का दशक ‘कभी कभी फिल्म की मां और कवि पिता का अपनी बेटी के लिए वात्सल्य उंड़ेलता मधुर गीत ‘मेरे घर आई एक नन्ही परी पाषाण हृदय को भी उद्वेलित कर जाता है। किंतु यथार्थ के धरातल पर वास्तविकता क्या है, आइए जाने। नारी को देवी कहने वाले भारत, जहां वर्ष में दो बार नवरात्रि कन्या पूजन होता है और हर घर के मुखिया पुरुष नन्ही-नन्ही बालिकाओं के पैर धो कर देवी स्वरूपा का आह्वान करते हैं, में कन्या भ्रूण हत्या आज ऐसा व्यवसाय बन चुका है जो 1000 करोड़ की इंडस्ट्री माना जा रहा है।

अमेरिका में सन 1984 में हुए सेमिनार ‘नेशनल राइट्स टू लाईफ में डॉ. बनार्ड नेथेसन द्वारा बनाई गई गर्भपात की अल्ट्रासाउंड फिल्म ‘साइलेंट स्क्रीम का विवरण इस प्रकार है- गर्भ की वह मासूम बच्ची अभी दस सप्ताह की थी, काफी चुस्त। हम उसे अपनी मां की कोख में खेलते, करवट बदलते, अंगूठा चूसते देख पा रहे थे और उसका दिल 120 की सामान्य गति से धड़क रहा था। सब कुछ बिल्कुल सामान्य था किंतु जैसे ही पहले औजार सक्शन पम्प ने गर्भाशय की दीवार को छुआ, वह मासूम बच्ची डर से एकदम घूम कर सिकुड़ गई और उसके दिल की धड़कन बढ़ गई।

हालांकि अभी तक किसी औजार ने उसे छुआ तक नहीं था किंतु उसे यह अनुमान हो गया था कि कोई चीज उसके आरामगाह, उसके सुरक्षित क्षेत्र पर हमला करने का प्रयत्न कर रही है। हम दहशत से भरे देख रहे थे कि किस तरह वह औजार उस नन्ही मुन्नी मासूम गुडिय़ा के टुकड़े-टुकड़े कर रहा था। पहले कमर फिर पैर आदि के टुकड़े ऐसे काटे जा रहे थे जैसे वह जीवित प्राणी न होकर कोई गाजर-मूली हो और वह छोटी बच्ची दर्द से छटपटाती-तड़पती घूम-घूम कर इस हत्यारे औजार से बचने का प्रयास कर रही थी। वह इतनी बुरी तरह डर गई थी कि एक समय उसके दिल की धड़कन 200 तक पहुंच गई थी।

मैंने स्वयं उसको अपना सिर पीछे झटकते व मुंह खोलकर चीखने का प्रयत्न करते देखा, जिसे डॉ. नेथेसन ने उचित ही गूंगी चीख की मूक पुकार कहा है। अंत में हमने वह नृशंस वीभत्स दृश्य भी देखा जब संडासी उसकी खोपड़ी को तोडऩे के लिए तलाश रही थी और फिर दबा कर उस कठोर खोपड़ी को तोड़ रही थी क्योंकि सिर का वह भाग बगैर तोड़े सक्शन ट्यूब के माध्यम से बाहर नहीं निकाला जा सकता था। हत्या के इस वीभत्स खेल को संपन्न करने में करीब पंद्रह मिनट का समय लगा। इस दृश्य का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जिस डॉक्टर ने यह गर्भपात किया, मात्र कौतुहलवश इसकी फिल्म बनवा ली, उसने जब स्वयं इस फिल्म को देखा तो वह क्लीनिक छोड़ कर चला गया और फिर वापस नहीं आया।

भारत में कन्या अनुपात घटने का ठीकरा हम छाती ठोक कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर फोड़ देते हैं। इस खेल में नर्सिंग होम भी खुलेआम लुकाछिपी से भागीदार बनते हैं। छोटे उपनगरों में तो जगह-जगह इश्तेहार छपवाए, बंटवाए व दीवार पर चिपकाए जाते हैं कि आज पांच सौ खर्चो, कल पांच लाख बचाओ।

अपनी राजपूती आन बान शान के लिए प्रसिद्ध राजस्थान में सदियों से ‘दूध पिलाने की परंपरा रही है, जहां नवजात कन्या को दूध के भरे बर्तन में डुबो दिया जाता है तब तक जब तक उसके प्राण न निकल जाएं तो वहीं उत्तर भारत में नवजात कन्या को नमक चटाया जाता है ताकि अधिक ब्लडप्रेशर से चंद घंटों में मृत्यु हो जाए। बिहार में छोटी सी कन्या को कमर से पकड़ आगे-पीछे इस तरह झुलाया जाता है जिससे रीढ की हड्डी टूटे और बात खत्म। हरियाणा में पलंग के नीचे दबाने और मिट्टी के घड़े में भरकर दम घोंट देने की प्रथा है।

तमिलनाडु में नन्ही को जहरीले पौधे का दूध चटा दिया जाता है। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम सबसे सुगम तरीका है बच्ची को गुदड़ी में लपेट किसी निर्जन स्थान पर फेंक दो और गर्व से कहो मेरा भारत महान।

आज हमारे समाज को समझना होगा कि सदियों की गुलामी ने जिस दास मनोवृत्ति को पाला है वहां स्त्रियों ने स्वेच्छा से दोयम मानसिकता को अपना लिया है। जिस समाज में शक्ति स्वरूपा का निरंतर शोषण व दोहन हो, वह समाज- राष्ट्र कैसे प्रगति कर सकता है? पराकाष्ठा यह है कि कन्यापूजन हो या फिर कन्या हत्या दोनों ही कृत्यों में महिला की अहम भूमिका रहती है। बिना स्त्री के सहयोग व स्वीकृति के ये दोनों ही कार्य असंभव है।

बहू का गर्भपात कराने को जो सास महाउत्सुक रहती है वह ‘मेरे बेटे के घर बेटा ही हो सोचती नवरात्रि कन्यापूजन का व्रत अनुष्ठान करती है। क्या ये विडंबना नहीं कि स्त्री ही अपनी जाति की दुश्मन बनी रहती है? क्या ये उचित समय नहीं कि सब स्त्रियां समवेत एक स्वर में आज ही कहें कि बस अब और नहीं, जो अब तक होता आया है, गलत है, अब आगे नहीं होने देंगे। आइए हम और आप मिल कर बदलें ये दुर्बल, दब्बू व दमनकारी सोच और करें स्वागत एक नए युग का जहां ईश्वर अपनी श्रेष्ठतम कृति ‘पुत्री की रचना करे तो पूछना न पड़े ‘आखिर किस के घर जाएगी हमारी ये नन्ही परी!