Lord Shiva: महादेव भोलेनाथ का ध्यान करते ही, हमारी आंखों के आगे, उनके कई रूप साकार हो उठते हैं और मन उनके हर रूप पर मुग्ध होता है। उन्हें हम सभी ने ध्यान में लीन देखा है, प्रश्न यह भी उठता है मन में कि महादेव जिनकी भक्ति संसार करता है वह किसकी भक्ति करते हैं?
भगवान शिव सदा भगवान विष्णु का ध्यान करते हैं और श्री हरि सदाशिव का, इसीलिये जब जब भगवान विष्णु ने इस पावन धरा पर अवतार लिया, तो भोलेनाथ उनके दर्शन के लिये जरूर आये। इसीलिये महादेव को भगवान विष्णु का भक्त अर्थात परम वैष्णव कहा गया है। उनके कई रूप हैं, आइये मिलते हैं उनके विभिन्न रूपों से-
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तपस्वी शिव
कैलाश शिखर की शिला पर बैठे, एकांतवासी बाघम्बर लपेटे जटाजूट पर चन्द्र, शीश पर गङ्गा, ध्यानमग्न तीन नेत्र, गले मे वासुकि नाग डाले, भस्म रमाये इष्ट के ध्यान में लीन, सुध ही नहीं, न डमरू न त्रिशूल, न कोई राग पूर्ण बैरागी।
गृहस्थ शिव
जब उनके गृहस्थ रूप को ध्यान करते हैं तो उन्हें हम विसंगतियों के साथ संगति में जीना सिखाते हैं, हर सदस्य एक-दूसरे से विपरीत परंतु फिर भी एक-दूसरे के साथ।
अघोरी शिव
घोर कहते हैं संसार को जिसे सब कुछ सुंदर चाहिये और शिव को सबसे प्रेम है, जिसे संसार से प्रेम नहीं मिला उससे भी। इसलिये उन्हें अघोरी कहते हैं, चिताभस्म को लपेटकर जो राम में रमे वह शिव है। उनके उस रूप से मनुष्य का मिलन मरने के बाद ही हो पाता है।
तांत्रिक शिव
तंत्र का अर्थ होता है- सिस्टम यानी क्रमबद्धता। विभिन्न इतर योनियों से मिलने वाली सहायता जो साधारण जीवन में संभव नहीं। उनसे जुड़ी क्रियाओं का मार्ग भी दाम, वाम है पर जाता सब कुछ शिव की ही ओर है। उसे शिव के इस रूप से प्राप्त किया जाता है सारी इतर योनियों भूतप्रेत, नाग, विष, सर्प, पिशाच, यक्ष जिन्हें कोई भोजन नहीं देता। भगवान उन्हें भी आजीविका देते हैं इसीलिये उन्हें भूतभावन कहा जाता है।
प्रेमी शिव
उन्हें भी जनसामान्य की तरह अपनी प्रिया से इतना प्रेम है कि उनकी जली हुई देह लेकर वियोग में सब कुछ भुलाकर फिरते हैं और इंद्र के नन्दन कानन के एक पारिजात पुष्प की कामना पर वही शिव माता पार्वती के लिये पूरा वन रच डालते हैं।
परम् वैष्णव महादेव
अब प्रश्न यह उठता है कि भूतों के देवता, अमङ्गल वेषधारी, श्मशान के स्वामी, तांत्रिकों के उपास्य परम् वैष्णव कैसे? क्योंकि तन्त्र में तो वह सब कुछ है जो वैष्णवों के विपरीत है। शिव हर राग से परे हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छह मछलियां कही गई हैं जीवन में जिनका त्याग अनिवार्य है।
हम जब तक जीवित रहते हैं संसार में रमे रहते हैं और रमने तक हमारा निर्वहन हरि करते हैं, मरने के बाद की मुक्ति शिव के अधीन है। हरि और हर परस्पर एक-दूसरे के उपासक भी हैं और उपास्य भी, वो एक-दूसरे से भिन्न हैं ही नहीं, शिव इतने निर्मल हैं कि उनमें कालकूट विष के लिये भी स्थान है, इसीलिये वो श्री हरि के उपास्य हैं।
‘शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहिं सपनेहुं नहीं पावाÓ इस चौपाई में भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम यह स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि जिसे शिव जी में श्रद्धा नहीं वह मेरा भक्त हो ही नहीं सकता। भगवान शिव जी जिन्हें त्रिदेवों में महादेव कहा जाता है वे अजातशत्रु हैं अर्थात उनसे सबको ही प्रेम प्राप्त होता है।
अजातशत्रु शिव
जिनकी भक्ति इस संसार में सारे देवता, मनुष्य, ऋषि-मुनि, असुर, दैत्य, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर सभी करते हैं, क्योंकि वो निष्कपट हैं, यदि किसी ने उनकी आराधना की तो वह उसे निराश नहीं करते भले ही वह भस्मासुर सा क्यों न हो। सबके लिये समान दृष्टिकोण रखना मात्र शिव के लिये ही संभव है।
रामभक्त शिव
भगवान शिव कैलाश छोड़ कर सिर्फ भगवान की बाल लीला देखने आए, त्रेतायुग में वो ज्योतिषी का रूप लेकर भगवान राम के बालरूप का दर्शन करने अयोध्या गये, जिससे वह श्री हरि का स्पर्श कर सकें। स्वयं हनुमान जी उनका एक अंश कहे गये हैं।
माता सती ने भी एक बार उनसे प्रश्न किया कि आप निरंतर किसका स्मरण करते हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि मैं राम का स्मरण करता हूं। कहते हैं कि इस संसार को शब्द बांटते समय भगवान शिव ने दो अक्षरों को अपने लिये रख लिया। ये दो अक्षर हैं- ‘राम’, हमारी हिंदी वर्णमाला में ‘ 27वां अक्षर है, आ की मात्रा दूसरा अक्षर और ‘म’ का स्थान है 25वां। इसलिये सबका योग बनता है 27+2+25=54, इस तरह एक बार राम का योग हुआ 54 और दो बार राम कहो तो योग होता है 108। इस सृष्टि में सब कुछ जो भी शुभ है वह 108 ही है इसलिये भगवान भोलेनाथ राम-राम के ध्यान में तल्लीन रहते हैं।
वैष्णव शिव
इस संसार में शिव से बड़ा कोई भक्त नहीं हुआ श्री हरि का इसीलिये कहा भी गया है- हरिहर निंदा सुनहिं जो काना, पाप लगे गौ घात समाना। भगवान शिव अपने आराध्य हरि के अपमान करने वाले को कतई सहन नहीं करते।
जब सती को सीता मोह में वन वन रोते राम पर संदेह होता है, कि एक साधारण नर उनके पति का आराध्य कैसे? वे उनकी परीक्षा लेने का विचार सीता का रूप लेकर करती हैं। भगवान उन्हें पहचान लेते हैं पर भोलेनाथ फिर सती को पत्नी रूप में नहीं स्वीकार पाते।
शिव संकल्प कीन्ह जग माही, यह तन भेंट सती अब नाहीं, अपने आराध्य पर शंका उन जैसे सहनशील को भी उद्वेलित करती रहे, निर्मल मन के प्रेमी को शंका सहन नहीं होती। इस कारण देवी सती जो शिव की पत्नी हैं अब उनके आराध्य की पत्नी का स्वरूप ले चुकी हैं, उन्हें वे आराध्या माता का रूप लेने कारण, स्वीकार नहीं कर पाते।
उनके लिये उनके आराध्य श्री विष्णु सबसे ऊपर हैं, उनका कितना भी प्रिय हो चाहे परिवार सदस्य हो, या भक्त हो। हरि निंदा का फल सभी को उनके किये गये अपराध के अनुसार भोगना ही पड़ा, इसलिए देवी सती को भी उनकी देह दक्ष यज्ञ में मिले अपमान के कारण त्यागनी पड़ी। उन्हें भी उनके इष्ट के प्रति अपराध स्वरूप पुनर्जन्म लेना पड़ा।
कृष्ण भक्त गोपेश्वर शिव
द्वापर युग में भोलेनाथ जोगी बनकर मां यशोदा से भगवान कृष्ण के दर्शन की भिक्षा मांगने आते हैं, उन्हें धन रत्न की लालसा नहीं हैं, बस दर्शन करके लौट जाते हैं। यहां तक कि जब महारास में जहां भगवान कृष्ण के अतिरिक्त किसी भी अन्य पुरुष का प्रवेश वॢजत है। वो आदिपुरुष होने पर भी स्वयं गोपी का वेश धारण करते हैं। पकड़े जाने पर भगवान भी बड़े प्रेम से प्रसन्नतापूर्वक उनका स्वागत करते हैं। कभी-कभी वो एक-दूसरे उनके भक्त को भी उनके आराध्य श्रीविष्णु की निन्दा से पिशाच की योनि प्राप्त हुई कैसे।
हरि निन्दा से शिवभक्त बना पिशाच
श्री हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व में घंटाकर्ण की कथा वॢणत है, रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण से उनके ही समान रूप गुण वाले पुत्र की अभिलाषा प्रकट करती हैं। वे मुस्कुराते हुए इस हेतु भगवान शिव की तपस्या अनिवार्य बताते हुए बद्रिकाश्रम जाने का निर्णय करते हैं। कितना सुन्दर है कि ईश्वर को भी अपने अभीष्ट के लिये अपने इष्ट की तपस्या अनिवार्य होती है।
जब वो ध्यानमग्न होते हैं तो रात को उन्हें वहां दो सेना और शिकारी कुत्तों के साथ आये भयंकर पिशाच दिखते हैं। उनमें से एक स्वयं भी तपस्या के लिये आया है। उसके भय से वह स्थान उस समय निर्जन हो जाता है, वो आसन में बैठकर भगवान विष्णु का ध्यान इस मंत्र से करता है-
‘ नमो भगवते तस्मै वासुदेवाय चक्रिणे।
नमस्ते गदिने तुभ्यं वासुदेवाय धीमते।।
नमो नारायणाय विष्णवे प्रभविष्णवे।
मम भूयानमन: शुद्धि: कीर्तनायत केशव:।।
नमो भगवते वासुदेवाय।
और उसे वहां श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं, वो आश्चर्य से पूछता है कि ‘आप यहां क्या कर रहे हैं, इस समय यहां कोई नहीं आता? ‘पहले तुम बताओ यहां शिकार क्यों कर रहे हो, इस क्षेत्र में मृगया निषिद्ध है। यदि तुमने इसे नहीं रोका तो मैं तुम्हें इस क्षेत्र से बाहर कर दूंगा। पिशाच कुछ क्षण सोचकर उनसे परिचय मांगता है विनम्रता पूर्वक, तब उनका कुछ वार्तालाप आरम्भ होता है।
शिव आराध्य भक्त की विष्णु निंदा का परिणाम
श्री हरि उसी से पूछते हैं तुम्हें पिशाच योनि क्यों प्राप्त हुई? वह बताता है कि मेरा नाम घण्टाकर्ण है। मैं सिर्फ महादेव का उपासक था, विष्णु का नाम कानों में न पड़ जाए इसलिये कानों में घण्टे बांधे रहता था और उन्हें जोर-जोर से बजाया करता था। मरने के बाद मुझे शिवजी का लोक मिला पर पिशाच योनि में। मैंने उनसे पिशाच योनि से मुक्ति का मार्ग पूछा तो उन्होंने कहा, तुम्हारी मुक्ति सिर्फ हरि की भक्ति से ही होगी, इसीलिये मैं यहां आया हूं।
जब उनका ध्यान करता हूं तो आप दिखते हैं, यह क्या रहस्य है, यहां की तपस्या के बाद मुझे द्वारवती अर्थात द्वारका जाकर श्री कृष्ण के भी दर्शन करने हैं। श्री हरि उसे अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन देते हैं, वह आत्मविभोर होकर उन्हें एक ताजे मारे हुए ब्राह्मïण का भोग अर्पित कर कहता है। हम पिशाचों का यही भोजन है, सबसे उत्तम भोग आपको अर्पण कर रहा हूं।
श्री हरि उसे पिशाच योनि से अपने दर्शन देकर मुक्त कर देते हैं और कहते हैं कि मैं ब्राह्मण का भक्त हूं, वे मेरे गुरु हैं। तुम दोनों को मुक्ति प्रदान करता हूं। इस प्रकार वो अपनी निन्दा करने वाले इस परम् शिवभक्त को भी मुक्ति प्रदान कर देते हैं।
भिन्न नहीं अभिन्न हैं हरि और हर
इसीलिये भगवान शिव राम और कृष्ण के उपास्य और उपासक दोनों हैं। सुदूर दक्षिण में, रामेश्वरम में कैसे भोलेनाथ रामजी के आह्वïान पर प्रकट होते हैं, तो बिल्वोदकेश्वर के रूप में बेल के फल में बुलाने पर प्रकट हो जाते हैं। भोलेनाथ रामजी के लिये दस शीश चढ़ाने वाले अहंकारी दशग्रीव से अधिक निर्मल मन: राम के हैं। इसीलिये रावण विजय में श्री राम के साथ हो जाते हैं।
वैष्णव विख्यात हैं अपनी करुणा और सादे जीवन के लिये, उन्हें सिर्फ ठाकुर जी से प्रेम है, तो फिर जिसे ठाकुरजी स्वयं प्रेम करते हैं, वह वैष्णव क्यों नहीं होगा? वैष्णव का अर्थ ही है विष्णु का उपासक और ऐसा उपासक जो अपने उपास्य के लिये सब त्याग दे, जो भी परमप्रिय हो। चाहे कैलाश सा शिखर हो, सती सी पत्नी हो या रावण सा भक्त, शिव का तीसरा नेत्र कामदेव पर खुला पर श्रीहरि के चक्र से सती की देह के टुकड़े करने पर नहीं।
कौन सा भक्त इतना त्यागी होगा जो अपने आराध्य के लिये हर युग में धरा पर लौटे और बार-बार लौटे। ठाकुरजी की सेवा नियमों से बंधी है पर शिव जी ने वह सब स्वीकार किया है जो अन्य देवताओं ने नहीं किया। उन्हें कंटीला धतूरा भी प्रिय है, तो विषैला आक भी, बिल्व भी, सब जलने के बाद बची हुई भस्म से भी प्रसन्न हो जाते है। यूं तो इस हमारे देश में सनातन धर्म में भक्ति प्रमुख मत पांच हैं- वैष्णव, शैव, शाक्त, विनायक और सौर।
अब शैव, शाक्त और विनायक परोक्ष और अपरोक्ष रूप से शिव जी से जुड़े ही हुए हैं, शिव उनका स्वयं का शक्ति माता पार्वती और विनायक उनके पुत्र का। सौर यानी सूर्य, चंद्रमा को भगवान के नेत्र कहा गया है, इस प्रकार देखा जाये तो शिव की उपासना का एक ही मत बचता है- वैष्णव।
क्योंकि कोई भी अपनी उपासना स्वयं नहीं करता, शिव मानवेतर योनियों के भी संरक्षक हैं, इसलिए उन्हें देवाधिदेव कहा जाता है। भगवान विष्णु के ऊपर इस संसार को चलाने का दायित्व है, संसार चलता है औषधि से जिसके देवता भी वैद्यनाथ शिव हैं। संसार को चलाने के आवश्यक गुण और उसे चलाने की कला निहित है शिव परिवार में। इसी कारण हरि और हर तत्व एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। एक भक्ति प्रदान करता है तो दूसरा मुक्ति, सूक्ष्म रूप से देखें तो विष्णु से बड़ा कोई शैव नहीं और शिव से बड़ा कोई वैष्णव नहीं। इसीलिये यदि उन्हें आदि वैष्णव कहा जाये तो गलत नहीं होगा।
