सोच ही रही थी कि खान पाशा ने आवाज दी और वह अजनबी आगे बढ़ गया।
मामूं पाशा और सुंदर खिड़की के पास आकर रुक गए और होंठों पर मुस्कराहट लाकर पूछने लगे-‘क्यों आज की छांट कैसी रही?’
संध्या का ध्यान अभी तक जाने वाले मजदूर पर था। अपने ध्यान में ही उसने कहा-‘परंतु यह आखिरी मजदूर…’
‘देखने में बूढ़ा लगता है, वरना है नौजवान।’ सुंदर ने बात काटते हुए कहा।
‘तो इसे जरा यहाँ बुलवा दो।’
थोड़े ही समय में सुंदर उसे साथ लिए वहाँ आ पहुँचा। संध्या ने उसे भीतर आ जाने को कहा और सुंदर को चले जाने का संकेत किया। आंगन से गुजरकर वह बरामदे में आकर खड़ा हो गया।
संध्या अभी तक खिड़की के पास खड़ी थी। आने वाले मजदूर को बरामदे में खड़ा देखकर बोली-‘भीतर आ जाइए।’
आनन्द कांप गया। एक तुच्छ मजदूर को किस मान से बुलाया जा रहा था। वह खड़ा रहा, परंतु संध्या के पुनः अनुरोध पर वह धीरे-धीरे पाँव उठाता भीतर बढ़ा, जैसे कोई अपराधी जज के बुलाने पर कचहरी के कटघरे की ओर बढ़ता है। उसका मन भय से कांप रहा था।
दोनों की आँखें मिलीं। पहली ही दृष्टि आँखों की पुतलियों से होती हुई मन की गहराईयों में उतर गई। उसे विश्वास हो गया कि आने वाला उसके आनन्द के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता, किंतु मन पर अधिकार रखते हुए उसने यह प्रकट न होने दिया कि वह उसे पहचान गई है।
‘बैठ जाइए। हाँ, हाँ…उस सोफे पर।’ संध्या ने धीरे से कहा और सोफे की ओर संकेत किया, जिस पर बैठने से वह हिचकिचा रहा था।
‘इसे अपना ही घर समझिए।’ संध्या ने मुस्कराते हुए कहा।
‘किंतु।’ वह लजाते हुए बैठ गया।
‘आराम से बैठ जाइए। शायद आपको आराम की जरूरत है।’
आनन्द जरा फैलकर बैठ गया। अभी तक उसकी आँखें ऊपर न उठ रही थीं। संध्या पास बिछी आरामकुर्सी पर बैठ गई और बोली-
‘यह माथे पर चोट का घाव ताजा ही लगता है।’
‘जी।’, कठिनाई से उसके सूखे हुए गले से निकला।
‘कोई दुर्घटना हो गई क्या?’
‘जी, किसी गाड़ी से टकरा गया था। भूल मेरी ही थी कि रात अंधेरे में होश खो बैठा। वह तो कोई बड़ा दयालु था, जो मुझे अस्पताल तक मरहम-पट्टी के लिए छोड़ आया।’
संध्या से और न रहा गया, वह होंठों को दबाते हुए धीरे-से बोली-‘आनन्द!’
‘संध्या!’
दोनों ने एक-दूसरे को देखा। दोनों की आँखों में आँसू भरे हुए थे, जैसे वर्षों की पीड़ा बुलबुले बनकर फूट पड़ी हो। संध्या ने अपने आंचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा-
‘यह क्या दशा बना रखी है आपने?’
वही नम्रता, वही मिठास-आज वर्षों के कठोर अनुभव के पश्चात् भी संध्या का मन न बदला था। उसमें द्वेष और घृणा की बास तक न थी, बल्कि स्नेह और सहानुभूति का अमृत निकल रहा था।
वह अपने आंचल से उसके आँसू पोंछते हुए तनिक भी नहीं हिचकिचाई। आनन्द ने देखा कि उसके आँसू पोंछते हुए स्वयं उसकी पलकों में अटके हुए अश्रु बह निकले थे।
आनन्द झट से उठ खड़ा हुआ और गंभीर होकर बोला-
‘आप मुझे लज्जित न करें। मैं तो यहाँ अपने आप को भूलने के लिए आया था, अपने दबे घाव फिर कुरेदने नहीं।’
‘तो कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ?’
‘वह तो आप कर चुकीं। अब मुझे परिश्रम करना होगा।’
‘नहीं, मैं आपको मजदूरी न करने दूँगी। आप तो कार के शोरूम के मैनेजर हैं।’
‘वह आनन्द मर चुका।’
‘तो मैं उसे फिर से जीवित करूँगी।’, संध्या दृढ़ निश्चय में बोली।
‘अब मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ। मुझे सब भूल जाने दो।’
‘असंभव है। आपको अपना हर घाव मुझे दिखाना होगा, नंगा करना होगा।’
‘मैं उस तड़प और पीड़ा को सह न सकूँगा।’
‘घाव छिपाने से कभी भरते नहीं, ऐसे ही भीतर-ही-भीतर दीमक की भांति खा जाते हैं। कुरेदकर मरहम लगाने से चैन मिलता है।’
आनन्द की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। वह दबे हुए तूफान को और न रोक सका। आज उसके जले हुए मन को उसने कुन्दन बनाने को भट्टी में डाल दिया था। दोनों एक-दूसरे के समीप हुए और लिपट गए।
संध्या के कहने पर आनन्द ने बढ़े हुए बाल कटवाकर वह रूप उतार डाला। आज पहली बार उसने दर्पण में अपना पुराना रूप देखा। चन्द ही महीनों में वह कितना बदल गया था, उसके गालों की लालिमा पीलेपन में परिवर्तित हो गई थी, आँखें सूज गई थीं, जैसे बहुत दिनों से सोया न हो या रोग का शिकार रहा हो।
शाम की चाय पर संध्या ने बेला की बात छेड़ दी। पहले तो वह चुप रहा और फिर धीरे-धीरे पूरी कहानी कह सुनाई। आनन्द यह सब यों कह रहा था, जैसे कोई अपराधी जज को वार्त्तालाप सुना रहा हो। वह चुपचाप ध्यानपूर्वक सुनती और सोचती रही।
समय बीती हुई बातों को दोहराता है। आसपास के कई उजड़े हुए चिह्न, बीते हुए समय के अवशेष, पुरानी रंगीनियों को क्षण-भर के लिए जीवित कर देते हैं और मानव अपने-आपको भूलकर कुछ समय के लिए उसी संसार में लौट जाता है, जहाँ उसे सुख प्राप्त हुआ था।
आनन्द ने घूमकर उस नन्हीं-सी बस्ती को देखा, जिसे संध्या ने दिल के टुकड़ों से बसाया था, जहाँ के रहने वाले उसके हृदय के पुजारी थे, किसी की आह भी निकलती तो वह झट घाव पर मरहम-पट्टी रखने को भागती-जहाँ प्रेम था, सच्चाई थी और एकता थी, जहाँ घमण्ड और झूठा मान न था।
यदि यह छोटी-सी बस्ती संध्या उसके मन में बसाती तो…वह यह विचार आते ही तड़प गया। क्या यह भूल अब नहीं सुधर सकती? क्या सवेरे का भूला साँझ को अपनी मंजिल पर लौट नहीं सकता? क्या वह मौत को अलग करके फिर जीवन की शरण नहीं ले सकता।
एकाएक उसके कल्पना के महल को एक ही विचार ने तोड़ दिया-समाज-दुनिया और फिर वह देवी, जिसके सामने वह यह कहने का साहस भी न कर सकता था।
‘सोचता हूँ अब क्या होगा?’
‘तुम्हें इस दुनिया में हँसते हुए जीना होगा।’
‘किंतु ऐसे जीने से तो मौत अच्छी।’
‘मैं तुम्हें जीना सिखला दूँगी।’
उसे अनुभव हुआ, जैसे उसी के मन की बात उसकी जबान पर आने वाली है। वह झट से बोला -‘कैसे?’
‘बेला को फिर आपके चरणों में ले आऊँगी।’
बेला का नाम सुनते ही वह तिलमिला उठा, मानो किसी बिच्छू ने उसे अचानक डस लिया हो। वह उसे भूल जाना चाहता था।
उसका नाम भी उसके लिए कष्टप्रद था-और संध्या हर थोड़े समय पश्चात् यह नाम उसके कानों में उड़ेल देती।
आनन्द चुप रहा।
आनन्द संध्या के साथ ही रहने लगा। अब वह कारखाने का जनरल मैनेजर था। अनुभव तो था ही, चन्द ही दिनों में कारखाने का पूरा काम उसने संभाल लिया। उसके वहाँ आने से संध्या के कंधों का बोझ हल्का हो गया। उसने अपना बहुत-सा काम उसे सौंप दिया और स्वयं दिन-रात किसी विचार में मग्न रहने लगी।
संध्या ने आनन्द के पास आकर उसके पास ठहरने की सूचना रायसाहब को दे दी, जो एक दिन उसे मिलने भी आए, परंतु आनन्द ने मिलने से इंकार कर दिया। संध्या को विश्वास था कि जब रायसाहब बेला से यह बात कहेंगे तो वह अवश्य उसके यहाँ आएगी।
किंतु यह न हुआ और प्रतीक्षा करने पर भी वह वहाँ न आई।
एक दिन संध्या आनन्द से चोरी-छिपे हुमायूं के घर जा पहुँची। वह कुछ समय पहले ही स्टूडियो से लौटा था। संध्या को देखते ही वह विस्मय से चकित रह गया। आज बड़े समय पश्चात् उन दोनों की भेंट हुई थी। इससे पहले वे आनन्द के विवाह पर ही मिले थे।
‘आपने मुझे पहचाना नहीं।’, संध्या ने पहल करते हुए कहा।
‘नहीं तो, बल्कि सोच रहा हूँ कि कितने वर्षों बाद देखा है आपको, आप अभी भी वैसी ही हैं।’
‘मुझे आपसे कुछ पूछना है।’
‘कहिए।’
‘बेला कहाँ है?’
‘बेला, वह तो थोड़ी देर पहले ही यहाँ से गई है।’
‘वह तो आपको मिलती रहती होगी।’
‘हमारा तो दिन-रात का साथ ठहरा, फिल्मी दुनिया में जो रहना हुआ।’
‘तो आपको मेरी सहायता करनी होगी।’
‘कहिए’। हुमायूं मुँह पर गंभीरता लाते हुए बोला।
‘उसके जीवन की बढ़ती हुई लपटों को रोकना होगा, इससे पहले कि वह आनन्द का सब कुछ जलाकर भस्म कर दे।’
‘कहती तो आप ठीक हैं, लेकिन बेला से जरूरी तो आनन्द को समझाना है, शायद आपने उनकी हालत नहीं देखी।’
‘वह तो संभल चुके।’
‘यानी-’
‘वह आजकल मेरे पास हैं।’
‘ओह! तो कहिए मुझे क्या करना होगा?’
‘एक स्त्री के मन में आग लगानी होगी।’
‘आग-कैसी?’
‘जी, बेला के दिल में डाह की आग। आप तो फिल्मी दुनिया के माने हुए कलाकार हैं। स्त्री की प्रकृति को आप खूब समझते होंगे।’
हुमायूं दो-एक मिनट चुप खड़ा संध्या की ओर देखता रहा। एकाएक जोर से हँसने लगा, जैसे संध्या की बातों का रहस्य उसकी समझ में आ गया हो। संध्या भी उसे हँसता देखकर उसका साथ देने लगी।

‘तो अब मैं चली।’ संध्या ने उसकी हँसी काटते हुए कहा।
‘ऐसे नहीं, चाय पिए बिना मैं हरगिज न जाने दूँगा।’
‘सच पूछिए तो अभी पीकर आई थी।’
‘तो क्या हुआ? एक बार और सही। कहते हैं, चाय और मुहब्बत के लिए कोई वक्त नहीं, जब चाहो और जितनी बार चाहो इनका जाम पी डालो।’
चाय पीते समय दोनों के मन में एक विश्वास अंगड़ाइयाँ ले रहा था। उन्हें विश्वास था कि उनकी योजना दो व्यक्तियों के नष्ट होते जीवन को फिर आशा का मार्ग दिखला देगी, वे अवश्य सफल होंगे।
नीलकंठ-भाग-27 दिनांक 23 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

