Lord Ram
Lord Ram

Lord Ram Story: राम वह नाम हैं जिनके स्मरण मात्र से व्यक्ति विशेष में राम तत्व का समावेश होने लगता है। राम के मूल गुण यानी सत्य , धर्म , प्रेम , निष्ठा , धैर्य व सहिष्णुता इत्यादि हैं। कहते हैं राम के इन गुणों में से एक भी अपना लिया जाए तो व्यक्तित्व में सोने सी चमक आ जाती है। श्री राम विष्णु के दशावतार में सातवें अवतार हैं। पृथ्वी पर इनका आगमन ही पृथ्वीवासियों के कल्याण के लिए हुआ था। राम ने अपने जीवनकाल में कई आदर्शों की स्थापना की।

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जब श्रीराम विद्या ग्रहण करके अयोध्या वापस आ गए तब ब्रह्मïर्षि विश्वामित्र अयोध्या पधारे। उन्होंने दशरथ को बताया कि उनके आश्रम पर आए दिन राक्षसों का आक्रमण होता रहता है जिससे उन्हें यज्ञ आदि करने में बाधा हो रही है। अत: वे श्रीराम को उनके साथ चलने की आज्ञा दें। तब दशरथ ने कुछ आनाकानी करने के बाद श्रीराम को उनके साथ चलने की आज्ञा दे दी। लक्ष्मण हमेशा अपने भाई श्रीराम के साथ ही रहते थे इसलिये वे भी उनके साथ गए। वहां जाकर श्रीराम ने अपने गुरु विश्वामित्र के आदेश पर आश्रम पर आए संकट को दूर किया। इस प्रकार श्री रामचंद्र जी ने गुरु की आज्ञा के पालन का आदर्श कायम किया।

माता कैकई के कहने पर जब पिता ने वनवास की आज्ञा सुनाई तब वह उतने ही सहज व स्नेह भाव से वन की ओर निकल पड़े। उनके मन में पिता और माता के प्रति आदर में किंचित भी अंतर नहीं आया।

वे न केवल आदर्श पुत्र बल्कि एक आदर्श भाई भी थे जिन्होंने लक्ष्मण को सदा साथ रखा तथा भरत व शत्रुघ्न से भी अगाध स्नेह करते रहे।

उन दिनों मुख्यतया एक राजा की कई पत्नियां हुआ करती थी। स्वयं श्रीराम के पिता दशरथ की तीन पत्नियां थी किंतु श्रीराम ने सीता को वचन दिया कि वे आजीवन किसी पराई स्त्री के बारे में सोचेंगे तक नहीं। जीवनभर केवल और केवल सीता ही उनकी धर्मपत्नी रहीं। इस प्रकार उन्होंने एक पति-पत्नी के आदर्शों को स्थापित किया।

अयोध्या की प्रजा श्रीराम के द्वारा माता सीता का त्याग चाहती थी। यह सुनकर श्रीराम का मन व्यथित हो उठा तथा उन्होंने अपनी पत्नी सीता से विचार-विमर्श किया। अंत में यह निर्णय लिया गया कि श्रीराम माता सीता का त्याग कर देंगे व माता सीता वन में जाकर निवास करेंगी। इससे श्रीराम ने राजधर्म की शिक्षा दी। राजधर्म की स्थापना हेतु श्रीराम ने सीता का त्याग कर दिया। सीता वन में चली गयी मगर वह भी उनकी ही भांति राजमहल की सभी राजसी वस्तुओं का त्याग कर भूमि पर सोते थे।

कई वर्षो के पश्चात श्रीराम ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ दिया गया। वह घोड़ा जहां-जहां से भी निकला वहां-वहां के राजाओं ने श्रीराम की अधीनता स्वीकार की लेकिन वाल्मीकि आश्रम के पास दो बालको ने उनको युद्ध की चुनौती दे डाली। उनसे युद्ध करने के लिए श्रीराम ने एक-एक करके अपने सभी भाइयों, सुग्रीव व हनुमान को भेजा लेकिन सभी योद्धाओं को उन बालको ने परास्त कर दिया। अंत में श्रीराम स्वयं गए तो महर्षि वाल्मीकि जी ने आकर युद्ध रुकवाया व दोनों बालको को अपने राजा से क्षमा मांगने को कहा। इसके बाद श्रीराम वह घोड़ा लेकर पुन: अयोध्या आ गए।

इसके कुछ दिनों के पश्चात अयोध्या में दो बालको की चर्चा शुरू हो गयी जो अयोध्या की गलियों में घूम-घूमकर अपने गुरु महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण लोगों को सुनाते थे। यह सुनकर श्रीराम ने उन दोनों बालको को आमंत्रण दिया तथा राम दरबार में रामायण सुनाने को कहा। वे दोनों बालक वही थे जिन्होंने श्रीराम का घोड़ा पकड़ा था।

सीता का धरती में समा जाना अगले दिन दोनों बालको ने अपना नाम लव-कुश बताया व श्रीराम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की संपूर्ण कथा छंदबद्ध तरीक से सुनाकर सभी को सम्मोहित कर लिया। माता सीता के अकेले वन में जाने के बाद की कथा को कोई नही जानता था लेकिन उन बालको ने माता सीता के द्वारा वन में बिताए जा रहे जीवन को अयोध्या के समक्ष रखा व स्वयं को श्रीराम व माता सीता का पुत्र बताया। यह सुनकर वहां खड़े सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए तथा श्रीराम भी अधीर हो गए लेकिन एक राजा का कर्तव्य निभाते हुए उन्होंने स्वयं माता सीता को राज दरबार में आकर यह बताने को कहा कि यह दोनों उन्ही के पुत्र हैं। अगले दिन माता सीता राज दरबार में आयी तथा द्रवित होकर यह घोषणा की कि यदि ये दोनों श्रीराम व उन्ही के पुत्र हैं तो यह धरती फट जाए व माता सीता उसमें समा जाए।

इतना सुनते ही धरती फट पड़ी व माता सीता उसमें समा गयी। श्रीराम यह देखकर माता सीता को पकड़ने दौड़े लेकिन बचा नहीं सके। इससे वे विलाप करने लगे तथा अत्यंत क्रोधित हो गए। तब भगवान ब्रह्मा ने प्रकट होकर उन्हें उनके असली स्वरुप का ज्ञान करवाया तथा बताया कि अब माता सीता से उनकी भेंट वैकुण्ठ धाम में होगी। इसके बाद श्रीराम का मन शांत हुआ व उन्होंने अपने दोनों पुत्रों लव व कुश को अपना लिया।

माता सीता के जाने के बाद श्रीराम ने अयोध्या का राजकाज कुछ वर्षों तक और संभाला। इसके बाद उन्होंने अपना साम्राज्य अपने दोनों पुत्रों लव-कुश व भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के पुत्रों में बांट दिया व स्वयं जल में समाधि ले ली।

समाधि लेने से पहले वे जानते थे कि लक्ष्मण व हनुमान उन्हें ऐसा नही करने देंगे। इसलिये उन्होंने हनुमान को तो पाताल लोक भेज दिया तथा लक्ष्मण का योजना के तहत त्याग कर दिया। अपने त्याग के बाद लक्ष्मण ने सरयू नदी में समाधि ले ली।

उसके बाद श्रीराम ने अपने बाकि दो भाइयों व अयोध्या की प्रजा के कुछ लोगो सहित जल में समाधि ले ली व अपने धाम को पहुंच गए। इस प्रकार श्रीराम अपने अवतार का उद्देश्य पूर्ण कर पुन: अपने धाम वैकुण्ठ पधार गए।

राम आदर्शों की पराकाष्ठा थे यही कारण है कि समस्त चराचर उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जानते हैं। जहां एक ओर वह सारे संसार के लिए परम अनुकरणीय एवं आदर्श का द्योतक हैं वहीं दूसरी ओर मिथिला के दामाद हैं अत: मिथिला से उनके संबंध की मधुरता को समझने के लिए सर्वप्रथम जनकपुरी की भूमि को समझेंगे।

जब हम कोसलपुरी अयोध्या का नाम लेते हैं, उस समय विदेह-पुरी मिथिला का भी स्मरण हो आता है। ये दोनों ही धार्मिक पुरियां हर काल में हमारे लिए प्रेरणा एवं संबल का स्रोत रही हैं। यह वर्तमान में उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाका है जिसे मिथिला या मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था। मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परंपरा के लिये भारत और भारत के बाहर जाना जाता रहा है। इस इलाके की प्रमुख भाषा मैथिली है। धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका उल्लेख रामायण में मिलता है।

मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है। मिथिला नरेश राजा जनक थे। जनक की पुत्री सीता थी। सीताजी का प्रादुर्भाव सीतामढ़ी के पास पुनौरा गांव में हुआ था और पालन-पोषण जनकपुर नगर, नेपाल में। आज भी नेपाल में विवाह पंचमी उत्सव के तौर पर मनाया जाता है, इस दिन भगवान राम और सीता का विवाह हुआ था। ऐसी मान्यता है कि एक बार माता सीता ने मंदिर में रखे भगवान शिव के धनुष को उठा लिया था, जिसे परशुराम के अलावा किसी ने नहीं उठाया था, तब ही राजा जनक ने निर्णय लिया था कि वे अपनी पुत्री के योग्य उसी मनुष्य को समझेंगे जो उस धनुष को उठाये और उस पर प्रत्यंचा चढ़ाए।

जनकपुरी में सीता स्वयंवर का आयोजन रखा गया। सभा में उपस्थित जितने भी राजा व राजकुमार आमंत्रित थे उनमें से कोई भी वीर धनुष को हिला तक न सका। यह देख राजा जनक बड़े दुखित हुए तब गुरु विश्वामित्र के आदेश पर स्वयंवर देखने आए श्री राम आगे बढ़े और एक हाथ से धनुष उठा लिया जिस पर प्रत्यंचा कसते हुए धनुष टूट गया। राजा जनक समेत उपस्थित सभी गणमान्य श्री राम की जय-जयकार कर उठे। तब राजा जनक ने पुत्री जानकी से उनका विवाह संपन्न कराया था। इस नाते वे मिथिला के जमाई बने। कोई भी पुरुष अपने विवाह के दिन सबसे सुंदर दिखता है उनके उस दिव्य अलौकिक रूप के दर्शन का सौभाग्य भी केवल मिथिला को ही मिला। इस नाते मिथिला का उनसे बेहद गहरा नाता है।

मिथिला के राम पूरे अलग हैं जिसे समझने के लिए मिथिला की भूमि को समझना होगा। वहां के लोगों के हृदय को समझना होगा। सारे जगत का श्रीराम से धर्म का नाता है। अयोध्या से उनका जन्म का नाता है मगर मिथिला यानी जनकपुर से उनका प्रेम का नाता है। जहां दशरथ पुत्र श्री राम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र की पूजा आराधना हेतु पुष्पवाटिका से फूल लेने आए थे और जानकी से प्रथम मुलाकात हुई। यह पुष्पवाटिका आज हरलाखी के फुलहर के नाम से जानी जाती है। यही वह पवित्र स्थान है जहां मर्यादा पुरुषोत्तम की निगाहें सीता से मिलीं। यहीं आकर उन्हें प्रेम हुआ था।

विवाह पंचमी के पावन अवसर पर समस्त जनकपुर सुसज्जित हुआ और सबने उन्हें अपलक निहारा साथ ही अपना अनवरत स्नेह दिया। मिथिला की भूमि उनसे जुड़कर अपने को धन्य मानती है, कृतार्थ रहती है। जिस तरह अयोध्या में श्री राम सर्वप्रिय हैं ठीक उसी तरह जानकी मिथिला की बेटी हैं उनसे भी सभी स्नेह करते हैं। इस नाते मिथिला वासी उनसे कुछ मांगते नहीं बल्कि देना चाहते हैं। परंपरा के अनुसार मिथिला वासी पाग, पान और फूल मखाना भेंट करना चाहते हैं। मिथिला आज भी उन्हें अपना पाहुन मानता है। आज भी कुछ पुराने लोग अयोध्या का जल ग्रहण नहीं करते क्योंकि कन्यादान के बाद बेटी के घर का जल निषेध होता है।

मिथिला का उनसे इतना स्नेह है कि वे उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानते हैं जहां प्रेम से अपनी बात कहने से नहीं चूकते। राम जी की बारात को भी मिथिलावासियों की गाली सुननी पड़ी थी। आज भी यहां के विवाह की परंपराओं में गाली देने का रिवाज है। जैसा इन पंक्तियों से मालूम पड़ता है।
‘अहां के लेलनी खरिदी यो रघुवंशी दुलहा
मिथिला में गेलों बिकाय यो रघुवंशी दुलहा

जिसमें यह वर्णित है कि मिथिला में आकर वह बिक गए, राजा जनक ने उन्हें खरीद लिया है। यह सुनकर राम भी मंद-मंद मुस्काते हैं। विदाई के समय ताने भरे गीत गाए जाते हैं।
‘बड़ा ही जतनसं सिया धिया पोसलहुं
सेहो रघुवंशी नेने जाय…

एक तरफ उन्हें श्री राम जैसे वीर पुरुष के दामाद बनने पर गर्व है तो दूसरी ओर रीति के अनुसार उलाहना देने से भी नहीं चूकते। आज भी वहां के विवाह में राम की उपस्थिति सर्वदा महसूस की जाती है। राम ही राम हर ओर दिखते हैं जैसे इस गीत में सुनें।
‘गौरी पूजू जानकी जनक भवन में

यह मधुश्रावणी का गीत है। विवाह के पहले सावन में पूरे पंद्रह दिनों तक शिव और गौरी की पूजा कर अखंड सौभाग्य मांगा जाता है। यहां की बेटियों को सीता व दामाद को श्री राम जी की नजर से देखा जाता है। फिर होली के गीतों में भी श्री राम हैं।
‘मिथिला में राम खेलेथी होली मिथिला में…

राम और सीता मिथिला के त्यौहार एवं समस्त रीति रिवाज में कुछ ऐसे समाए हैं कि उनकी चर्चा बिना आज भी कोई त्योहार पूर्ण नहीं होता।

मिथिला वासियों का अपने जमाई राम के प्रति चाहे जितने भी आदर के भाव हो पर बेटी सीता के दुख से अनभिज्ञ नहीं हैं। उनका दुख देखकर कंठ अवरुद्ध होता है तभी यहां के लोग दामाद में राम जैसे गुण जरूर देखना चाहते हैं मगर बेटी का भाग्य सीता जैसा नहीं चाहते। सीता को सारी उम्र महल के समस्त सुखों व धन वैभव का परित्याग कर वन में रहना पड़ा था। वहां की स्त्री जब कभी दुखी होती है तो सहसा कह उठती है-
‘हे धरती माय अहां फाटू हम समाय जाय…!

इस भूमि में राम के प्रति अगाध स्नेह व सीता के प्रति एक मूक सहानुभूति सर्वत्र व्याप्त है।
त्रेता युग के साथ आज के युग में पूर्ण रूपेण सार्थक है क्योंकि भारत देश भगवान श्रीराम के आदरर्शों पर चलने वाला देश है यहां के कण-कण में प्रभु श्रीराम बसते हैं।