अन्य धर्म और गुरु                                                                                                                     

सिख धर्म तो गुरु-वाणी पर आधारित धर्म ही है, जिसमें गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया I परन्तु इसे गुरु गोविन्द सिंह जी की दूरदर्शिता ही कहेंगें कि उन्होंने आने वाले समय को भाँपते हुए गुरुओं की परंपरा को दसवें गुरु तक ही रोक दिया और भविष्य के लिए उनकी वाणी को ही गुरु मान लेने का प्रावधान किया, क्योंकि लिखे हुए शब्द जहां अपना संदेश देने में समर्थ होते हैं, वहीं जीवित मनुष्य की तरह उसका प्रयोग अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए नहीं कर सकते I

जैन धर्म में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को विभिन्न क्रमिक अवस्थाओं में बांटा गया, जिन्हें पार करने के लिए गुरु की आवश्यकता मानी गयी I जबकि महात्मा बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहकर अपने प्रयत्न से जीवन का सत्य खोजने पर बल दिया I पुरातन ऋषि अष्टावक्र ने एकल-गुरु के स्थान पर बहुल-गुरु की अवधारणा सामने रखी और अपने अनगिनत गुरुओं के बारे में बताते हुए कहा कि मैं जितने भी लोगों से मिलता हूँ, उन सबसे कुछ न कुछ सीखता हूँ और इस दृष्टि से वे सब मेरे गुरु ही होते हैं I

प्राचीन काल के गुरु

गुरु की महत्ता पर इतना जोर दिए जाने के कारण प्राचीन काल से ही आत्म-कल्याण के इच्छुक लोग सबसे पहले सदगुरु की तलाश करते थे, जो अक्सर अपने उद्देश्य में सफल भी होते थे I ये गुरु भी अभ्यर्थी शिष्यों की परीक्षा लेकर सदाचारी व्यक्तियों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते थे और फिर न केवल उन्हें भरपूर स्नेह व सुरक्षा प्रदान करते थे, बल्कि उनके कल्याण के लिए प्रतिबद्ध भी रहते थे I उनका उद्देश्य किसी को अपना शिष्य बनाकर उससे पैसा कमाना न होकर शिष्यों में अपना ज्ञान बांटकर उनका हित करना ही होता था I

साथ ही ये गुरु शिष्यों को केवल सैद्धांतिक उपदेश न देकर स्वयं अपने आचरण से भी उन्हें शिक्षा देते थे I इस सम्बन्ध में एक प्रसंग आता है कि एक व्यक्ति अपने पुत्र की अधिक गुड़ खाने की आदत से परेशान होकर उसके गुरु के पास पहुंचा और उनसे आग्रह किया कि यदि वे उसके पुत्र को गुड़ खाने से मना करें तो वह उनकी बात नहीं टालेगा I इसपर गुरु ने उनसे एक सप्ताह के बाद दुबारा आने को कहा I उस दिन गुरु ने उस लड़के से गुड़ न खाने के लिए कहा तो वह तुरंत मान गया I इस पर पिता ने पूछा कि आपने यह बात कहने के लिए एक सप्ताह का समय क्यों लिया ? तब गुरु ने बताया कि एक सप्ताह पहले तक वे स्वयं गुड़ खाया करते थे, अतः अपनी आदत को ठीक किये बिना उसके पुत्र को उपदेश कैसे दे सकते थे ! यह सुनकर वह व्यक्ति गुरु के चरित्र से अभिभूत हो गया I

आधुनिक गुरु

अब यदि उक्त प्रसंग की तुलना आज के तथाकथित गुरुओं से करें तो पायेंगें कि इसका ठीक उलटा हो रहा है, जब ये उपदेश तो कुछ और देते हैं और इनका अपना आचरण उसके बिलकुल विपरीत होता है I इनके प्रवचन सुने तो पायेंगें कि ये अपने शिष्यों को मोह-माया से दूर रहने के उपदेश देते थकते नहीं हैं, परन्तु खुद उन्ही से मोटी-मोटी दक्षिणा लेकर धन-संपत्ति का अम्बार लगाए जाते हैं I एक ओर शिष्यों को सादा जीवन बिताने का सन्देश देने वाले स्वयं अपने साथ लक्ज़री गाड़ियों के काफिले रखकर तथा दूसरों को गृहस्थी में विरक्ति की महिमा बताने वाले स्वयं स्त्रियों से घिरे रहकर, ये कौन सा आदर्श अपने शिष्यों के सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं, कहना मुश्किल है I

आजकल फर्जी बाबाओं ने अपना ऐसा जाल फैला रखा है कि सच्चे गुरु और ढोंगी में फर्क करना ही मुश्किल हो गया है I इनमें से अधिकतर तो पूरे तामझाम के साथ बड़े-बड़े किले-नुमा आश्रमों में रहते हैं और एक अच्छे कॉर्पोरेट बिज़नसमैंन की तरह इनका मज़बूत जनसंपर्क विभाग होता है, जिसके सदस्य नकली भक्त बनकर झूठे-सच्चे किस्से सुनाकर नए भक्तों को मेस्मेराइज करने का जिम्मा संभालते हैं I

फैशन बन गया है आज गुरु बनाना 

आज ज्ञान प्राप्ति हेतु नहीं, अपितु दूसरों की देखा-देखी गुरु बनाने का फैशन चल पड़ा है I यहाँ तक कि  आधुनिकता के रंग में रंगे शिक्षित युवक-युवतियां भी इनसे दीक्षा लेते दिखाई पड़ जाते हैं और लम्बे समय तक इनके आश्रमों में रहकर “आध्यात्म”  की कथित शिक्षा भी प्राप्त करते हैं I परन्तु जब इनकी असलियत से पर्दा उठता है, तो वहां होने वाले काले कारनामों का कड़वा सच जानकर मन वितृष्णा से भर जाता है I

लेखक के अपने अनुभव

बचपन से गुरु की महिमा के विषय में पढ़ व सुनकर लेखक ने कई बार किसी अच्छे गुरु से संपर्क कर कुछ ज्ञान अर्जित करने का प्रयास किया, परन्तु हर बार असफलता ही हाथ लगी I एक बार एक ज्ञानी व्यक्ति के विषय में सुनकर जब लेखक उनके निवास पर पहुंचा तो अभिवादन कर वहां बैठने के पश्चात जो पहला प्रश्न उन्होंने किया वो था, आप लगभग 10 कि.मी. दूर स्थित अपने आवास से मेरे पासतक किस वाहन (बस, ट्रेन स्कूटर या कार आदि) से आये हैं I मेरे यह बताने पर कि मैं कार से आया हूँ, वो यह जानने का प्रयास करने लगे कि क्या कार मेरी अपनी है ? जब मेरे मुहं से निकल गया कि हाँ, मैं अपनी कार से आया हूँ तो उन्होंने तुरंत मुझे अपनी सभा में बुला लिया I

इस बीच मेरे मन में लगातार प्रश्न उठता रहा कि मैं तो एक जिज्ञासु के रूप में यहाँ आया था, चाहे पैदल चलकर आया या शाही सवारी में बैठकर, एक ज्ञानी को इससे क्या और क्यों कोई फर्क पड़ना चाहिये ? परन्तु थोड़ी देर में वहां हो रहे वार्तालाप से स्पष्ट हो गया कि वहां तो पैसेवाले अंधभक्तों का जमावड़ा है, जिसमें ज्ञान-चर्चा से किसी को कोई लेना-देना नहीं I अलबत्ता इतना अवश्य मालूम हुआ कि वे एक चमत्कार दिखाते थे, जिसमें बहुत से दीपक गोलाकार में साथ-साथ रखकर जलाए जाते और जब वो मंत्र पढ़ना शुरू करते, तो सब दीपकों की लौ एक साथ मिल जाती थी I परन्तु चूँकि लेखक ईश्वरीय व्यवस्था से इतर इस प्रकार के चमत्कारों पर विश्वास नहीं करता, अतः वहां से वापिस लौटने में ही अपनी भलाई समझी I

इसके पश्चात एक अन्य सज्जन, जो आध्यात्मिक विषयों पर प्रवचन देते थे और हमारे आवास के पास कहीं ठहरे हुए थे, के ज्ञान की चर्चा सुनकर कुछ परिचितों ने लेखक को उनसे मिलकर अपनी शंकाओं के समाधान पाने का परामर्श दिया I जब हम वहां पहुंचे तो पाया कि उनसे मिलने वालों की लम्बी लाइन लगी है और एक-एक कर लोगों को अन्दर उनके पास भेजा जा रहा है I बाहर बैठे कुछ अपरिचित लोग उनकी महिमा सुना रहे थे कि किस प्रकार उनके आशीर्वाद से किसी की बीमारी ठीक हो गयी और किसी निःसंतान दंपत्ति की गोद भर गयी I

खैर, अपना नम्बर आनेपर जब लेखक उनके सामने प्रस्तुत हुआ और प्रणाम कर बैठ गया तो उन्होंने परिचय पूछकर अपनी समस्या बताने के लिए कहा I इसपर लेखक ने विनम्रता-पूर्वक उत्तर दिया कि समस्या तो कोई नहीं है, क्योंकि जो कुछ न्यूनाधिक मेंरे पास है, उससे मैं संतुष्ट हूँ, मैं तो आपके पास कुछ आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान पाने के लिए प्रस्तुत हुआ हूँ, कृपा कर उन्हें दूर करें I इसपर उनका उत्तर आश्चर्यचकित कर देने वाला था, उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर तो हमारे प्रवचनों से मिल जायेंगे, यहाँ तो मैं सबकी समस्यायें दूर करने आया हूँ, आपको भी कोई समस्या हो, तो बताएं, मैं उसे दूर करूंगा I इसपर लेखक ने कहा कि मेरा कर्म-फल के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास है, अतः मेरा मानना है कि यदि मुझे कुछ चाहिए तो उसके लिए मुझे कर्म करना होगा I उदाहरणार्थ यदि मुझे नौकरी में प्रमोशन चाहिए तो अधिक मेहनत कर अपने नियोक्ता को संतुष्ट करूंगा, यदि बीमार हूँ तो डॉक्टर के पास जाकर दवा लानी होगी, परन्तु ज्ञानी के पास आकर तो अनमोल ज्ञान की ही चाह रखता हूँ, नश्वर सांसारिक वस्तुओं के विषय में बातकर उनका समय क्यों खराब करूँ ! परन्तु उन्होंने मेरी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया I

फिर मैंने निवेदन किया कि वह कृपाकर इतना बता दें कि आत्म-कल्याण हेतु जिस सद्गुरु की तलाश मैं कर रहा हूँ, उन्हें पहचानूगां कैसे ? परन्तु वे उत्तर देने के स्थान पर मोबाइल पर बात करने लगे I इस बीच उनके चेले आकर उन्हें सूचना देने लगे कि दर्शनार्थियों की संख्या को देखते हुए उनका प्रवास पूरी तरह सफल रहा है और कुछ पत्रकार भी उनका इंटरव्यू लेने के लिए खड़े हैं I अबतक वो भी समझ चुके थे कि मैं उनके काम का व्यक्ति नहीं हूँ, अतः उन्होंने मुझे फिर कभी फुर्सत में आकर मिलने को कहकर पीछा छुड़ाना ही बेहतर समझा I    

इसके पश्चात हमने किसी के पास न जाकर TV पर ज्ञानी लोगों के प्रवचन सुनने का मन बनाया I इनमें से एक प्रवाचक से हम बहुत प्रभावित हुए और उनके प्रवचनों व भजनों की बहुत सी कैसेट भी ले आये I परन्तु एक दिन उनसे भी हमारा मोह भंग हो गया, जब हमने गुरु-पूर्णिमा पर शिष्यों द्वारा किये जा रहे उनके अभिनन्दन समारोह का लाइव प्रसारण TV पर देखा I जो महाराज अपने प्रवचनों में धन के प्रति अनिच्छा को सद्गुरु के आवश्यक लक्षणों में से एक बताते थकते नहीं थे, उनके गुरु-वंदन समारोह में लोग एक से बढ़कर एक महंगे उपहार लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे I उसके पश्चात घोषणा हुयी कि नीचे खड़े NRI भक्त मंच पर आ जाएँ, अन्य भक्त जहां खड़े हैं, वहीं से उनके दर्शन करें और अपनी भेंट वहां रखे बक्सों में डाल दें I फिर गद्गद हुए NRI भक्त मखमल से ढकी थालियों में स्वर्णाभूषण व नोटों की गड्डियां लेकर आगे आये और चरणस्पर्श कर अपनी भेंट गुरूजी को समर्पित करने लगे, जिसे गुरूजी कपड़ा हटाकर तिरछी नज़र से देखकर और निर्विकार भाव से छूकर, इस प्रकार अपने सहायक को पकड़ाते रहे, मानो इन सबका कोई मोल उनके लिए है ही नहीं I 

सद्गुरु की असफल खोज  

इस प्रकार आजतक न केवल सद्गुरु की हमारी खोज नितांत असफल रही है, बल्कि इसने हमारी दुविधा को और बढ़ा दिया है, क्योंकि जहां एक ओर हमारे धर्मग्रंथों में कहा गया है कि मोक्ष-प्राप्ति हेतु गुरु पर पूर्ण विश्वास कर उसके प्रति समर्पित होना होगा, वहीं जब आज के गुरु इसी भावना का लाभ उठाकर अपने शिष्यों का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, यहाँतक कि यौन-शोषण भी कर रहे हैं, तो एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ऐसे में हम क्या करें ? क्या ऐसे गुरुओं पर विश्वास कर अपना सर्वस्व जोखिम में डाल दें या गुरु के अभाव में कल्याण-मार्ग से ही दूर हट जाएँ ?

वास्तव में पिछले कुछ ही समय में एक के बाद एक लगातार जेल-यात्रा पर प्रयाण कर रहे प्रसिद्ध गुरुओं और तथाकथित ज्ञानियों के आचरण को देखकर तो हमें जीवन में कभी ‘सद्गुरु’ से साक्षात्कार कर पाने की आशा धूमिल होती नज़र आ रही है I इस विषय पर जब हमने अपनी धर्मपत्नी श्रीमती अर्चना गुप्ता से चर्चा की तो उन्होंने एक सुझाव दिया कि हम आधुनिक गुरुओं के प्रवचन CD आदि के माध्यम से सुने और उसपर अमल करने का प्रयास करें, क्योंकि सैद्धांतिक ज्ञान बाँटनें में इन गुरुओं का कोई सानी नहीं होता I परन्तु न तो भूलकर भी इनसे मिलने का प्रयास करें और न ही इनके व्यक्तिगत जीवन में झांकने का, क्योंकि उससे निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगेगा I   

या फिर हम किसी सशरीर गुरु की तलाश छोड़कर वेद-उपनिषद आदि धर्मग्रंथों में स्वयं ज्ञान की खोज करें I एक अन्य रास्ता ऋषि अष्टावक्र वाला भी हो सकता है, जिसमें किसी एक व्यक्ति को गुरु बनाकर उसके ऊपर निर्भर रहने के स्थान पर, अपने संपर्क में आने वाले जिस प्राणी से भी हम कुछ सीख सकते हैं, उस विषय में उसी को अपना गुरु मान लें और इस प्रकार एक के बाद एक विभिन्न गुरुओं से ज्ञान प्राप्त करते हुए आध्यात्मिक विकास की सीढियां चढ़ते चलें जाएँ !

इस प्रकार हम तो इस विषय में भ्रमित हो चुके हैं, अतः यदि सुधी-पाठकगण कोई मार्गदर्शन दे सकें तो उनके विचारों का स्वागत है I