भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने न केवल ज्ञान की बातें बताई है बल्कि जीवन जीने की कलाओं के बारे में भी बताया है.
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,कि हे अर्जुन,जो पुरुष न ही किसी से ईर्ष्या करता है तथा न ही किसी से आशा करता है वो कर्मयोगी है तथा उसको सदैव सन्यासी ही जानना चाहिए.ईश्वरीय तेज़ का होना,अपराधों के लिए माफ़ कर देने का भाव,किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने का भाव,मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव,किसी से भी ईर्ष्या न करने का भाव और सम्मान न पाने का भाव यह सभी तो देवीय स्वभाव को लेकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के लक्षण हैं.
मनुष्य कई बार अपने मन में ईर्ष्या,नफ़रत,क्रोध,आदि को जन्म दे देते हैं. ये भाव पैदा होते हैं द्वेष भाव से.जब हम द्वेष रखते है तो उसी समय हमारा मन अपवित्र होना शुरू हो जाता है.जब कोई हमारी सहायता करता है तो हम बहुत ख़ुश हो जाते हैं,परंतु जैसे ही वो किसी कारण वश एक दो काम नहीं कर पाता तो हम उससे नफ़रत करने लगते हैं.इसलिए किसी से ईर्ष्या रखना व किसी से उम्मीद करना दोनो ही ग़लत हैं
- जब तक हम अपने भीतर अधूरापन महसूस करते रहेंगे,तब तक किसी इंसान को अपने से ऊपर देखकर ईर्ष्या महसूस करते रहेंगे.
- कर्मयोगी निष्काम कर्म करता है.उसका मन गंगा की तरह पवित्र होता है.वह दूसरे की प्रगति देखकर ईर्ष्या नहीं करता,और न ही किसी से अपेक्षा रखता है.ऐसा कर्मयोगी सन्यासी है क्योंकि वो हर कर्म में भगवान को देखते हुए ,हर कर्म को उनको समर्पित करता है
- गीता के अध्याय-१२-श्लोक-१४-१४ में भगवान कृष्ण कहते है,जो पुरुष सब भूतों द्वेष -भाव से रहित,स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु हैं तथा ममता से रहित,अहंकार से रहित सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है-तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट है मन -इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझ में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला भक्त, मुझे प्रिय है।
- मै द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमो को संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही रखता हूँ.असुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहते हैं कि,जगत झूठा है,इसका न तो कोई आधार है,और न ही ईश्वर है,यह संसार बिना किसी कारण,स्त्री पुरुष संसर्ग से उत्पन्न हुआ है,कामेच्छा के अतिरिक्त कोई कारण नहीं है.असुरी स्वभाव वाले मनुष्य कभी न त्रप्त होने वाली कामवासनाओं के अधीन,झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त,मोहग्रस्त होकर जड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए दृढ़संकल्प धारण किए रहते है.जीवन की अंतिम घड़ी तक उनके जीवन का परम लक्ष्य केवल इन्द्रियत्रप्ती के लिए ही निश्चित रहता है.
- हे कुंती पुत्र,असुरी योनि को प्राप्त हुए मूर्ख मनुष्य अनेकों जन्मों तक आसुरी योनि को ही प्राप्त होते हैं,ऐसे मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर अत्यंत अधम गति( निम्न योनि) को ही प्राप्त होते हैं.
- जो मनुष्य कामनाओं के वश होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन में उत्पन्न की गयी विधियों से कर्म करता रहता है,वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है,न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम गति को ही प्राप्त हो पाता है
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