laukidevi ko pranam
laukidevi ko pranam

लौकीदेवी को आज भला कौन नहीं जानता! दूर-दूर तक उनका नाम है। बिल्कुल देहाती ढंग की सादा हरी साड़ी पहने एकदम सीधी-सादी, घरेलू और लुकी-छिपी सी लौकीदेवी। इतनी सादा कि जब चुपचाप बैठी हों, तो किसी का उनकी तरफ ध्यान नहीं जाता। पर हैं वे अपार गुणों की खान। इसीलिए दूर-दूर से लोग उनसे मिलने और उनकी बातें सुनने आते हैं। हर कोई आदर से उन्हें नमस्कार करता है।…पर यही लौकीदेवी थीं, जिन्हें शुरू-शुरू में कोई पूछता नहीं था। एक दिन उन्होंने सोचा कि मुझे कुछ करना है, करके दिखा देना है। और सचमुच उन्होंने दिखाया भी कि कोई अकेला शख्स भी क्या नहीं कर सकता!

बचपन से ही लौकीदेवी को लगता था कि गाँव सूने होते जा रहे हैं। गाँव के ज्यादातर लोग शहर चले जाते हैं और फिर धीरे-धीरे वहीं के हो जाते हैं। गाँव के बारे में कोई सोचता ही नहीं है। लिहाजा गाँव उजड़ते ही चले जा रहे हैं।

उन्होंने सोचा, ‘मैं तो अपना प्यारा गाँव सब्जीपुर छोड़ूँगी नहीं। मैं बड़ी होकर गाँव की परेशानियाँ हल करूँगी, ताकि गाँवों में ही लोगों को सारी सुविधाएँ मिलें। किसी को भाग-भागकर शहर न जाना पड़े।’

लौकीदेवी ने देखा, गाँव में पढ़ने-लिखने के लिए कोई ढंग का स्कूल तक नहीं है। उन्होंने सोचा, ‘पढ़ाई तो जरूरी है। बगैर पढ़ाई के भला कौन तरक्की कर पाया है!’ लिहाजा पास के गाँव में जाकर उन्होंने पढ़ाई की। कोई छह मील दूर था वह गाँव। पर वे बिना घबराए छह मील रोज आतीं, रोज जातीं, और यों लौकीदेवी अपनी पढ़ाई करती रहीं। उन्होंने हाईस्कूल अच्छे नंबरों से पास किया, फिर इंटरमीडिएट। फिर शहर में जाकर कॉलेज की पढ़ाई की। वजीफा लिया और बड़ा नाम कमाया।

अब तो दूर-दूर तक लौकीदेवी का नाम हो गया कि वे बड़ी सीधी-सादी, लेकिन बड़ी विद्वान हैं। यों तो गाँव में रहने वाली हैं लौकीदेवी, पर उनसे बातें करो तो कॉलेज और यूनिवर्सिटी के बड़े-बड़े प्रोफेसरों को मात दे दें। ऐसे क्षणों में ही पता चलता है कि ज्ञान उनके अंदर कूट-कूटकर भरा है।

लौकीदेवी ने जब एम.ए. फर्स्ट क्लास पास किया, तो बहुत से लोगों ने सोचा, शायद लौकीदेवी शहर में जाकर प्रोफेसर हो जाएँगी। गाँव हमेशा के लिए छूट जाएगा।

पर एम.ए. पास करने के बाद हलके हरे रंग की साड़ी पहने सीधी-सादी लौकीदेवी सीधे अपने गाँव आईं और लोगों से बोलीं, “भई, मुझे तो अपने गाँव से अच्छा कुछ नहीं लगता। यहीं मुझे दाढ़ी वाले बूढ़े बरगद बाबा से पढ़ने-लिखने का आशीर्वाद मिला और मेरी आँखें खुलीं। यहाँ की कच्ची पगडंडियों ने मुझे जीवन की अनोखी सीख दी और मैं बढ़ी तो बस बढ़ती ही चली गई।…तो भाई, मैं तो अब यहीं रहूँगी और अपने गाँव के लिए काम करूँगी। यहाँ की समस्याएँ दूर करूँगी, ताकि लोग सुख और आराम से रहें।”

लोगों ने सुना तो उन्हें हैरानी हुई, “अरे, सीधी-सादी दिखने वाली लौकीदेवी में कैसी गजब की दृढ़ता है! ये तो और ही मिट्टी की बनी हैं।”

और लौकीदेवी ने सचमुच गाँव को स्वर्ग बनाने का संकल्प कर लिया। गाँव में कच्ची झोंपड़ियों में लोग रहते थे। छप्पर बारिशों में टपकते थे। बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई स्कूल नहीं था। बिजली-पानी की किल्लत थी। लोगों को काम नहीं मिलता था।

लौकीदेवी ने गाँव में ही छोटे-छोटे कुटीर उद्योग खोले, ताकि लोगों को रोजगार मिले। महिलाओं के लिए पापड़, बड़ियाँ, अचार बनाने का अनोखा काम खोजा गया। सब औरतें खूब उत्साह से काम में लगी रहतीं और उनके द्वारा बनाए पापड़-बड़ियाँ और अचार ऊँचे दामों में बिकते।

गाँव के पास एक नहर थी, जिससे पहले सिंचाई होती थी। पर अब उसमें काफी गाद भर गई थी। तालाब की तो और भी बुरी हालत थी। लौकीदेवी बोलीं, “श्रमदान…! आइए, हम सब श्रमदान करेंगे।”

पहले तो उनके साथ आने को कोई राजी ही नहीं हुआ। उन्होंने अपने जान-पहचान की कुछ लड़कियों और औरतों से कहा, “अगर गाँव का भला चाहती हो, तो आओ मेरे साथ।”

सुबह-सुबह औरतें फावड़ा और तसले लेकर निकल पड़ीं। काम शुरू हुआ तो गाँव के नौजवानों को बड़ी शर्म आई, “अरे, लौकीदेवी ने गाँव की महिलाओं में कैसी जागृति पैदा कर दी! और एक हम हैं, जो जड़ बैठे हैं जहाँ के तहाँ! क्यों न हम भी लौकीदेवी का साथ दें? गाँव की शक्ल बदलेगी तो सभी को अच्छा लगेगा।”

और फिर न सिर्फ नहर की अच्छी खुदाई हुई, बल्कि तालाब को खूब साफ और गहरा कर दिया गया। बारिश आई तो उसमें खूब पानी इकट्ठा हो गया। वह पानी सिंचाई के काम आया। नहाने और पीने के लिए भी।

गाँव की उन्नति हुई तो आसपास के गाँव वालों ने भी देखा, “अरे वाह, लौकीदेवी ने तो क्रांति कर दी! दुबली-पतली सी नजर आती सीधी-सादी लौकीदेवी में तो बड़ी हिम्मत है।”

यों लौकीदेवी ने न सिर्फ सब्जीपुर को अमन-चैन से भरकर चमन बना दिया, बल्कि आसपास के गाँवों में भी उसकी ठंडी बयार पहुँचने लगी।

धीरे-धीरे आसपास के लोग भी कहने लगे, “जरा सब्जीपुर को देखो, लौकीदेवी ने उसे असली चमन बना दिया है। तो हम अपने गाँव में क्यों नहीं यह खुशहाली ला सकते?” तो यों आसपास के गाँवों में भी लौकीदेवी का यह जादू चल गया। वहाँ की लड़कियाँ भी काम करने के लिए साथ चलने लगीं। मर्द और नौजवान भी साथ आ गए। पेड़ लगाए गए। आम, पीपल, नीम, बरगद, जामुन, इमली, अमरूद, शीशम, कीकर और सप्तपर्णी के पेड़। ठंडे और साफ पानी का इंतजाम हुआ। पढ़ाई के लिए स्कूल खुले और दूर-दूर तक लौकीदेवी का नाम छा गया।

अखबारों में लोग हरी साड़ी में लिपटी लौकीदेवी के भाषणों के बारे में पढ़ते तो सोचते, ‘सच ही कितनी अच्छी और सच्ची बातें करती हैं लौकीदेवी!’

कुछ लोगों को गाँधी बाबा की याद थी। वे कहते, “या तो गाँधी बाबा ऐसी बातें करते थे, या फिर आज लौकीदेवी…!”

अब तो दूर-दूर से गाँव की सीधी-सादी लौकीदेवी के लिए न्योते आने लगे। अमेरिका, इंग्लैंड और जर्मनी के पर्यावरणविदों ने भी चिट्ठियाँ लिखकर लौकीदेवी को अपने यहाँ बुलाया कि आप आकर बताएँ कि आपने अपने गाँव को चमन कैसे बनाया? देखते ही देखते गाँवों में इतनी खुशहाली कैसे आ गई?

इस पर लौकीदेवी बड़े शांत लहजे में कहतीं, “भई, कोई चाहे दुनिया में कहीं बुलाए, पर मैं तो अपना गाँव छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी। किसी को अच्छा लगे और मेरी बातें पसंद आएँ, तो कोई मनाही तो है नहीं। तुम उन्हें अपने यहाँ भी लागू करो। इसमें मुझे भी खुशी होगी।…पर मुझे अपने गाँव से दूर मत करो।”

आखिर में हुआ यह कि दुनिया के बड़े-बड़े पर्यावरणविद् सब्जीपुर में ही आए। यह देखने के लिए कि भला लौकीदेवी ने गाँव में कैसा स्वर्ग उतार दिया है।

अखबारों के संवाददाता और टीवी के रिपोर्टर भी आए। लौकीदेवी के फोटो और खबरें अखबारों के पहले पन्ने पर छपीं। कुछ रोज बाद चौड़ी मुसकान वाले मुख्यमंत्री गोभीलाल भी आए। सबने मिलकर लौकीदेवी का अभिनंदन किया।

अपनी वही बिना कलफ लगी, सूती हरी साड़ी पहने लौकीदेवी मंच पर विराजमान थीं। वक्ता एक-एक कर उठते और उनकी तारीफों के पुल बाँधते। सुनने वाले हजारों-हजार लोग जोर-जोर से तालियाँ बजा रहे थे और लौकीदेवी का जय-जयकार कर रहे थे।

फिर लौकीदेवी से कहा गया, “दीदी, अब आप भी आकर कहें दो शब्द!”

लौकीदेवी सकुचाकर बोलीं, “क्या बोलूँ? भई, मैं तो गाँव की सीधी-सादी स्त्री हूँ। मुझे बोलने की आदत नहीं है। जो थोड़ा-बहुत मैंने काम किया है, समझ लीजिए, बस वही मुझे कहना है। बचपन में मेरे दादा जी ने सीख दी थी कि बेटी, जो कहना हो, करके दिखा देना। कभी अपने मुँह से कहना मत। कहने से आदमी छोटा हो जाता है। तो मैं तो आज भी उसी लीक पर चल रही हूँ।…यहाँ मैंने देखा कि यहाँ खूब बड़ी सभा हुई, सब वक्ताओं ने मेरी खूब तारीफ की। बड़े जोर-जोर से तालियाँ भी बजीं। और जब इतनी तारीफ हो, इतनी तालियाँ मिलें तो खुशी किसे नहीं होती! मुझे भी हुई, पर आपसे सच्ची कहूँ, ज्यादा तारीफ से कई बार तकलीफ भी होती है।…”

कहकर लौकीदेवी ने सभा में मौजूद लोगों पर एक नजर डाली। फिर बोलीं, “मैं सोचती हूँ—काश, तारीफ थोड़ी कम होती, भाषण थोड़े छोटे होते। मगर मेरे साथ काम करने वाले लागों की कतार कहीं ज्यादा बड़ी होती, तो हम सब्जीपुर की तरह दूर-दूर की धरती को भी स्वर्ग बना सकते हैं। खासकर गाँवों को। इसलिए कि गाँवों को छोड़-छोड़कर हमारे नौजवान शहर भाग रहे हैं। गाँव उजड़ते जा रहे हैं। यह देखकर मुझे तो भाई, बड़ा भारी दुख होता है।”

अपनी बात कहकर लौकीदेवी ने हाथ जोड़कर सबको प्रणाम किया और फिर सीधे अपनी झोंपड़ी में चली आईं, ताकि वे आगे के काम की योजना बना सकें।

दूर-दूर से आए पर्यावरणविद् हैरान होकर लौट रहे थे। लौकीदेवी में आज उन्होंने धरती की एक सच्ची देवी के दर्शन कर लिए थे।

इन्हीं लौकीदेवी ने, कहते हैं कि आजादी की लड़ाई के समय इस देश में अलख जगाने का काम भी किया। गरीब घर की कड़ियल सी करेला रानी ने उन्हीं से आजादी का मंत्र लिया और फिर देखते ही देखते मंचों पर किसी शेरनी की तरह दहाड़ने लगीं। लौकीदेवी जहाँ शांत और सीधी-सरल थीं, वहाँ करेला रानी इतनी जुझारू कि उनकी आवाज से कभी लपटें निकलतीं, कभी शोले।

हालाँकि हर बार लौटकर वे लौकीदेवी के चरणों में बैठतीं और उन्हें यह कहना न भूलतीं कि “दादी अम्माँ, तुम्हीं ने मुझमें अलख जगाया है। पर जोश में मैं आपा भूल जाती हूँ। कभी रास्ते से भटकूँ तो तुम बेहिचक मुझे फटकारकर सीधी राह पर ले आना।”

“अरे मेरी पग्गल, लेकिन बहुत सीधी-सच्ची बेटी…!” कहकर लौकीदेवी करेला रानी के सिर पर हाथ फेरने लगती हैं।

ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंBachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)