Life Lessons by Sadhguru: अगर तुम संस्कृतियों के बीच, पश्चिम और पूरब के बीच, आंकड़ों की तुलना करोगे तो अंतर केवल शिक्षा और धन के संदर्भ में ही नहीं है। एक पूरी सांस्कृतिक भिन्नता है। उदाहरण के तौर पर, अगर तुम भारत और अमेरिका को ले लो, भारत के पास एक मजबूत आध्यात्मिक परंपरा मानी जाती है
और अमेरिका को एक आर्थिक संस्कृति के रूप में देखा जाता है। उस संस्कृति में हरेक चीज मूलत: अर्थशास्त्र है। इसलिए अंतर सांस्कृतिक है। व्यक्तिगत स्तर पर, अगर तुम उन्हें देखोगे तो ज्यादा अंतर नहीं है। यहां पर एक पूरी आध्यात्मिक परंपरा है, इसलिए लोगों ने उस संभावना को लिया है, क्योंकि वह हमेशा से उपलब्ध रही है। वहां पर जब एक बच्चा बड़ा होता है- मान लो कि वह बारह या तेरह साल का है उसकी पूरी जानकारी वही होती है जो उसे उस संस्कृति से मिलती है। इसलिए वह वैसा ही हो जाता है। एक व्यक्ति के लिए यह देखना कि उसकी संस्कृति के बाहर और क्या-क्या उपलब्ध है, इसमें थोड़े ज्यादा विवेक की जरूरत होती है।
भारत में, चाहे तुम इसे पसंद करो या न करो- यद्यपि तुम्हें इससे नफरत हो- अध्यात्म किसी न किसी तरह से तुम्हारे अंदर घुस जाता है। यह इसलिए नहीं हुआ कि तुम इसके लिए तड़प रहे थे यह तुम्हें स्वत: छूता है, क्योंकि यह हरेक जगह था। इसलिए अगर तुम सांख्यिकीय आंकड़ों को देखते हो, तो मात्र आर्थिक संपन्नता और शैक्षणिक योग्यता को आधार के रूप में लेना ठीक नहीं है, एक पूरा सांस्कृतिक समीकरण है। इस भूमि में इतना ज्यादा अध्यात्म क्यों है और हमेशा से रहा है, इसका कारण यह है कि यह हमेशा से एक बहुत स्थिर संस्कृति रही है। अगर कोई भी संस्कृति एक जगह में कई सालों तक बनी रहती है, तो निश्चित तौर पर उस भूमि में अध्यात्म एक विशाल शक्ति बन जाएगा, लेकिन जब संस्कृति नयी होगी, तो स्वाभाविक है कि अर्थशास्त्र उस संस्कृति का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू होगा। जहां कहीं भी संस्कृति बहुत पुरानी रही है, वहां जीवन के गूढ़ आयाम बहुत सक्रिय होंगे।
जहां भी संस्कृति नई है, अर्थशास्त्र और सामाजिक कुशलता सबसे ज्यादा सक्रिय होंगे, क्योंकि वे ही प्रथम चीजें हैं जिन पर तुम अपने जीवन में ध्यान देते हो। जब तुम्हारी आर्थिक और सामाजिक जरूरतें भलीभांति पूरी होती है, केवल तभी-एक व्यक्ति के रूप में या एक संस्कृति के रूप में-तुम उनसे ऊपर उठकर और दूसरे आयामों की तलाश करना शुरू करते हो। जब तक कि ये जरूरतें पूरी नहीं होती, तुम केवल इन्हीं चीजों को व्यवस्थित करने के संबंध में सोचते रहते हो। उस आदमी से जो सड़क पर भूखा है, तुम अध्यात्म की बातें नहीं कर सकते हो, उसके लिए इसका कोई अर्थ नहीं है। बहुत सारे आध्यात्मिक मुमुक्षु-साधु और संन्यासी हैं जिन्होंने भूखे रहने का चुनाव किया है, उनकी बात अलग है। लेकिन कोई आदमी जो जीवन की परिस्थितियों के कारण भूखा है, उससे तुम जीवन के गूढ़ आयामों की बात नहीं कर सकते। एक संस्कृति जो हजारों सालों से परिपक्व है, उसमें त्याग की, कुशलता को छोड़ने की और ज्ञान की तलाश में सड़कों पर भटकने की समझ विकसित होती है। संसार में और कहीं भी तुम ऐसा नहीं देखोगे, लेकिन भारत में हम यह जानते हैं। कितने सारे राजाओं और महाराजाओं ने अपने राज्य का, अपने धन का, अपने आराम का, अपने सुख का त्याग कर दिया और एक भिखारी की तरह सड़कों पर भटकने लगे। यह केवल एक ऐसी संस्कृति में ही हो सकता है, जो एक लंबे समय तक स्थिर रही हो, जहां पर धीरे-धीरे जीवन के दूसरे पहलू, मात्र भौतिक अस्तित्व की अपेक्षा ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए हों। तब तुम्हारी सोच जीवन-संरक्षण की स्वाभाविक प्रवृति से परे जाती है। अगर जीवन-संरक्षण अभी भी महत्त्वपूर्ण बना हुआ है, तो तुम्हारी सारी तलाश कुशलता की होगी।
