भक्तों का विशाल जन समूह। गगनचुंबी शिखर वाल तीन रथ। रथ में विराजते अपने भगवान को छू कर मोक्ष पाने को आतुर हर एक भक्त के लिए पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा के और भी कई रंग हैं। 

भगवान जगन्नाथ जगत के नाथ हैं। साल में रथ यात्रा के मौके पर जगत के साथ अपना सिंहासन छोड़ भक्तों के बीच आ जाते हैं। यह मौका होता है पुरी की प्रसिद्ध रथ यात्रा का। यात्रा के इन नौ दिनों में भक्त और भगवान के बीच कोई सीमा नहीं रह जाती, जात-पात का भेद तक मिट जाता है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को संपूर्ण भारत-वर्ष में इस रथ यात्रा-उत्सव का आयोजन किया जाता है। बंगाल की खाड़ी के निकट बसा यह पवित्र स्थान उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐसी धारणा है कि कभी यहां भगवान बुद्ध का दांत गिरा था, इसलिए इसे दंतपुर भी कहा जाता था। यहां का जगन्नाथ मंदिर अपनी भव्य एवं ऐतिहासिक रथ यात्रा के लिए पूरे संसार में प्रसिद्ध है।

पुनर्जन्म से मिलती है मुक्ति

जगन्नाथ, बलदेव एवं देवी शुभद्रा रथों पर विराजमान करके उनके रथ को खींचना ही रथ यात्रा है। ब्रह्मापुराण में कहा गया है कि ‘रथे चागमन दृष्टवां पुनर्जन्म न विद्यते’ अर्थात् रथ के ऊपर भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन करके मनुष्य पुनर्जन्म से बच जाता है। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति भगवान जगन्नाथ जी के रथ के रस्से को पकड़कर एक कदम भी चलता है उस एक ‘अश्वमेघ यज्ञ’ का फल प्राप्त होता है, जो व्यक्ति भगवान जगन्नाथ जी के रथ यात्रा उत्सव को देखता है या स्वागतार्थ उठकर खड़ा हो जाता है, जीवन की समाप्ति पर उसे भगवत धाम की प्राप्ति होती है। जगन्नाथ रूप में भगवान कृष्ण इतने दयालु हैं कि वह सब मर्यादाओं को त्याग कर वर्ष में एक बार अपने बड़े भाई बलदेव एवं बहन सुभद्रा जी के साथ विशाल रथों पर सवार होकर रथ यात्रा के रूप में अपने दोनों हाथ भक्तों की ओर फैलाए, भक्तों में कृपा लुटाने के लिए आकर खड़े होकर स्वीकृति प्रदान करते हैं कि ‘आज मैं सब प्रकार की मर्यादाओं को छोड़कर तुम्हारे बीच आ गया ह। अब तेरी इच्छा है, तू मुझे कहीं भी ले चल।’

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ऐसे होती है उत्सव की तैयारी

वैसे भी भगवान जगन्नाथ तो किसी व्यक्ति विशेष या जाति विशेष के नहीं हैं। वे तो जगत के नाथ हैं। अत: जगतवासियों के कल्याण के लिए, जगतवासियों को दर्शन देने के लिए वह उन्हें जन्म-मृत्यु रूपी महान दुख से छुटकारा दिलवाने के लिए रथ में बैठकर नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। यूं तो रथ यात्रा दस दिन का महोत्सव है पर इसकी तैयारी हर साल महीनों पहले शुरू हो जाती है। तीन नए रथ बनाए जाते हैं। जिसके लिए लकड़ियां चुनने का काम बसंत पंचमी को ही शुरू हो जाता है। रथ यात्रा के दिन पहले भगवान को शाही स्नान करवाया जाता है। बाद में मूर्तियों को शुद्ध रंग से रंगा जाता है। रथ यात्रा वाले दिन पूरे विधि-विधान से भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा व बलदेव जी को रथों पर विराजमान करते हैं। तीनों रथों को लाल व हरी धारियों वाले रेशमी कपड़ों से सजाया जाता है। भक्त भगवान के स्वरूप को देखकर इतने भावुक हो जाते हैं कि वह भजन गाते हैं ‘जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु में’ अर्थात् ‘हे जगन्नाथ, मेरे नयनों के मार्ग से मेरे हृदय में विराजमान हो जाओ।’

भक्तों के लिए बनें अपलक भगवान

उन्होंने तो भक्तों पर अपनी कृपा करने के लिए दोनों बाहें आगे की तरफ फैला रखी हैं। भगवान जगन्नाथ जी ने आंखों के ऊपर पलकें भी धारण नहीं की, क्योंकि भगवान सोचते हैं कि अगर उन्होंने अपनी आंखों को विश्राम देने के लिए कभी अपनी पलकें बंद की तो लाखों लोग उनकी कृपा से वंचित रह जाएंगे। इसलिए उन्हें अपलक भगवान भी कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी, बड़े भाई बलभद्र जी और बहन सुभद्रा देवी के साथ सुसज्जित तीन रथों पर बैठकर पुरी (उड़ीसा) स्थित श्री गुंडिचा मंदिर को जाते हैं। श्री जगन्नाथ जी के रथ को नंदी घोष, श्री बलभद्र जी के रथ को तालध्वज और श्री सुभद्रा जी के रथ को देवदलन कहते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भव्य होती है यह यात्रा

इस यात्रा में तीनों रथों में से सबसे बड़ा रथ भगवान जगन्नाथ का बनाया जाता है।
नंदीघोष गरुड़ध्वज-कपिलध्वज नाम के साढ़े तेरह मीटर ऊंचे इस रथ में 16 पहिए होते हैं और रथ के निर्माण में 832 लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी लंबाई-चौड़ाई 10.52 गुणा 10.52 मीटर होती है। इस रथ में लाल व पीले रंग के कपड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इस रथ के अभिभावक गरुड़ और रथ वाहक दारुक कहलाते हैं। रथ पर फहराते झंडे को त्रैलोक्यमोहिनी कहते हैं तथा रथ के चार घोड़ों के नाम हैं शंख, बलाहक, श्वेत व हरिद्वार। रथ की रस्सी को शंखचूड़ कहते हैं। रथ के चारों ओर हनुमान, राम, लक्ष्मण, नारायण, कृष्ण, गोवर्धन धारण, चिंतामणि, राघव व नृसिंह की मूर्तियां लगी होती हैं।

बासभद्र का रथ

इसी तरह तालध्वज नाम के 13.2 मीटर ऊंचे बलभद्र जी के रथ में 14 पहिए होते हैं। इस रथ में लकड़ी के 763 टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी लंबाई-चौड़ाई 10.06 मीटर होती है। इस रथ पर लाल व नीले रंग के कपड़े का इस्तेमाल किया जाता है। रथ के अभिभावक हैं वासुदेव और रथवाहक हैं मताली। रथ का झंडा उर्नानी और रस्सी वासुकी कहलाती है। अश्वों के नाम हैं तिबरा, घोड़ा, दीर्घाश्रण व स्वर्णानवा। रथ के चारों ओर गदांतकारी, हरिहरस त्रैंबका, वासुदेव, अघोरा, प्रलांबरी, नटांवरा, त्रिपुरशिवा व मृत्युंजय की मूर्तियां
लगी होती हैं।

सुभद्रा जी का रथ

सबसे छोटा रथ सुभद्रा जी का होता है। दर्पादलनाया पद्मध्वज नाम के 12.9 मीटर ऊंचे इस रथ में 12 पहिए होते हैं। 9.6 गुणा 9.6 मीटर की लंबाई-चौड़ाई वाले इस रथ में लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इस रथ में लाल व काले रंग के कपड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इस रथ की अभिभावक हैं जयदुर्गा और रथ वाहक हैं अर्जुन। ध्वज का नाम नादंबिका
और अश्वों का नाम रुचिका, मुचिका, जिता और अपराजिता है। रस्सी को स्वर्णचूड़ कहते हैं। इसके चारों ओर चामुंडा, भद्रकाली, हरचंडिका, कात्यायनी, जयदुर्गा, वाराही, काली, मंगला और विमला की प्रतिमाएं लगी होती हैं।

प्रभु की डोरी भक्तों के हाथ

तत्पश्चात् ढोल-नगाड़ों और गाजे-बाजों के साथ कीर्तन करते हुए भगवान की
मूर्तियों को मंदिर से मस्ती में झूमते-झूलाते हुए रथ पर लाया जाता है, जिसे पोहण्डी बिजे कहते हैं। रथ के पहियों को मोटी रस्सी से बांधा गया होता है। पूरी क्षमा याचना एवं घंटों प्रार्थना के बाद यह रथ चलने शुरू होते हैं। वैसे तो भक्त कहता है। ‘दीनबंधु, दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ’ परंतु रथ यात्रा वाले दिन उसे दीनबंधु की डोरी भक्तों के हाथ होती है जिसे वे खींच कर अपने घर ले जाते हैं।

(साभार – साधना पथ) 

 

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