वैसे तो गुरु के मौजूद रहने पर किसी भी दिन उनकी पूजा की जानी चाहिए। किंतु पूरे विश्व में आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन विधिवत गुरु की पूजा करने का विधान है। उस दिन हर शिष्य को अपने गुरु की पूजा कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए। (वर्ष की अन्य सभी पूर्णिमाओं में इस पूर्णिमा का महत्त्व सर्वाधिक है।) इस पूर्णिमा को इतनी श्रेष्ठता प्राप्त है कि इस एकमात्र पूर्णिमा का पालन करने से ही वर्ष भर की पूर्णिमाओं का फल प्राप्त होता है। गुरु पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है, जिसमें हम अपने गुरुजनों, महापुरुषों, माता-पिता एवं श्रेष्ठजनों के लिए कृतज्ञता और आभार व्यक्त करते हैं।
गुरु वास्तव में कोई व्यक्ति नहीं, वरन् उसके अंदर निहित आत्मा है। इस प्रकार गुरु की पूजा व्यक्ति विशेष की पूजा न होकर गुरु की देह में समाहित परब्रह्म’ परमात्मा और परब्रह्म’ ज्ञान की पूजा है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा विशेष रूप से गुरु पूजन का पर्व है। इस पर्व को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं। उन्होंने वेदों का विस्तार किया और कृष्ण द्वैपायन से वेदव्यास कहलाये। इसी कारण इस गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। 16 शास्त्रों एवं 18 पुराणों के रचयिता वेदव्यास जी ने गुरु के सम्मान में विशेष पर्व मनाने के लिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चुना। कहा जाता है कि इसी दिन व्यास जी ने शिष्यों एवं मुनियों को पहले-पहल श्री भागवत् पुराण का ज्ञान दिया था। अत: यह शुभ दिन व्यास पूर्णिमा कहलाया। व्यास जी ने सर्वप्रथम सूत जी को अपना शिष्य मानकर उन्हें ज्ञान प्रदान किया। व्यास जी के बाद ऋषियों एवं मुनियों ने श्री शुक्रदेव जी को उनका स्थान प्रदान किया। जब कभी श्री भागवत् पुराण का पाठ किया जाता है, तो सर्वप्रथम श्री शुकदेव जी का स्मरण किया जाता है। व्यास जी ने देश की वंदना करते हुए उसका दर्शन हमें जिस रूप में कराया, वह प्रत्येक भारतीय के लिए वंदनीय है।
इसी आषाढ़ मास की पूर्णिमा को छह शास्त्र तथा अठारह पुराणों के रचयिता वेदव्यास के अनेक शिष्यों में से पांच शिष्यों ने गुरु पूजा की परम्परा डाली। पुष्पमंडप में उच्चासन पर गुरु यानी व्यास जी को बिठाकर पुष्प मालाएं अर्पित कीं, आरती की तथा अपने ग्रंथ अर्पित किए। तब से शताब्दियां बीत गईं। गुरु को अर्पित इस पर्व की संज्ञा गुरु पूर्णिमा ही हो गई।
आइये, अब जरा यह जानने की कोशिश करें कि आषाढ़ मास की इतनी महत्ता क्यों है? क्यों आषाढ़ी पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहा जाता है।
हम जानते हैं कि तिथियों का बनना सूर्य व चन्द्रमा पर आधारित है। सूर्य आत्मा का कारण है और चन्द्रमा मन का कारण है। सूर्य तेज है तो चन्द्रमा शीतलता है। भगवान शिव जी ने भी द्वितीया का चन्द्रमा मस्तक पर धारण किया है। हलाहल पान की गर्मी को शांत करता चन्द्रमा उनके मस्तक पर सदैव विराजमान रहता है। सूर्य पिता है तो चन्द्रमा माता है। चन्द्रमा शब्द को कैसे भी कहें चाहे चन्द्र अ मा, पूर्णि अ मा, अमा अ वस्या। सबमें ‘मां’ सा शब्द है। मां सब माफ करती है जैसे महागुरु, परमगुरु, सद्गुरु सब माफ करता है, सब भूलों को क्षमा करता है।
चन्द्रमा जब सूर्य के सामने 180 डिग्री पर आता है तो पूर्णिमा होती है। सूर्य के प्रकाश की गर्मी चन्द्रमा पर से परावर्तित होती है, तो उसमें शीतलता होती है और आषाढ़ मास वर्षा ऋतु का भी मास है लेकिन सूर्य की तपिश के साथ-साथ इसी मास में सूर्य आर्द्रा नामक नक्षत्र में प्रवेश करता है और यह आर्द्रा प्रवेश की कुण्डली ही वर्षा के ज्योतिषीय आयामों पर प्रकाश डालती है कि इस वर्ष वर्षा ऋतु कैसी रहेगी, कहां-कहां वर्षा का प्रभाव रहेगा। कहां दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ेगा।
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को चन्द्रमा देव गुरु बृहस्पति की धनु राशि में होता है और शुक्राचार्य के नक्षत्र पू. आषाढ़ में होता है अर्थात् मन दोनों ही गुरुओं से संबंध कर पूर्ण ज्ञान का अभिलाषी बन जाता है। चन्द्रमा की रोशनी ही वनस्पतियों में रस उत्पन्न करती है। इसी चन्द्रमा से मानव में ज्ञान रस की वृद्धि होती है और यह मन ही है जो मनुष्य को ज्ञान-विज्ञान दोनों में प्रवीण कर सकता है। मन की शांति व समय के लिए चन्द्रमा की उपासना करना जरूरी है। मन शान्त हो, तो ही जीवन यात्रा सफल होती है।
आषाढ़ मास में वर्षा ऋतु के बादल कभी चांद की ओर हों, तो उसकी रोशनी भी ढक सकते हैं और जब अंधकार हो जायेगा तब गुरु पूर्णिमा का प्रकाश बेहद शीतलता देगा। उसी प्रकार सच्चे शिष्य कितने भी अंधकार में हों, गुरुदेव उन्हें ढूंढ ही लेते हैं। चन्द्रमा केवल निमित्त मात्र है। वह केवल दर्पण है जो आत्मसाक्षात्कार कराता है।
चूंकि सूर्य आत्मा है इसलिए सीधे आत्मा का साक्षात्कार संभव नहीं होता। अर्जुन जैसा महान योद्धा भी श्री कृष्ण के विराट रूप को देखकर बोल उठा था- प्रभु, आपका तेज सहस्त्र सूर्यों के समान है। मैं इसे सह नहीं पा रहा हूं। कृपया अपने सौम्य चतुर्भुज रूप में आयें।

अध्यात्म में सूर्य रूपी ज्ञान के प्रकाश से सीधा साक्षात्कार न करके गुरु रूपी चन्द्रमा के माध्यम से लाभ उठाने का नियम है। सूर्य परम तेजस्वी है और चन्द्रमा परम शीतल। चन्द्रमा माध्यम है सूर्य की रोशनी का। उसी प्रकार गुरु भी माध्यम है परमात्मा के उस दिव्य विराट तेज का। प्रेम/भक्ति योग में भी प्रभु से मिलन की अपेक्षा गुरु का सान्निध्य शिष्यत्व के सहज ही प्रभु के दर्शनों में सहायक है, मुक्ति दाता है।
गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर कोई और तिथि हो ही नहीं सकती, क्योंकि गुरु और पूर्णत्व दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। जिस प्रकार चंद्रमा पूर्णिमा की रात सर्वकलाओं से परिपूर्ण हो जाता है और वह अपनी शीतल रश्मियां समभाव से सभी को वितरित करता है उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान से ओत-प्रोत गुरु अपने सभी शिष्यों को अपने ज्ञान प्रकाश से आप्लावित करता है। पूर्णिमा गुरु है। आषाढ़ शिष्य है। बादलों का घनघोर अंधकार। आषाढ़ का मौसम जन्म-जन्मान्तर के लिए कर्मों की परत दर परत है। इसमें गुरु चांद की तरह चमकता है और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
तमसो मा ज्योर्तिगमय
मृर्त्योमा अमृतं गमय
चांद जब पूरा हो जाता है तो उसमें शीतलता आ जाती है। इस शीतलता के कारण ही चांद को गुरु के लिए चुना गया होगा। चांद में मां जैसी शीतलता एवं वात्सल्य है। इसलिए हमारे ऋषियों व महापुरुषों ने चांद की शीतलता को ध्यान में रखकर आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु को समर्पित किया है। अत: शिष्य, गृहस्थ, संन्यासी सभी गुरु पूर्णिमा को गुरु पूजन कर आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। गुरु महिमा को इस स्तुति से वंदित किया गया है-
गुरुर्ब्रह्म’ गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:
गुरु: साक्षात् परमब्रह्म’ तस्मै श्री गुरवे नम:।।
गुरु पूर्णिमा को गुरु का ध्यान करते हुए गुरु की पूजा, अर्चना व अभ्यर्थना करनी चाहिए। भक्ति और निष्ठा के साथ उनके रचे ग्रंथों का पाठ करते हुए उनकी पावन वाणी का रसास्वादन करना चाहिए। उनके उपदेशों पर आचरण करने की निष्ठा का वर मांगना चाहिए।
गुरु पूर्णिमा के दुर्लभ क्षणों में हमें अपने अंदर के निद्रित पड़े शिष्य तत्त्व को उभारना चाहिए। अपनी पात्रता कैसे विकसित हो, इसके लिए गहरा आत्ममंथन करना चाहिए। यह गुरु पूर्णिमा हम सभी प्रज्ञा परिजनों के जीवन में विशिष्ट विशेषता व दिव्यता लेकर आए, इसके लिए हमें सजग एवं सक्रिय होना चाहिए। हमारे भावों, विचारों एवं कर्मों में हमारे आराध्य परम पूज्य गुरुदेव उतर सकें। उनके सदृश हमारे जीवन की गतिविधियां क्रियाशील हों तथा वे हमारे हृदय, मन व प्राण में बस जाएं, हमें ऐसी ही महासाधना करनी चाहिए। इसकी शुरुआत गुरु पूर्णिमा से की जा सकती है। शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए हमें उन्हीं के कार्यों को निष्काम भाव से करना चाहिए। गुरु स्मरण एवं गुरु के कार्य से ही शिष्यत्व की पात्रता आती है। अत: इस गुरु पूर्णिमा से हमें कुछ विशेष करने का संकल्प लेना चाहिए। तभी हमारे सद्गुरु हमारे जीवन में अवतरित होंगे और जीवन धन्य बन सकेगा।
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