Parenting- भारतीय सभ्यता और संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृतियों में गिनी जाती है। इस देश के संस्कार और परम्पराओं के चर्चे अन्य देशों में खूब किये जाते हैं और यही कारण है कि विदेशी लोग हमारी इस संस्कृति और सभ्यता के साक्षी बनने के लिये हमारे देश में पधारते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हमारे आचार-विचार और व्यवहार पर पाश्चत्य सभ्यता का गहरा असर देखने को मिल रहा है। दुख की बात है कि सदियों से हमारे देश की धरती में रची-बसी सभ्यता व संस्कृति पर पाश्चत्य संस्कृति हावी होती रही है और हम अपनी मूल्यवान परंपरा और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार को आदर्श मानने वाले हम लोग अब केवल पति-पत्नी और बच्चों वाले एकल परिवार में सिमट गये हैं। परिवार छोटे होने के बावजूद हम अपने बच्चों को संस्कार सिखा पाने में असफल हो रहे हैं। जैसे कि पैर छू कर अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेना भारतीय संस्कार का अभिन्न अंग है, बच्चे हों या जवान सभी अपनों से बड़ों के पैर छूकर उन्हें प्रणाम कर आशीर्वाद लेते थे लेकिन ऐसे भारतीय संस्कारों की झलक अब हमें कम ही देखने को मिलती है।
अब तो पैर छूना ओल्ड फैशन माना जाने लगा है, पाश्चत्य सभ्यता की तर्ज पर छोटे अपने बड़ों को हाय-हैल्लो कहना ज्यादा मुनासिब समझते हैं। पैर छूना उन्हें पिछड़ेपन का अहसास कराता है, वहीं हाथ हिला-हिला कर हाय-हैल्लो कहना उन्हें आधुनिकता की पहचान लगता है। बच्चे अपने परिवार का ही भविष्य नहीं हैं बल्कि पूरे देश का भविष्य हैं। हमारे लिये बेहद जरूरी हो जाता है कि हम अपने देश की सभ्यता और संस्कारों की नींव उनमें अवश्य डालें। विडंबना है कि अन्य देशों में जहां हमारी संस्कृति को काफी ऊंचा दर्जा दिया जाता है, वहीं हमारे देश में यह संस्कृति और परंपराएं धूमिल होती जा रही हैं। इस बारे में श्री बालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टिट्यूट की क्लीनिक साइकॉलोजिस्ट पल्लवी जोशी कहती हैं कि भारतीय संस्कृति में लग रही सेंध के लिये केवल पश्चिमी सभ्यता को दोषी ठहराना ठीक नहीं है, यहां बहुत से ऐसे कई अन्य कारण हैं जिनसे हमारे समाज के बच्चे अपनी परंपरा और संस्कृति से कटते जा रहे हैं।
बच्चे क्यों भूल रहे हैं

डॉ. पल्लवी कहती हैं कि मेरे पास कई ऐसे मामले आते हैं जिनमे माता-पिता अपने बच्चों को लेकर परेशान होते हैं। वो अक्सर शिकायत करते हैं कि उनके बच्चे उनसे कोई खास लगाव नहीं रखते हैं, उन्हें किसी बात पर टोको तो नाराज हो जाते हैं और लड़ाई-झगड़े पर उतारू हो जाते हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति को तो जैसे वो जानते ही नहीं हैं। हम तो अपने बच्चे की हर खुशी और उसकी सारी जरूरतें पूरी करते हैं, हमने तो बच्चे को हमेशा अच्छी बातें ही सिखाने का प्रयास किया था, पता नहीं हमारे बच्चे ऐसे कैसे हो गए। वो सारा दोष टीवी, फिल्मों या फिर पश्चिमी सभ्यता पर मढ़ देते हैं। अपने बच्चों के संस्कारहीन होने के लिये खुद को जिम्मेदार मानने के लिये तैयार नहीं होते हैं। बच्चों के इस व्यवहार के लिये मैं सबसे पहले अभिभावकों को ही जिम्मेदार मानती हूं, क्योंकि बच्चा वही आदतें अपनाता है या वैसा ही व्यवहार करता है जैसे वो अपने आस-पास देखता है। एक बेसिक सी बात है कि किसी बात को सीखने का एक लॄनग प्रोसेस होता है, जिसे अधिगम भी कहते हैं और वो केवल देखने से ही होता है। बच्चे को मां-बाप बातों के जरिये चाहे कितना भी समझा लें लेकिन वो उन बातों को आदतों में तब तक नहीं लायेगा जब तक कि वो उन बातों को एक्शन के रूप में अपने सामने नहीं देखता है। मतलब साफ है कि बच्चा ठीक वैसा ही करता है जैसा वो अपने बड़ों को करता देखता है।
- अगर हम ध्यान से देखें तो पाते हैं कि पिछले तीस-पैंतीस सालों में बड़ों के व्यवहार में भी काफी बदलाव आया है। पहले जहां संयुक्त परिवार उनकी प्राथिमकता होती थी, वो एकल परिवार में तब्दील हो गयी है। जब हमारे बड़े ही अपने मां-बाप को छोड़कर अपने बच्चों के साथ अलग रहने लगे हैं तो बच्चे भी तो देखा-देखी वही कर रहे हैं जो उन्होंने आपको करते देखा है। इसीलिये बुढ़ापे में बच्चों द्वारा आप का साथ छोडऩे पर वो ही जिम्मेदार नहीं होते हैं, क्योंकि वो वही कर रहें हैं जो उन्होंने अपने बड़ो को करते देखा है।
- आज के बच्चे पैर छूने की बजाय अपने बड़ों को हाय-हैल्लो कहना पसंद करते हैं, तो इसके लिये केवल बच्चे ही जिम्मेदार नहीं हैं, ये भी हम बड़ों ने ही उन्हें सिखाया है। जब कोई बच्चा पैर छूने के लिये आगे बढ़ता है तो अधिकतर हम बड़े ही उन्हें ऐसा करने से रोक देते हैं, हम उन्हें आशीर्वाद कहां देते हैं, उन्हें हम ही तो सिखाते हैं कि अरे-अरे पैर छूने की क्या जरूरत है। इस तरह जब बच्चे देखते हैं कि बड़े हमें ऐसा करने से मना करते हैं तो वो आगे ऐसा क्यों करना चाहेंगे।
- बच्चों द्वारा अपनी परंपरा और संस्कृति की अवहेलना के पीछे हमारी अपनी ही जागरूकरता की कमी है। हम अपने बच्चों को तर्क देकर कुछ करने के लिये समझाते नहीं। जब बच्चा हमसे प्रश्न पूछता है तो हम उसे डांटकर बस उस काम को करने के लिये कह देते है। यदि बच्चा उस काम के महत्व और मतलब को समझेगा नहीं तो उसे अपने जीवन में सदा के लिये अपनाएगा कैसे?
- हम हर समय पश्चिमी सभ्यता को कोसते रहते हैं, अरे पश्चिम का भी अपना कल्चर है। वो अपने बच्चों को वो सब करने के लिये बिलकुल नहीं कहते हैं जो वो खुद नहीं करते। वो अपने बच्चों को बड़े होने पर अपने साथ रहने के लिये मजबूर नहीं करते हैं, क्योंकि वो खुद भी अपने माता-पिता के संग नहीं रहे हैं। यूरोप और अमेरिका में बूढ़े लोग अपने अंतिम संस्कार के लिये खुद पैसे जोड़ते हैं और जगह भी खुद ढूंढते हैं। वो वहां का कल्चर है। वो कभी भी अपने बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं रखते हैं। वो जानते हैं कि जब उन्होंने अपने माता-पिता के लिये नहीं किया तो उनके बच्चे क्यों करेंगे। हम अपने बच्चों से हर चीज की अपेक्षा रखते हैं, चाहे हमने ऐसा किया हो या ना किया हो। इसलिये अपने समाज में खोते संस्कारों के लिये पश्चिमी सभ्यता को जिम्मेदार ठहराना कोई सही नहीं है।