आजकल वेद, पुराण, तंत्र, षड्दर्शन सब के हो गए हैं क्योंकि वे मुंह से पढ़े जाते हैं, मुंह से उच्चारित होते है। इसी से उन्हें झूठा माना जाएगा। पर केवल एक वस्तु झूठी नहीं हुई है- वह वस्तु है ब्रह्म’। ब्रह्म क्या है यह बात आज तक कोई मुंह से बोल कर नहीं समझा सकता है।

एक पिता के दो लड़के थे। ब्रह्म विद्या सीखने के लिए पिता ने दोनों को आचार्य को सौंप दिया। कई वर्ष बाद वे गुरु गृह से लौटे और आकर पिता की प्रणाम किया। पिता की इच्छा हुई कि देखे इन्हें कैसा ब्रह्मज्ञान हुआ है। बड़े लड़के से उन्होंने पूछा- ‘बेटा तुमने तो सब कुछ पढ़ा है, अब यह बताओ कि ब्रह्म कैसा होता है?’ बड़ा लड़का वेदों से बहुत से मंत्रों की आवृत्ति करता हुआ ब्रह्म का स्वरूप समझाने लगा। पिता चुप रहे। फिर उन्होंने छोटे लड़के से वही प्रश्न किया पर वह सिर झुकाए चुप रहा, मुंह से कोई बात न निकली। तब पिता ने प्रसन्न होकर कहा- ‘बेटा तुम्हीं ने कुछ समझा है, ब्रह्म क्या है- ‘यह मुंह से नहीं कहा जा सकता।’

मनुष्य सोचता है कि हम ईश्वर को जान गए, एक चींटी चीनी के गोदाम में गई। एक दाना खाकर उसका पेट भर गया और दूसरा दाना मुंह में लेकर अपने घर को जाने लगी। जाते समय सोच रही थी कि अबकी बार समूचे गोदाम को ले आऊंगी। क्षुद्रजीव भी ब्रह्म के बारे मे इसी प्रकार की बातें सोचा करते हैं, वे नहीं जानते कि ब्रह्म वाणी और मन दोनों से परे है।

गीता का अर्थ क्या है? जब चैतन्य देव दक्षिण में तीर्थ भ्रमण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है। एक दूसरा आदमी थोड़ी दूर पर बैठे उसे सुन रहा है और सुनकर रो रहा है आंखों से आंसू बह रहे हैं। चैतन्य देव ने पूछा- ‘क्या तुम यह सब समझ रहे हो?’ उसने कहा ‘प्रभु! इन श्लोकों का अर्थ तो मैं नहीं समझता हूं।’ चैतन्य ने पूछा- ‘तो फिर रोते क्यों हो? भक्त ने जवाब दिया- ‘मैं देख रहा हूं कि अर्जुन का रथ है और उसके सामने भगवान् और अर्जुन खड़े हुए बात कर रहे हैं। बस यही देखकर मैं रो रहा हूं।’ इसलिए गीता केवल किताब से पढ़ी नहीं जाती, जब मन से आसक्ति दूर हो जाती है तभी उसका सच्चा आशय समझ मे आता है।

ब्रह्म-ब्रह्म कहने से क्या लाभ यदि हृदय के भीतर विवेक-वैराग्य नहीं है। अब यह कथा ही सुनिए- ‘किसी गांव में पद्मलोचन नाम का एक लड़का था। लोग उसे पदुआ कह कर पुकारते थे। उसी गांव में एक जीर्ण मंदिर था, पर उसके भीतर इस समय देवता की कोई मूर्ति न थी। मंदिर की दीवारों पर पीपल और तरह-तरह के पेड़ पैदा हो गए थे। मंदिर के भीतर चमगादड़ अड्डा जमाए थे। फर्श पर धूल और चमगादड़ों की गंदगी पड़ी रहती थी। मंदिर में कोई आता-जाता न था। एक दिन संध्या के बाद लोगों ने मंदिर की तरफ से शंख की आवाज सुनी। गांव वालों ने सोचा कि किसी ने मंदिर में देवता की मूर्ति रख दी होगी और संध्या के बाद आरती हो रही होगी। लड़के, बूढ़े, औरतें, मर्द सब दौड़ते हुए मंदिर की तरफ चले कि देवता के दर्शन करेंगे, आरती देखेंगे। उनमें से एक ने मंदिर का दरवाजा धीरे से खोला तो देखा कि पद्मलोचन एक तरफ खड़ा हुआ शंख बजा रहा है। देवता की प्रतिष्ठा नहीं हुई थी, मंदिर में झाडू तक नहीं लगाया गया था। चमगादड़ों की विष्ठा भी पड़ी हुई थी। तब उस मनुष्य ने चिल्लाकर कहा ‘तेरे मंदिर में माधव कहां हैं, पदुआ तूने तो व्यर्थ ही में शंख फूंककर हुल्लड़ मचा दिया।’

सिर्फ शंख फूंकने से क्या होगा। पहले चित्त शुद्ध करना चाहिए। मन शुद्ध हुआ तो भगवान् उस पवित्र आसन पर स्वयं आ विराजेंगे।’

किसी ने पूछ कि हम ईश्वर को किस उपाय से देख सकते हैं? ‘जब तुम उनके लिए व्याकुल होकर रोना सीख लोगे तो वे अपने आप मिल जाएंगे जिस प्रकार कोई भी अपने छोटे बच्चे के खिलौनों से बहलाकर घर के काम-काज में लगी रहती है। पर जब बालक खिलौने फेंक कर जोर-जोर से रोने लगता है तो मां रोटी बनाना बन्द कर दौड़ आती है- बच्चे को गोद में उठा लेती है। उसी प्रकार भक्त जब ईश्वर को सच्चे हृदय से पुकारते हैं तो वे स्वयं उनके पास आ जाते हैं।

‘आशय यह कि जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उसका स्वरूप क्या है। वही यह भली प्रकार जानता है कि भगवान् तरह-तरह के रूपों मे दर्शन देते हैं, अनेक भावों में देख पाते हैं, वे सगुण भी है और निर्गुण भी। अर्थात् ईश्वर को कोई किसी खास रंग या रूप में बांध नहीं सकता। 

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