19वीं शताब्दी के दौरान भारतीय समाज अनेक सामाजिक बुराइयों से पीड़ित रहा। ब्रह्म समाज, भारतीय सामाजिक सम्मेलन, मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी आदि जैसे अलग अलग सामाजिक सुधार आंदोलनों को विभिन्न सामाजिक बुराइयों के खिलाफ निर्देशित किया गया था। हमारा समाज जाति व्यवस्था, महिलाओं की दयनीय स्थिति, अशिक्षा, बाल विवाह, सती, बहुविवाह आदि कई बुराइयों से पीड़ित था।
आज हम आपको ऐसे ही कुछ कुप्रथा के बारे में बताएंगे जो हमारे समाज भी आज भी देखने को मिलता है। साथ ही उन कुप्रथाओं के बारे में बताएंगे जो कभी हमारे समाज में होते थे।
महिलाओं की दयनीय स्थिति

पारंपरिक समाज में प्रचलित सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थितियों के कारण महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। उन्हें समाज में पुरुषों की तुलना में बहुत ही निम्न दर्जा दिया जाता था। यहां तक कि उन्हें अपनी सामाजिक और आर्थिक जरूरतों के लिए पूरी तरह से पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता था। महिलाओं की यह स्थिति भारतीय समाज में विद्यमान अनेक सामाजिक बुराइयों के कारण थी। आइए यहां उन उन स्थिति के बारे में जानते हैं जिन्होंने महिलाओं के जीवन में बहुत बड़ा अभिशाप था।
सती प्रथा- इस प्रथा के तहत एक हिंदू महिला को अपने मृत पति के साथ खुद को जलाकर मारना पड़ता था। अधिकांश मामलों में उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया या जलती हुई चिता में फेंक दिया गया।
महिलाओं का समाज में लो स्टेटस- उन दिनों महिलाओं को समानता के अधिकार से वंचित रखा जाता था। उन्हें पुरुषों से हीन समझा जाता था। उन पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए गए। उन पर पहले पिता का, फिर पति का और फिर बेटों और ससुराल वालों का दबदबा रहा।
कन्या भ्रूण हत्या- बेटी का जन्म परिवार पर एक बड़ा बोझ माना जाता था। इसलिए, कई मामलों में, उन्हें उनके जन्म के तुरंत बाद ही मौत के घाट उतार दिया गया। नवजात बेटियों को गला घोंट कर मार दिया गया क्योंकि उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं था।
शिक्षा से वंचित करना- उन्हें रोजगार तलाशने का कोई अधिकार नहीं था। इसका ये मतलब है कि स्त्रियों की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में उन्हें जीवन भर अशिक्षा का अभिशाप झेलना पड़ा था।
दहेज प्रथा- दहेज प्रथा ने जीवन को भारी नुकसान पहुंचाया है। कई गरीब लड़कियां अपने माता-पिता की पीड़ा को दूर करने के लिए आत्महत्या कर लेती हैं। यदि कोई व्यक्ति डायरेक्टली और इनडायरेक्टली किसी दुल्हन या दूल्हे के माता-पिता या अन्य रिश्तेदारों या अभिभावक से दहेज की मांग करता है, तो उन्हें जेल होने के साथ साथ 10 हजार तक जुर्माना भी भरना पड़ सकता है।
पितृसत्तात्मक परिवार- पहले के जमाने में और आज भी कई घरों में पुरुष प्रधान परिवार होते थे। इसलिए गंभीर मामलों में महिलाओं से कभी सलाह नहीं ली गई। अब ऐसा नहीं है। अब महिलाएं भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है।
विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं- विधवा एक सामाजिक बोझ थी। उसे पुनर्विवाह का अधिकार नहीं दिया गया था। उन्हें समाज में तिरस्कृत किया जाता था। विधवा ने या तो दयनीय जीवन व्यतीत किया या आत्महत्या कर अपने अभिशप्त जीवन का अंत कर दिया।
संपत्ति के अधिकार से वंचित- हिंदू महिला को अपने पति की संपत्ति को विरासत में पाने का कोई अधिकार नहीं था, लेकिन अब इसमें भी बदलाव किए गए हैं।
मुस्लिम महिलाओं में तलाक का डर- मुस्लिम महिलाओं को हमेशा तलाक का डर रहता था। उसका जीवन दयनीय था क्योंकि उसके पति की कई पत्नियां हो सकती थीं। ऐसे में जीवन बीताना काफी मुश्किल हो जाता था।
इसके बाद जब लॉर्ड विलियम बेंटिक 1828 में भारत के गवर्नर-जनरल बने। उन्होंने राजा राममोहन राय को सती, बहुविवाह, बाल विवाह और कन्या भ्रूण हत्या जैसी कई प्रचलित सामाजिक बुराइयों को खत्म में मदद की। लॉर्ड बेंटिक ने ब्रिटिश भारत में कंपनी के अधिकार क्षेत्र में सती पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून पारित किया।
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जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता(Untouchability)

जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता उन दिनों में एक और सबसे घृणित प्रथा थी। समाज के निम्न जाति के सदस्यों से बहुत घृणा की जाती थी। उनसे सफाई, चमड़े का काम, मरे हुए जानवरों को ढोना और जूते बनाने और मरम्मत करने जैसे हर तरह के शारीरिक काम करवाए जाते थे। इसके अलावा इन लोगों को अछूत माना जाता था। उन्हें सार्वजनिक कुओं, तालाबों, मंदिरों, विद्यालयों आदि का उपयोग करने की अनुमति नहीं थी। उन्हें सेना और अन्य सरकारी नौकरियों में भी भर्ती नहीं किया जाता था। इस प्रकार समाज का एक बड़ा हिस्सा मानव अधिकारों का आनंद नहीं ले रहा था। इसके अलावा, इस बुराई ने भारतीय सामाजिक जीवन में एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असंतुलन पैदा किया जिससे समाज को बहुत नुकसान हुआ।
19वीं शताब्दी के आधुनिक समाज सुधारकों ने इस बुराई पर आक्रमण करना आवश्यक समझा क्योंकि वे इसे अमानवीय और सामाजिक पार्टिशन के लिए जिम्मेदार सामाजिक बुराई मानते थे। लेकिन, अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीतिक क्षेत्र में आधुनिक सुधारों ने इस बुराई को बहुत कमजोर कर दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास ने भी अस्पृश्यता निवारण में बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया। अब, स्वतंत्र भारत में, जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता की प्रथा को कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया है।
बाल विवाह

बाल विवाह एक अन्य सामाजिक बुराई थी जिससे 19वीं शताब्दी का भारतीय समाज पीड़ित था। इस बुराई ने विवाहित बच्चों के स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित किया और समाज पर कई बुरे प्रभाव उत्पन्न किए। इसीलिए राजा राम मोहन राय, केशव चंद्र सेन, महादेव गोविंद रानाडे और स्वामी दयानंद जैसे कई समाज सुधारकों ने बाल विवाह पर खुलकर हमला किया और इसको खत्म करने के लिए अभियान चलाया। उनके प्रयासों के कारण ही 1860 में एक कानून पारित किया गया था, जिसमें लड़कियों की विवाह योग्य आयु बढ़ाकर दस कर दी गई थी, जो उन दिनों एक महत्वपूर्ण विकास था।
ये वो कुप्रथा है जिसका महिलाओं के जीवन पर असर हुआ है। हालांकि बीते कुछ सालों महिलाओं को लेकर कई विकास हो चुके हैं। अब वो शिक्षित हैं,अपने जीवन के फैसले खुद लेती हैं। साथ ही अब शादी भी अपने सुविधा के अनुसार करती हैं। महिलाओं को समाज में वही सम्मान मिल रहा है जो पहले केवल पुरुषों को मिला करता था। आने वाला समय इससे भी बेहतर होने की उम्मीद में है।
