लेकिन धर्मों ने जिस तरह से जगत में कार्य किया…उन्होंने उसका पूरा गुणधर्म, उसकी पूरी संरचना ही बदल डाली; बजाय इसके कि उसे बनाते: अंतस की एकता का विज्ञान, ताकि मनुष्य विखंडित न रहे, एक हो जाए। सामान्यत: तुम एक नहीं अनेक हो-पूरी भीड़ हो! धर्म का कार्य है इस भीड़-भाड़ को, अनेकता को एक समग्रता में ढालना; ताकि तुम्हारे भीतर का प्रत्येक अंग, अन्य अंगों के साथ एक स्वर में काम करने लगे-न कोई विभाजन हो, न संघर्ष; न कोई श्रेष्ठ हो, न निकृष्ट; न किसी प्रकार का द्वंद्व बचे…तुम बस एक लयबद्ध अखंडता हो जाओ।
दुनिया के इन सारे धर्मों की वजह से मनुष्यता धर्म शब्द का अर्थ तक भूल गई है। वे अखंडित मनुष्य के खिलाफ हैं, क्योंकि अखंडित मनुष्य को न ईश्वर की जरूरत है, न पादरी-पुरोहितों की, न मंदिर-मस्जिदों और चर्चों की।
अखंडित मनुष्य आप्तकाम होता है-स्वयं में पर्याप्त। वह अपने आप में पूर्ण है। और मेरी दृष्टि में उसकी पूर्णता ही उसकी पवित्रता है। वह इतना परितृप्त है कि फिर उसे परम पिता के रूप में, दूर कहीं स्वर्ग में बैठे, उसकी देखभाल करने वाले किसी ईश्वर की कोई मानसिक जरूरत नहीं रह जाती। वह इस क्षण में इतना आनंदित है कि तुम उसे भावी कल के लिए भयभीत नहीं कर सकते। परिपूर्ण व्यक्ति के लिए कल का अस्तित्व ही नहीं होता। वर्तमान पल ही सब कुछ है-न तो वहां बीते हुए कल हैं और न ही आने वाले कल।
तुम एक अखंडित व्यक्ति को इन मूढ़तापूर्ण और बचकानी चालबाजियों से बहका नहीं सकते, अपनी इच्छानुसार नचा नहीं सकते कि ऐसा करने पर स्वर्ग एवं उसके सारे सुख उपलब्ध होंगे; और यदि वैसा काम किया तो नरक में गिर कर अनंतकाल तक दुख भोगोगे।
इन सभी धर्मों ने तुम्हें कल्पनाएं दी हैं, क्योंकि तुम्हारी कुछ मनोवैज्ञानिक जरूरतें हैं। या तो तुम मन के पार उठो जो कि सही मायने में धर्म है, या फिर कोरी कल्पनाओं में उलझे रहो; ताकि तुम्हारा मन रिक्त, अर्थहीन और अकेलेपन का अनुभव न करे-नदी में बहते तिनके की भांति, न पीछे जिसके स्रोत का पता है, न आगे किसी गंतव्य का।
मानव मन की सबसे बड़ी जरूरतों में से एक जरूरत है-दूसरों के लिए स्वयं के जरूरी होने का अहसास।
सामान्यत: प्रतीत तो यही होता है कि यह अस्तित्व तुम्हारे प्रति पूर्णरूपेण उपेक्षा से भरा है। यह नहीं कहा जा सकता कि उसे तुम्हारी कोई जरूरत है; या कि कह सकते हो? तुम्हारे बिना भी सब कुछ बिलकुल ठीक-ठाक चलता था। रोज सूर्योदय होता था, फूल खिलते थे, मौसम आ-जा रहे थे। यदि तुम नहीं होते तो कुछ भी तो फर्क न पड़ता। एक दिन फिर तुम यहां नहीं होओगे और उससे रंचमात्र भी अंतर न आएगा। अस्तित्व जैसा चलता रहा है, चलता रहेगा। यह बात तुम्हें तृप्ति नहीं देती कि तुम्हारा होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता। आवश्यक होना तुम्हारी सबसे बड़ी आवश्यकता है। ठीक इसके विपरीत अस्तित्व तुम्हें यह अहसास देता है कि जैसे उसे तुमसे कोई सरोकार नहीं है, उसे तुम्हारी परवाह नहीं है। शायद उसे यह तक पता नहीं कि तुम हो भी! यह स्थिति मन को बहुत झकझोरने वाली है। इसी कमजोरी का फायदा उठाया है तथाकथित धर्मों ने…।
प्रामाणिक धर्म तुम्हारी इस आवश्यकता को गिराने की हर संभव कोशिश करेगा, ताकि तुम स्पष्ट देख लो कि यह कतई आवश्यक नहीं है कि किसी को तुम्हारी आवश्यकता हो। और जब भी तुम स्वयं के आवश्यक होने की कामना करते हो, तुम थोथी कल्पनाओं की मांग करते हो।
ये तथाकथित धर्म जो पृथ्वी पर कई रूपों में मौजूद हैं-हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध, और न जाने कितने धर्म-जमीन पर कोई तीन सौ धर्म हैं और वे सब के सब एक ही काम में संलग्न हैं। वे ठीक उसी आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं-तुम्हें झूठी तृप्ति दे रहे हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर है, जो तुम्हारी फिक्र लेता है, तुम्हारी देखभाल करता है। जो तुम्हारा इतना अधिक शुभचिंतक है कि तुम्हारे जीवन को मार्गदर्शन देने के लिए एक पवित्र ग्रंथ भेजता है, कि तुम्हारी सहायता के लिए, तुम्हें सही राह पर लाने के लिए अपना इकलौता बेटा भेजता है। वह पैगंबर और मसीहा भेजता है ताकि तुम कहीं भटक न जाओ। और यदि तुम भटक जाओ तो वे तुम्हारी दूसरी कमजोरी का शोषण करते हैं-शैतान का भय, जो हर संभव ढंग से तुम्हें गलत रास्ते पर ले जाने की कोशिश में लगा है।
साधारणत: जैसी मनुष्यता इस समय है, एक तरफ तो इसे ईश्वर की, संरक्षक की, पथ प्रदर्शक की, और सहयोग की जरूरत है, और दूसरी तरफ एक नरक की, ताकि आदमी उन सभी रास्तों पर चलने से डरा रहे, जिन्हें पादरी-पुरोहित गलत समझते हैं। पर क्या गलत है और क्या सही है, हर समाज में यह भिन्न-भिन्न है। इसलिए सही और गलत समाज द्वारा निर्णीत होते हैं, उनका कोई अस्तित्वगत मूल्य नहीं है।

हां, एक सजगता की स्थिति है, जब तुम मन के पार चले जाते हो और बिना किसी पूर्वाग्रह के चीजों को सीधे-साफ देख सकते हो-आंखों पर मढ़े किसी सिद्धांत के बगैर। जब तुम सीधे देखते हो तो तत्क्षण सही और गलत का ज्ञान हो जाता है। किसी को बताने की जरूरत नहीं रह जाती, न किन्हीं आदेशों की आवश्यकता।
प्रत्येक समाज की अपनी धारणा है कि क्या सही है और क्या गलत है? पर जिसे वे गलत कहते हैं, उसे करने से तुम्हें कैसे रोकें? मुश्किल यह है कि जिसे वे अशुभ और पाप कहते हैं, अधिकांशत: वह प्राकृतिक है-और वह तुम्हें आकर्षित करता है। वह गलत है, मगर स्वाभाविक है-और स्वाभाविक के प्रति एक गहन आकर्षण है। उन्हें इतना ज्यादा भय पैदा करना पड़ता है कि वह स्वाभाविक आकर्षण की अपेक्षा अधिक बलशाली सिद्ध हो। इसीलिए नरक का आविष्कार करना पड़ा।
कई धर्म हैं जो एक नरक से संतुष्ट नहीं हैं। और मैं समझ सकता हूं कि क्यों वे एक नरक से संतुष्ट नहीं हैं। ईसाइयत एक नरक से संतुष्ट है। उसका सीधा कारण है कि ईसाई नरक शाश्वत है। उसमें लंबाई का विस्तार बहुत है, अंत ही नहीं आता। चूंकि हिंदुओं, जैनों, और बौद्धों के नरक शाश्वत नहीं हैं, इसलिए उन्हें ऊंचाइयां निर्मित करनी पड़ीं-सात नरक, एक के ऊपर एक! और हर नरक अधिक से अधिक पीड़ादायी होता जाता है, ज्यादा से ज्यादा अमानवीय।
और मुझे आश्चर्य होता है…वे लोग, जिन्होंने इन नरकों का पूरे घोर विस्तार से वर्णन किया है, संत कहलाते थे। वे लोग, यदि उन्हें मौका मिलता, तो बड़ी आसानी से एडोल्फ हिटलर, जोसेफ स्टैलिन, और माओत्से तुंग हो गए होते। उनको सब खयाल था कि कैसे सताया जाए, सिऌर्फ उनके पास शक्ति नहीं थी। लेकिन एक सूक्ष्म अर्थ में उनके पास भी शक्ति थी-पर वर्तमान में नहीं, यहां नहीं। उनकी ताकत थी उनके शंकराचार्य होने में, पोप और प्रमुख पादरी होने में। उस शक्ति के सहारे उन्होंने तुम्हें नरक में फिंकवाने का इंतजाम कर दिया। अभी न सही तो भविष्य में कभी-मृत्यु के बाद। वैसे तो मृत्यु स्वयं ही इतनी भयावह है…किंतु वह उनके लिए काफी नहीं थी। क्योंकि स्वाभाविक प्रवृत्तियां वास्तव में अत्यधिक प्रबल हैं। और वे लोग क्यों इन नैसर्गिक आकर्षणों के इतने खिलाफ थे? क्योंकि सहज प्रवृत्तियां उनके न्यस्त स्वार्थों के विरुद्ध पड़ती हैं।
धर्मों ने तुम्हें तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओं और प्रवृत्तियों के विरोध में क्यों रखा? कारण सीधा-साफ है-तुम्हें अपराध-भाव महसूस कराने के लिए। इस शब्द को मैं दोहराना चाहता हूं-‘अपराध-भाव।’ यह उनका खास मुद्दा रहा है, केंद्र-बिंदु रहा है तुम्हें मिटाने में, तुम्हारे शोषण में, तुम्हें उनकी इच्छानुसार ढालने में, तुम्हें निकृष्ट सिद्ध करने में, और तुम्हारा आत्म-सम्मान नष्ट करने में।
एक बार अपराध-भाव उत्पन्न कर दिया, एक बार तुमने यह सोचना शुरू कर दिया कि ‘मैं पतित आदमी हूं, एक पापी हूं’ बस, उनका काम हो गया। तब कौन तुम्हें उबारेगा? निश्चित ही किसी उद्धार करने वाले की जरूरत पड़ेगी। लेकिन पहले बीमारी पैदा करो।
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