महाभारत के युद्ध में अपने चारों ओर अपने प्रियजनों के शव देखकर जब अर्जुन की मन:स्थिति विषादपूर्ण हो जाती है तब भगवान कृष्ण गीता का ज्ञान देते हुए कहते हैं
“अगर किसी का जन्म हुआ है तो उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है उसका फिर से जन्म लेना भी निश्चित है.इसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं है,इसलिए तेरे लिए शोक अवसाद के हानिकारक प्रभाव है करना उचित नहीं है.क्योंकि मैंने तुम्हें पहले भी बताया था की मृत्यु केवल शरीर की होती है आत्मा की नहीं.
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है,वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चली जाती है. तेईसवें श्लोक में बताया गया है कि शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते,अग्नि उसको जला नहीं सकती,जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती.अर्थात प्रत्येक स्थिति में यह आत्मा अपरिवर्तनीय रहती है.
प्रत्येक जीव की अपनी-अपनी जीवन यात्रा है और वो जीवन भर अपने शुभ-अशुभ कर्मों,संस्कारों,वासनाओं व इच्छाओं में उलझा रहता है.इसके अलावा प्रकृति के तीनों गुणों से भी जीव बँधा रहता है.ये दोनों बंधन उम्र भर बने रहते हैं,उन्हीं को जीव का बंधन कहते हैं.फिर ये जीव अपने कर्मों के आधार पर बार बार जन्म मरण लेता रहता है.
जीव का मरण ही ब्रह्मा की बात समझनी चाहिए और जीव का जन्म ही ब्रह्मा का दिन समझना चाहिए.इस प्रकार ब्रह्मा का दिन और रात,उत्पत्ति-प्रलय व जन्म मरण से जुड़ा रहता है.ये भूत समुदाय परवश होकर ब्रह्मा की रात्रि होते ही काल में लीन हो जाता है और सुबह होते ही फिर से उत्पन्न हो जाता है और ये प्रक्रिया जब तक मुक्ति न हो जाये,तब तक चलती रहती है.
भगवान कृष्ण कहते हैं,मृत्यु का शोक तो होगा ही,यह तो प्रकृति का नियम है.जिन लोगों के परस्पर परिचय व संबंध होते है उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम व मोह का उत्पन्न होना लाज़िमी है.मिलने पर सुख व अलग होने पर दुःख होता है चाहे यह वियोग, दोनों के जीवित होने पर ही हो अर्थात एक दूसरे से कुछ समय के लिए दूर जाने से हो.स्थाई रूप से वियोग अर्थात मृत्यु का दुख अधिक होता है.मृत्यु के उपरांत इस जीवात्मा के पूर्व कर्मों की प्राप्ति के लिए हमें शोक नहीं.करना चाहिए..अपितु नए साधन की प्राप्ति के लिए प्रसन्न होना चाहिए.उन्होंने अनेक स्थानों पर मृत्यु का शोक न करने की या मृत्यु से ऊपर उठने की प्रेरणा दी है.
शोक करने से प्रियजन वापस तो आ नहीं जाएंगे ,अपने मन को समझाना ही पड़ेगा.समय ही इस घाव को भरेगा.
जिसका मन वश में है,पवित्र और शक्तिशाली है,उसको अपने प्रियजन की मृत्यु का भी दुख नहीं होता.कमजोर और अपवित्र मन को अपने प्रियजन की मृत्यु का दुख अवश्य होता है.इसके लिए योगेश्वर कृष्ण ने गीता के ज्ञान में पांच मूल तत्वों अग्नि,जल,वायु,आकाश और और पृथ्वी के संयोग और मिलन से बने इस मनुष्य शरीर व साधन को ही मरणधर्मा बताया.साथ ही आत्मा को अजर-अमर,नित्य और अविनाशी बताया.जीवात्मा मृत्यु से परे है.
