कभी-कभी विद्यार्थी मुझसे ऐसे प्रश्न करते हैं, जिनके उत्तर मुझे सरलता से नहीं मिलते। पिछले दिनों उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा का अर्थ क्या होता है। मैंने अपनी समझ से उनको बता दिया, किंतु वे संतुष्ट नहीं हुए और उदाहरण मांगने लगे। मुझे जब कुछ नहीं सूझा तो मैंने उन्हें यह कहकर टाल दिया कि अगले सह्रश्वताह बताऊंगा। जब कभी मुझे अच्छे उत्तर नहीं सूझते तो मैं अपने पुराने स्कूल के मास्टर खेमचंद जी के पास पहुंच जाया करता हूं। इस बार भी यही हुआ, मेरी व्यथा जानकर उन्होंने अपने पड़ोसी चंपकलाल जी की कथा मुझे सुनाई, वही कथा आपकी सेवा में उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है-

पता नहीं चंपकलाल जी के भाग्य में ऐसा क्या है कि जिस-जिस आंगन में उन्होंने आज तक अतिरिक्त नाचने की कोशिश की, वह टेढ़ा ही निकला। कमाल यह है कि जब तक वे सामान्य रूप से नाचते हैं तो आंगन टेढ़ा नहीं होता, केवल असामान्य होने पर ही जाने किस कोण से, किस दबाव की वजह से वह टेढ़ा हो जाता है। इस प्रश्न का उत्तर उन्हें कभी अत्यधिक सिर खुजलाने पर भी प्राप्त नहीं हो सका है। मेरी मजबूरी यह है कि मैं ठीक उनके घर के सामने रहता हूं। वे और मैं एक ही मकान के दो हिस्सों के वासी हैं, यानी चंपकलाल और मैं, यानी खेमचंद।

मैंने चंपकलाल की ऐतिहासिक गवेषणा करते हुए खोजा कि जब वे पैदा हुए तो वे अपने जन्म के संबंध में कोई कटु आलोचना केवल इसलिए नहीं कर पाए थे, क्योंकि वे बोल नहीं सकते थे तो भी उन्होंने तरह-तरह के हाव-भाव प्रदॢशत करके, भांति-भांति के नाच नचाकर सिद्ध करने का प्रयास किया था कि आंगन टेढ़ा है, परंतु तब कोई समझ नहीं सका। अब हालात ये हैं कि हमारे मोहल्ले का हर समझदार व्यक्ति उनकी इस चरित्रगत विशिष्टता के हर अंदाज से परिचित है।

जब स्कूल में पढऩे के लिए भेजे गए तो उनके पिता को मांग और वितरण की हर आॢथक समस्या का बोध हो गया। उनकी हर तीसरी मांग इस किस्म की होती थी कि वितरण की समस्या में वे पिता को उलझा देते। पिता जानते थे कि बेटे की असंख्य मांगों को पूर्ण करने के साधन उनके पास नहीं हैं। स्कूल की हर परीक्षा का फल घोषित होने पर चंपकलाल परीक्षाफल देखते ही मुंह बनाकर कहा करते कि ‘प्रश्न-पत्र ही बेकार था, मैंने तो सभी तैयार कर रखा था अथवा ‘प्रश्न ही बेकार था, मैंने तो सभी तैयारी कर रखी थी अथवा ‘प्रश्न तो अच्छा था, मैंने भी श्रेष्ठतम उत्तर लिखे थे, परंतु परीक्षक को जांचने की अकल ही नहीं थी, वरना क्या मैं फेल हो सकता था? आदि। उनकेपिताजी का यह अरमान दिल में ही रह गया कि उनका सपूत कॉलेज में जाए। सपूत के लिए कॉलेज भी अन्य आंगनों की भांति टेढ़ा ही था। अत: वह उस पर नाच न सका। पहले ही उन्होंने स्कूल की ग्यारह बरस की पढ़ाई कुछ सोलह वर्षों में पूर्ण की थी। वे बाइस वर्ष के हुए तो उनके पिता ने उन्हें किसी काम-धंधे के लिए कहा। वे जुट गए और वर्षों तक उन्होंने कई काम देखे, अनेक से साक्षात्कार किया और छब्बीस वर्ष की आयु तक पहुंचतेपहुं चते उन्होंने घोषित किया कि वे मोटर मैकेनेक बनेंगे। लिहाजा, एक उस्ताद के पास उनके चेले के रूप में दीक्षा लेने लगे। दो वर्ष में उनके हाथों के नीचे से चार सौ अस्सी गाडिय़ां गुजरी, परंतु वे काम न सीख पाए। उनमें बुद्धि, श्रम और लगन… केवल तीन वस्तुओं की कमी थी, शेष सभी कुछ उनके पास था, मसलन आलस्य, खीझ, क्रोध, मूर्खता इत्यादि।

कोई भी गाड़ी उनसे ठीक नहीं हो पाई और सभी गाडिय़ों को बनाने वाली कंपनियों के लिए उनके मुख से उन दिनों ढेरों गालियां सुनी गईं। असल में वे तो पूरे मैकेनिक बन चुके थे, पर क्या करते, जबकि कंपनियों ने गाडिय़ों के इंजन ही दोषपूर्ण बनाए थे। किसी सज्जन ने एक बार उनके उस्ताद से पूछा भी कि उन्होंने ऐसे चेले क्यों रखे हुए हैं? जवाब में उस्ताद ने कहा था कि ‘जनाब, मैं बचपन से ही एडवेंचर्स रहा हूं। साहसिक अभियानों में मेरी गहरी रुचि थी। जब तक मैं जवान हुआ, उत्तरी ध्रुव तक लोग पहुंच चुके थे, एवरेस्ट पर फतह हासिल हो चुकी थी, ज्वालामुखी में भी साहसी जा चुके थे, समुद्र के तल तक भी गोताखोर घूम आए थे। यहां तक कि चांद पर भी अमेरिकी हो आए थे। अत: मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं था। तभी अचानक चंपकलाल को उनके पिता मेरी गैराज पर छोड़ गए। दो ही दिनों में मैंने उनमें ऐसी संभावनाएं देखीं कि मुझे ज़ाहिर हो गया कि अगर मैं उन्हें मैकेनिक बना सका तो मुझे तेनजिंग या नील आर्मस्ट्रांग से ईष्र्या नहीं रहेगी, इसीलिए मैं अभी तक अपना अभियान जारी रखे हुए हूं! परंतु बदकिस्मती से उस्तादजी को यह अभियान छोडऩा ही पड़ा और घर के बुद्धू चंपकलाल घर लौट आए और ऐलान कर दिया कि ‘उस्ताद जी को कुछ सिखाना ही नहीं आता था, वरना अब तक मैं कार बनाने का कारखाना ही खोल लेता। यह जवाब सुनकर पिता ने एक बार तो सिर पीट लिया, पर दोबारा फिर कभी नहीं पीटा। भले ही चंपकलाल ने इसी तरह के जवाब ड्राइक्लीनिंग की दुकान बंद करने के बाद, जमीन-जायदाद बेचने का धंदा छोडऩे के बाद, टेलीविजन रिपेयर का काम छूटने के बाद तथा अन्य इसी तरह के अनेक काम छोडऩे के बाद उनको दिए।

एक आदर्श भारतीय पिता की भांति चंपकलाल के पिता ने भी यह सोचा कि उनकी शादी कर दी जाए। शायद विवाह के बाद सुधार हो जाए और वे किसी काम-धंधे में लग जाएं। पिता के नेकनाम के कारण शीघ्र ही एक भले घर की भली-सी लड़की उनके लिए पसंद की गई। धूमधाम से विवाह हुआ और वे विवाहित जीवन के बंधन को कुछ मास तक तो सुखमय समझते रहे, परंतु जैसे ही गृहस्थी का बोझ उन पर डालने की चेष्टा की गई तो यह आंगन उनके लिए अब तक के सभी आंगनों से कहीं अधिक टेढ़ा निकला। वे अपने पिता से भिड़ गए और कहा कि उनकी शादी क्यों की गई। वे तो बिना शादी के भी काम-धंदा कर लेते। पिता ने समझाने की चेष्टा की तो चंपकलाल परशुराम के अवतार हो गए, बोले, ‘आपने मेरी शादी की ही क्यों? आपकी इच्छा से शादी हुई है तो इस गृहस्थी की जिम्मेदारी भी आपकी है। बस, वह दिन है और आज का दिन। चंपकलाल की गृहस्थी का बोझ भी बेचारे उनके पिता पर पड़ा हुआ है। चंपकलाल ने कोई काम-धंधा तो न किया, परंतु तीन संतानों के पिता अवश्य बन गए हैं।

रोज उनके घर से झगडऩे-रोने आदि की ध्वनियां आती हैं। हम सब समझ जाते हैं कि झगडऩे की आवाज किसकी है और रो कौन रहा है। जब कभी एक अच्छे पड़ोसी के नाते मैंने चंपकलाल से अनुरोध किया कि वे कोई काम-धंधा करें या न करें, पर घर में शांति बनाए रखें, पिता के द्वारा निॢमत भवन का किराया उनके और बच्चों के लिए पर्याह्रश्वत है तो उनका उत्तर सदा ही कुछ ऐसा रहा है, ‘भाई साहब, मैं तो कभी झगड़ा शुरू ही नहीं करता, परंतु कमब$ख्त पत्नी और मेरे बच्चे ही इतने नालायक हैं कि गुस्सा दिला देते हैं। एक दिन मैंने कुछ अधिक समझाने की चेष्टा की तो वे रोने लगे। बहते आंसुओं से तर अपने चेहरे को मेरी ओर करते हुए उन्होंने कहा, ‘भाई साहब, मेरा जीवन ही क्या है। पिता मिले तो वे मुझे कुछ समझते ही नहीं। मैं इतना योग्य हूं, परंतु मेरी योग्यताओं की ओर देखने की फुरसत उन्हें नहीं। शादी हुई तो सोचा कि पत्नी ही मुझे कुछ समझेगी, परंतु वह भी मेरी बुद्धि को नहीं पहचान पाती। बच्चे हुए तो ऐसे नालायक कि उन्हें पढ़ाऊं, क्या समझाऊं, वे कुछ जानते-समझते ही नहीं और भाई साहब, एक आपका भरोसा था कि आप एक अच्छे पड़ोसी निकलेंगे, एक भले दोस्त बनेंगे, परंतु हाय रे भाग्य! आप भी तो कुछ नहीं निकले। आपको इतनी भी समझ नहीं कि आखिर चंपकलाल है क्या चीज़।

ऐसी शानदार व्याख्या सुनकर तो मेरी सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई। मुझे कोई उत्तर न सूझा और मैं घर लौट आया। तब से फिर मैंने उनकी शान में कोई गुस्ता$खी नहीं की है। यह कथा सुनाकर मास्टर खेमचंद जी ने मेरी ओर देखा। इसके पहले कि वे कुछ कहते मैं बोला, ‘बहुत-बहुत धन्यवाद गुरुजी, मेरी समझ में सब आ गया। अब तो मैं अपने विद्यार्थियों को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता हूं। यह कहकर मैंने उनके चरण स्पर्श किए और प्रसन्न मन से स्कूल की ओर चल दिया।