Holika Dahan: लेकिन बदलते परिवेश ने इस प्रचलन को खत्म कर दिया है। अब घर- घर में मिट्टी के चूल्हों की जगह एलपीजी सिलेंडर ने ले ली है, जिस कारण घर पर उपलों को बनाना संभव नहीं। अब बाजारों में ही इनकी रौनक होली के दिनों में देखने को मिलती है, वहीं से इसे लिया जा सकता है। वैसे होली हिंदु परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है और होलिकादहन इस त्यौहार का सबसे बड़ा हिस्सा। गोबर के बने उपलों को बनाने की तैयारी काफी पहले से ही होने लगती है। इसके पीछे की मान्यताएं कुछ ऐसी हैं कि भरभोलिये, गोबर के बने ऐसे उपले जिनके बीच में छेद कर, मूंज की रस्सी में पिरोकर इनकी माला बनाई जाती है। इस माला को भाईयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमाकर आग में डाल दिया जाता है और ऐसा माना जाता है कि इससे भाइयों को हर बुरी नजर से बचाया जा सकता है। यह तो हुई इसके पीछे की पौराणिक मान्यताएं पर पर्यावरण की दृष्टि से भी ये गोबर से बने उपले काफी उपयोगी हैं। जब इन उपलों को आग में जलाया जाता है तो इससे पर्यावरण में व्याप्त बहुत से जीवाणु और कीटाणु मर जाते हैं और हमारा पर्यावरण काफी हद तक प्रदूषण रहित हो जाता है। होलिकादहन के रात की तैयारी के लिए लकड़ी के टुकड़े, उपले इन चीजों को इकट्ठा करने का काम काफी पहले से होने लगता है। होलिकापूजा के मुहूर्त पर किसान गेहूं और चने की फसल की बालियों को भूनते भी हैं। देर रात तक जहां पर होलिकादहन की जाती है, वहां पर लोग इकट्ठा हो होली के गीत गाते हैं और उपलों, लकड़ियों के टुकड़ों को आग में डाल यह प्रण लेते हैं कि हमने अपनी सारी बुरी आदतों को इस आग में झोक दिया है अब कल से अच्छी आदतों के साथ एक नई शुरूआत की जाये। तो इस तरह हम देखते हैं कि इन उपलों का ना सिर्फ पौराणिक मान्यताओं के अन्तगर्त बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी कितना महत्व है।
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