श्रीमद्भागवत सिखाती है जीवन जीने की कला-क्रोध पर नियंत्रण क्यों है जरूरी
कामक्रोधविमुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्...
...त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: ।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्
श्रीमद्भागवत गीता,मानव जीवन से सम्बंधित ज्ञान का एक संकलन है जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उस समय सुनाया था जब,महाभारत के युद्ध में अर्जुन,विचलित होकर अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे थे। इसमें कुल १८ अध्याय हैं और कुल ७०० श्लोक हैं।
भगवान कृष्ण गीता के दूसरे अध्याय के 56 वे, 52वे और तिरसठवें श्लोक और पांचवें अध्याय के 26 वें श्लोक, साथ ही सोलहवें अध्याय के पहले दूसरे तीसरे और 21 वे श्लोक के अनुसार क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।ये मनुष्य की मानसिक स्थिति को अपने वश में करके उसका विवेक समाप्त कर देता है और वो बिल्कुल समझ नहीं पाता कि उचित व अनुचित, ज्ञान व अज्ञान क्या है? क्रोध मनुष्य की मानसिक स्थिति को अपने वश में करके इतना असंतुलित कर देता है कि उसे अपने भी शत्रु की भाँति अप्रिय लगने लगते हैं। क्रोध के आवेश में मनुष्य अपने पूज्य गुरु एवं माता पिता के ऋण तक को भूलकर उनका भी तिरस्कार करता है।
समस्त पापों का मूल
क्रोध को समस्त पापों का मूल बताते हुए भगवान कृष्ण कहते है कि नरक का प्रवेश द्वार ही क्रोध है। क्रोध से मूढ़भाव उत्पन्न होता है। मूढ़ता का सबसे पहला कार्य होता है विनाश। जब स्मृति मरती है व विस्मृति आरम्भ होती है। तो,इस से ज्ञान का नाश होता है और मनुष्य कई पाप अनजाने ही कर बैठता है। जिससे भक्ति का नाश होता है।
लोक परलोक नाश
मनुष्य अपनी स्थिति से नीचे गिर जाता है। उसके कई जन्मों के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। क्रोध के पराधीन व्यक्ति ये समझ ही नहीं पाता कि उसने अपना ,लोक और परलोक दोनों का नाश किया। भगवान यहाँ तक कहते हैं कि, “क्रोध के परिणामस्वरूप तुम्हारे कृत्यों से तुम बहुत नीचे गिर जाते हो। सरल भाषा में भगवान कृष्ण का संदेश है कि,क्रोध कभी न करें।
बुद्धिनाश से पतन
इस पतन से बचने के लिए सभी साधकों को भगवान के परायण होने की आवश्यकता होती है।गीता के इस अध्याय में कहा गया है कि विषयों का ध्यान करने मात्र से राग, राग से काम ,काम से क्रोध ,क्रोध से सम्मोह ,सम्मोह से स्मृति नाश, स्मृति नाश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पतन- यह जो क्रम बताया है, इसका विवेचन करने में तो देरी लगती है पर,इन सभी वृत्तियों के पैदा होने में और उस से मनुष्य का पतन होने में देरी नहीं लगती। बिजली के करंट की तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्य का पतन करा देती हैं।
मन पर नियंत्रण
काम क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है।गीता में मन पर नियंत्रण को बहुत ही अहम् माना गया है। मन वाणी और शरीर किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन का अभिमान का त्याग, चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निंदादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतु रहित दमा, इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।
आत्ममंथन भी जरूरी
दूसरे हर व्यक्ति को आत्ममंथन करना चाहिए। आत्मज्ञान ही अहंकार को नष्ट कर सकता है। अहंकार अज्ञानता को बढ़ावा देता है। उत्कर्ष की ओर जाने के लिए आत्ममंथन के साथ ही सकारात्मक सोच का निर्माण करना भी ज़रूरी है। जैसा आप सोचेंगे,वैसा ही आप आचरण करेंगे। इसलिए ख़ुद को आत्मविश्वास से भरा हुआ और सकारात्मक बनाने के लिए अपनी सोच को भी सही करना आवश्यक है।
निष्कर्ष
संक्षेप में गीता के अनुसार किसी भी प्रकार का भ्रम क्रोध की वजह से उत्पन्न होता है और जब भ्रम बढ़ता जाता है तो मन विचलित होता है। जिसकी वजह से आपके सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। यही एक खास वजह बनती है आपके पतन की। तो अगली बार क्रोध करने से पहले एक बार सोचिएगा जरूर।
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