उत्तर-श्रीभद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान कहते हैं-
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।

अर्थात् जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प,फल जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ फल, पुष्पादि आदि में सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीत सहित खाता हूं।

‘भावनावाद सिद्धांत’ के अनुसार शास्त्रविश्वासी भक्त तो ऐसा ही समझते हैं कि वे अवश्य खाते हैं। क्योंकि धन्ना जाट, नामदेव, सुदामा, शबरी, द्रौपदी, रन्तिदेव, करमाबाई के यहां भोजन किया, यहां तक कि मीरा ने जब भोग लगाया तो भगवान ने विष भी पीया। भक्त की भावना दृढ़ हो तो एक बार नहीं भगवान हजार बार खाते हैं।

कुछ सज्जन यह भी तर्क करते हैं कि भगवान खाते हैं तो सामने रखा प्रसाद घटता क्याें नहीं? जैसे पुष्प पर बैठा भ्रमर उसके गंध से परितृप्त हो जाता है परन्तु पुष्प का तौल-वजन कम नहीं होता, ठीक वैसे ही भगवान तो वास के भूखे होते हैं। व्यंजन की दिव्य सुगन्ध से ही वे तृप्त हो जाते हैं इसीलिए भगवान को अर्पण किए पदार्थ तौल वजन से कम नहीं होते, बल्कि उनका सूक्ष्मांश भूतरस भगवद् आस्वादित होने के कारण बढ़ जाता है। इसीलिए घट में भरपेट खाए हुए पदार्थों में भक्तों को उतना रस नहीं मिलता जितना की टकाभर मन्दिर के साधारण प्रसाद से प्राप्त होता है। भगवान के भोग लगाई वस्तुओं का स्वाद ही अपूर्व हो जाता है। अनुभवी -गुणी ही इन बातों को जान सकते हैं।

कई बार उलटा चमत्कार यह होता है कि भगवान को भोग लगाई गयी वस्तु घटती नहीं, किन्तु बढ़ जाती है। राजस्थान एवं इसके बाहर भी गुणीजनों ने कई ऐसे चमत्कार बताए हैं कि कड़ाह पर भोग लगाकर कपड़ा बिछा दिया एवं सैकडाें -हजारों लोगों काे उससे भोजन करा दिया, फिर भी प्रसाद कम नहीं हुआ।