इसके कुछ बाद की बात है।…सर्दियाँ कुछ और बढ़ गई थीं। दाँत किट-किट कर पहाड़ा पढ़ते थे। खासकर सुबह और शाम के समय तो बर्फीली हवाएँ हड्डियों तक में धँसने लगतीं। और कवि लोग रजाई में घुसकर काँपते हाथों में कलम पकड़कर कविता लिखना शुरू करते, “आह जाड़ा, हाय जाड़ा!”
ऐसे ही बर्फीले जाड़े के दिन थे। एक बार ठुनठुनिया रात को घूमकर घर वापस आ रहा था। तभी अचानक गाँव के बाहर वाले तालाब के पास उसे जोर की ‘धम्म्…मऽऽ!’ की आवाज सुनाई दी। और इसके साथ ही, “बचाओऽ, बचाओऽऽ…!”
ठुनठुनिया दौड़कर तालाब के पास गया। चिल्लाकर बोला, “कौन है भाई, कौन है…?”
तभी मोटेराम पंडित जी की घबराई हुई, रोती-सी आवाज सुनाई दी, “अरे! ठुनठुनिया बेटा, तू है?…बेटा, मैं हूँ पंडित मोटेराम! तालाब में डूब रहा हूँ, मुझे बचाओ!”
“अरे पंडित जी, आप? रुकिए…रुकिए मैं आया…!!”
बस, ठुनठुनिया ने उसी समय आव देखा न ताव और फौरन तालाब में छलाँग लगा दी।…अँधेरी रात, हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता था। फिर भी ठुनठुनिया तो ठुनठुनिया ठहरा! मोटेराम पंडित जी की आवाज के सहारे तेजी से पानी में तैरता-दौड़ता, झट उनके पास पहुँच गया। मजबूती से उन्हें पकड़कर पूरी ताकत से किनारे की ओर खींचने लगा।
यों ठुनठुनिया आखिरकार मोटेराम पंडित जी को पूरी ताकत से किनारे पर खींचकर ले ही आया। मगर अब ठुनठुनिया बेचारा मारे सर्दी और थकान के बुरी तरह काँप रहा था। मोटेराम पंडित जी की हालत और भी खराब थी।
काफी देर बाद मोटेराम पंडित जी की हालत कुछ ठीक हुई और वे थोड़ा-थोड़ा बोलने लगे थे। ठुनठुनिया भी अब कुछ संभल गया था। उसने कहा, “पंडित जी, आप कहें तो मैं आपको घर छोड़ आऊँ?”
“नहीं-नहीं बेटा, अब तो मैं ठीक हूँ, चला जाऊँगा।” पंडित जी धीरे से उठकर खड़े हो गए। बोले, “अच्छा हुआ बेटा, तुम समय पर आ गए, वरना आज तो भगवान् ही मालिक था।…”
“पर पंडित जी, यह हुआ कैसे? आप कैसे इस तालाब में फिसल गए। आप तो रोजाना इधर से आते हैं, पर…?” ठुनठुनिया ने पूछा।
इस पर मोटेराम पंडित जी बोले, “क्या बताऊँ बेटा! अँधेरी रात थी, तो आसमान में तारे खूब जोर से चमचमा रहे थे। देखकर मुझे बड़ा अच्छा लगा। मैंने सोचा, जरा आसमान में तारों की स्थिति का अच्छी तरह अध्ययन कर लूँ, ताकि आगे लोगों की जन्मपत्री बनाने और भाग्य बाँचने में मुझे आसानी रहे। तो मैं ऊपर आसमान में तारों की ओर देखकर चल रहा था। यह खयाल ही नहीं रहा कि नीचे ता
लाब भी है। बस, तारों की गणना करते-करते इतना लीन हुआ कि अचानक पैर फिसला और मैं पानी में।…आह, आज तो बड़ी बुरी बीती!”
कहकर मोटेराम पंडित जी कराहते हुए घर की ओर चले। पर चलते-चलते अचानक वे रुक गए। ठुनठुनिया की ओर देखकर बोले, “बेटा, तुमने मेरी बड़ी मदद की है, इसलिए तुम्हें मैं कुछ देना चाहता हूँ…किसी दिन घर आना। मैं तुम्हारी जन्मपत्री बना दूँगा। साथ ही पूरे जीवन का भाग्य बाँचकर एक कागज पर लिखकर तुम्हें दे दूँगा। आगे तुम्हारे काम आएगा।”
ठुनठुनिया हँसा। बोला, “रहने दीजिए पंडित जी, रहने दीजिए।”
“क्यों…क्यों रहने दूँ? अरे बावले, मैं तुमसे कोई फीस थोड़े ही लूँगा…?” मोटेराम पंडित जी ने अचकचाकर कहा, “तू डर क्यों रहा है?”
“नहीं पंडित जी, डर मुझे आपकी फीस का नहीं है।” ठुनठुनिया मुसकाराया, “डर इस बात का है कि जो आदमी खुद आसमान की ओर देखकर चलता है और जिसे धरती की इतनी खबर भी नहीं है कि कब उसका पैर तालाब में फिसला और तालाब में गिरकर वह हाय-हाय करने लगा, वह भला किसी दूसरे का भाग्य क्या बाँचेगा? और उससे किसी और को मिलेगा क्या? पंडित जी, मैं तो धरती की ओर देखकर चलता हूँ। मेरे पैर जमीन पर टिके हैं, मेरे लिए इतना ही काफी है। भाग्य-वाग्य जानने की मुझे कोई इच्छा नहीं है!…और फिर सच्ची बात यह है पंडित जी, कि जिसने ठुनठुनिया को बनाया, वही ठुनठुनिया की परवाह भी करेगा। बेकार परेशान होने से क्या फायदा?”
सुनकर मोटेराम पंडित जी शर्मिंदा हो गए। बोले, “अरे ठुनठुनिया, तू तो ऐसी बातें करता है कि अच्छे-अच्छों को जवाब न सूझे।…फिर भी एक बात तो मैं जरूर कहूँगा।”
“कहिए, पंडित जी, आपको क्या कहना है…?” ठुनठुनिया ने बड़े आदर से कहा।
“बस यही कि…अच्छा, बेटा ठुनठुनिया, भाग्य रहने दे, तू मेरा आशीर्वाद लेता जा! तू जिंदगी में बहुत बड़े-बड़े काम करेगा और बहुतों के काम आएगा।” मोटेराम पंडित जी ने आनंदविभोर होकर कहा।
“हाँ पंडित जी, यह ठीक है।…आपका आशीर्वाद मुझे जरूर चाहिए।” कहकर ठुनठुनिया ने सिर झुका दिया और मोटेराम पंडित जी का आशीर्वाद ले लिया।
फिर मुसकराता हुआ घर की ओर चल दिया। आज उसके पैरों में नई गति, नया उत्साह था।
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